इतिहास गवाह है कि प्रत्येक क्रांतिकारी युगपरिवर्तन के लिए धर्मयुद्ध हुआ है उसका स्वरूप चाहे जैसा भी हो।कभी कभी अस्तित्व के लिए परिस्थियों से संघर्ष,कुछ संवेगो और आवेगों को रोकने , मर्यादा की रक्षा के लिए अपने आप , अपनों और सरोकार रखने या न रखने वाले दूसरों से गाहेबगाहे संघर्ष करना पड़ता हैं।नियति तो प्रबल है, विधान के हाथ तो यश,अपयश,जीवन, मृत्यु,हानि और लाभ है।इसके अनुसार ही व्यक्ति विशेष के बल, बुद्धि और विवेक अंकुरित होते हैं । जहां कही लक्ष्मण रेखा का अतिक्रमण होता है, नियति अपने विधान से रुकावट डालकर संतुलित कर देती है।
अधर्म की व्यास चाहे जितनी बड़ी हो,परन्तु नियन्त्रण हमेशा नियति की परिधि के अंदर होगा, अर्थात नैसर्गिक न्याय के अन्दर ही होगा।इस जगत की माया महाप्रबल है,हर जीवधारी की बुद्धि भी प्रबल है पर नियंता ने नियति से जुड़े विचार में कहीं न कहीं कमियां छोड़ रखी हैं।नेतृत्व की बुद्धि या विचार जिस ओर प्रबलता लिए होती है, समाज, देश, परिवार उसी दिशा की ओर चल पड़ता है और वही होता है जिधर नियति ले जाती है।
तुलसी जैसी भवितव्यता,तैसी मिलइ सहाय।
आपुनु आवइ ताहि पहि,ताहि तहां लै जाइ।।
कालवश अपने सामाजिक जीवन में दिल,दिमाग या शरीर के अंदर या बाहर रोजमर्रा घटित या अघटित मंथन में लगी विचार का अध्ययन करें तो आनन्द कम और वेदना ज्यादा महसूस होता है। उसका कारण यह है कि जिसको हम सही समझते हैं दूसरे को ग़लत लगता है।हर कोई अपनी लाइफ स्टाइल को बेहतर समझता है यही नहीं दूसरे पर बलपूर्वक थोपना चाहता है,यही से संघर्ष शुरू होता है, कमजोर व्यक्ति कहता कुछ नहीं,पर उस रास्ते से कतराने की कोशिश करता है। वह उसी रास्ते को सुहावना समझता है जिसे वह पसन्द करता है।
समसामयिकता में हम यह महसूस करते हैं कि चलचित्र की तरह अब हर व्यक्ति दिमाग रूपी पर्दे पर समयानुसार धृतराष्ट्र,शकुनि, दुर्योधन,शल्य, विभीषण, जयचन्द, मानसिंह, मीरजाफर और गांधारी, मंथरा, कैकई, सूर्पनखा, मेनका,रम्भा,उर्वशी आदि व्यक्तित्व जैसे कई किरदार गति करते रहते हैं।यही नहीं,शकुनि से कई गुना जैसी तेज एवं विनाशकारी बुद्धि और पावर या वर्चस्व प्राप्ति हेतु सैकड़ों दुर्योधन जैसी आक्रामकता, व्यक्ति के नैसर्गिक कमजोरी का ताड़कर अपनी कामकला से पथभ्रष्ट कर अनुचित लाभ लेने की रम्भा, उर्वशी जैसी कई गुना आतुरता की तीव्रता जैसे विचार हर क्षण आते हैं।समझ में भी नहीं आता कि बेतहाशा भागते समय में सदैव भरत जैसे लक्षण रखने वाले भाई में कब दुर्योधनी बुद्धि घुस गई,इसका सूत्रधार कौन था?पता लगाना मुश्किल। परिवार अथवा समाज में छुपे रुस्तम बन पल रहे जयचन्द, मीरजाफर और शल्य जैसे तेज किरदार का कब पक्ष बदल जाये,कहने का मतलब उनका जिगरी दोस्त छुपी रंजिश में दुश्मन हो जाये,समझ से परे है? बुद्धि की पराकाष्ठा तो देखिये,पता नहीं कैसे सामने वाले व्यक्ति की कमजोरी पर व्यक्तिगत या सामूहिक नेतृत्व, अथवा साम,दाम,दण्ड और भेद से अपने लिए अतिविश्वास पैदा कर लेते हैं और ऐसे लोग अपने निजी स्वार्थ में अंधे व्यक्ति समय बदलते ही इसी अतिविश्वास में विश्वासघात करने में कोई हिचक नहीं रखते।अपने क्षणिक सुख के लिए पड़ोसी को भारी परेशानी में डाल देते हैं। त्रेता युग में मर्यादा पुरुषोत्तम राम बारह कलाओं से युक्त थे, तत्कालीन मानवीय पहलू के लक्ष्मण रेखाओं को भली-भांति जानते थे और द्वापर युग के योगीराज कृष्ण सोलह कलाओं से युक्त थे, वे पहले से ताड़ जाते थे कि भीष्म प्रतिज्ञा का कमजोर पक्ष क्या है,कर्ण के हृदयविशालता का दुर्ग कैसे तोड़ना है ताकि उसके अंधमैत्रिक भाव का लाभ राजवंश को ऐसा न मिले कि अधर्म के क्षितिज को खोजना पड़े। खून के रिश्ते के सांसारिक मोहबंधन में पड़े अर्जुन की शिथिलता कैसे और किस समय चुनौती बनकर खड़ी होगी ? अपने श्रीमुख से श्रीमद् भगवद्गीता के अध्यायों में अंतर्निहित योगों से उसको जीवन के महासमर में स्थितप्रज्ञ मनुष्य बनाने का उपक्रम रचकर "नष्टो मोह:" कहलवाना केवल उन्हीं के वश की बात थी।अब तो वर्तमान में युग क्रांति लाने के लिए सोलह कलाएं क्या? बत्तीस कलाओं से युक्त महामानव भी अक्षम हो जाये ,तो आश्चर्य नहीं
यह अत्यन्त सोचनीय विषय है कि जिस युग में उपरोक्त रुझान की शुरुआत हो गई हो, वहां क्रांति या युगपरिवर्तन की बात हमें तो बेमानी लगती है।किस प्रकार का किरदार लेकर क्रांति दूत या महामानव पैदा होगा? पर नियति तो नियति ही है,इसकी माया का प्रभाव अनिर्वचनीय और अदभुत है।इसके वश की ही तो बात है कि मंथरा और कैकेई की भूमिका ने अयोध्या कांड रचा और सूर्पनखा के कारण लंका कांड हुआ।
हमने नियतिवश कोरोना जैसी लाइलाज महामारी का दौर देखा। एक अवधि के लिए पूरे विश्व भर के बुद्धि और ज्ञान को किंकर्तव्यविमूढ़ होते देखा । किस प्रकार तीन ग्राम से भी कम वजन के वायरस के माध्यम से अपना प्रभाव दिखाया ? इससे एक भूखंड ही नहीं,पूरा विश्व स्तब्ध है। मुंह में मास्क की अनिवार्यता ने वाणी का नियंत्रण, सेनेटाइजर की अनिवार्यता ने हवा और पानी की शुद्धता ,दो गज की दूरी ने पास पड़े गंदगी और विकार को हटाने का महत्व बताया है। जैनधर्म में आज भी मुनिव्रत धारण करने वाले वाणी शुचिता के लिए मुंह में पट्टी लगाते हैं,भोजन की शुचिता के लिए जमीन के अंदर पैदा होने वाली वनस्पति नहीं खाते और न ही सूर्यास्त के बाद भोजन ग्रहण करते हैं।इस महामारी ने अपने विवेचना में पृथ्वी के सभी जीवधारियों को इसकी अनिवार्यता का अर्थ बता दिया है। कैंसर और एड्स जैसी बिमारियों की तह में ऐसी ही विकार या अनियंत्रित और प्रकृति के प्रतिकूल भोजन का निरंतर पोषण और मन, मस्तिष्क और शरीर का मनमानी विहार ही कमोवेश जिम्मेदार है। कोलेस्ट्रॉल और उच्च एवं निम्न रक्तचाप का आमबात होना तनाववर्धक और उत्तेजना पैदा करने वाले पदार्थों का निरंतर सेवन ही जिम्मेदार हैं। नियंत्रण की अपनी सार्थकता है, यह कोरोना महामारी ने अच्छी तरह समझा दिया है।समय समय व्योम में हो रहे दैवीय विक्षोभ मानव मस्तिष्क पटल पर बेबसी के साथ चिंता की लकीरें उभार रहा है।सुनामी और जल विप्लव जैसी प्राकृतिक प्रकोप कहीं न कहीं महाधर्म युद्ध की संभावना की ओर इशारा कर रहीं हैं।यह प्रशांत शांति का नहीं,बल्कि आगामी प्रलय का उद्घघोष है।
बेचैनी और व्यस्तता भरे जीवन की अपेक्षा थोड़ा चैन और शांतिपूर्ण जीवन जीने की कला का एक अलग अर्थ है। हमने अपने इस जीवन काल में यह महसूस किया है कि अब लोगों की लाइफ स्टाइल में बहुत परिवर्तन है, सदाशयता और विश्वास से भरा पारस्परिक निर्भरता का अभाव हो गया है।यह निरंतर बढ़ते कृत्रिमता मानसिक प्रदूषण इसी का दुष्परिणाम है।
कहीं आगामी महा धर्मयुद्ध का यह शंखनाद तो नहीं,जिसकी आवाज अभी किसी को या भीड़ को सुनाई नहीं दे रही। इसकी अनदेखापन जीवन के लिए कितना घातक सिद्ध होगा इसका अंदाजा लगाना दुष्कर है ।हमने जगन्नियंता द्वारा प्रायोजित कोरोना महामारी का ट्रेलर देखा है, कहीं इससे बढ़कर नियतिवश कोई मूवी न बन जाये। प्रकृति का किसी प्रकार का मनमानापन या उच्छृंखलता वर्दाश्त नहीं।यह सचेत करता है कि हम सभी सार्वभौमिक और आधारभूत सिद्धांतों का पालन करना अनिवार्य समझें।
तभी हमारे साथ जगत का कल्याण है।