बहुतायत में लोग कहते हैं कि प्राणी का जन्म मात्र इत्तेफाक ही नहीं होता, पुनर्जन्म में विश्वास रखने वाले लोग इसके साथ प्रारब्ध, क्रियमाण भी जोड़ देते हैं। अतः उसके जन्म के साथ परिवेश,परिजन, भूमि की मिट्टी ,जन्मदाता और जन्मदात्री आदि सब नियति निर्धारित रहते हैं।बुद्धि भले ही मनुष्य के जन्मते ही बीज रूप में होती है।इसका कुछ हिस्सा स्वभावत: सोच से जुड़ी होती है जिसका नियंत्रण प्रकृति के पास रहता है जिसका बदल पाना बहुत कठिन है।यह सोचते सोचते बैंक का रिटायर्ड चीफ मैनेजर अपने गांव के मड हाउस में बैठे अपने अतीत में खो गया।
घनघोर बरसात हो रही थी,अपने मिट्टी के बने आशियानें के छोटे से दरवाज़े से बाहर झांका तो घर के बाहर बने छोटे - बड़े गड्ढों में पानी भरा था। कहीं कहीं पोली जमीन पर बड़े अंगुलियों के पोरी वाले पैरों के ताजे निशान भी दिख रहे थे।ऐसा लगता था कि मैनेजर साहब श्यामसुंदर के पिता माधवदास बरसात में पिछवाड़े खेत से चलकर भीगते हुए घर आये और चलते हुए पोली मिट्टी में पैर धंस गया। वहीं दूसरी ओर गीली मिट्टी में किसी बच्चे के रपटने का निशान दिख रहा था पता लगा आठ साल की बुधिया बरसात में दौड़ कर घर आ रही थी और चिकनी मिट्टी में फिसल गई और उसके कपड़े उसमें सन गये।
अंदर चीफ मैनेजर की मां निमिया देवी धीमें धीमें कुछ गुनगुना रही थी, ध्यान से कान लगा कर सुनने में जब समझ में नहीं आया तो हमने भाई रमेश से पूछा तो पता लगा कि वह मुखड़ा " नगरी नगरी द्वारे द्वारे ढूंढूं रे सांवरिया,न जाने कब अइहैं परभू सबरी की नगरिया" गुनगुना रही थी।हमारी भौजी यानी रमेश की पत्नी मिट्टी के चूल्हे पर लोहे की काली कड़ाही रख गांव के कोल्हू से निकले देशी सरसों के तेल में पिसे मूंग की मुंगौड़ी बनाने की तैयारी कर रही थी बस इंतजार इस बात का कर रही थी कि चूल्हे में लगी चिरी हुई लकड़ियां आग पकड़ ले उसके लिए लोहे की फुंकनी से हवा फूंक कर आग की लपट लाने की कोशिश कर रही थी । बरसात के लकड़ियां नम थी, जिसके कारण वह लपट नहीं ले पा रही थी, और पूरा रसोई के स्थान पर धुआं धुआं हो गया था जिसका प्रभाव से वहां बैठे सभी लोगों की आंखें, धुएं से लाल होंकर आंसू निकाल रहीं थी।
हम और मैनेजर साहब अपने घर से निकलकर बाहर दालान में आकर थोड़ी देर खटिया पर बैठ गये ,तभी पड़ोस के घर में रह रही अकेली बूढ़ी मां अपने घर में झाडू लगाती जाती और गाती । हे प्रभू! " घर घर दीवाली,मेरे घर अंधेरा; छिपे हो कहां मेरे कृष्ण चितेरा।।तभी हम दोनों की कुंवारी बहन रानू कजरी गा रही थी
हरे रामा कृष्ण बने मनिहारी,
पहन के सारी,रे हारी।। हरे रामा.....
तभी उसके दूसरे पड़ोस घर के रहने वाली नई नवेली बहू काजल उसके पास आ गई ,दरअसल उसके पति मंगरू परदेश में कामगार था साल बीत जाता,बड़े मुश्किल से घर (गांव) आ पाता।वह भी बहिनी के सुर के साथ कजरी गाने लगी ।कजरी खत्म होने पर रानू ने कहा,भौजी ! तुम भी इस सावन में कोई गीत सुनाओ । बड़ी मनौव्वल के बाद उसने यह गीत सुनाया।
" वृन्दावन जाऊंगी .......
सखी रि, मैं लौट के न आउंगी।
मेरे उठे विरह की पीर,सखी रि वृंदावन जाऊंगी।
कैसे धरूं हृदय में धीर,सखी रि मैं वृंदावन जाऊंगी ।"
थोड़ी देर बाद अंदर से बुलावा आया पापा! आ जाओ सभी, मुगौड़ी,तले हुए चने प्याज और साथ में पत्थर के सिल पर पिसी हरी धनियां, लहसुन,मिर्च साथ में डली वाली सफेद नमक की चटनी तैयार है। सिल पर पिसी चटनी को नाम सुनते ही मेरे मुंह में पानी आ गया।खैर,हम सभी घर के अंदर पीछे आंगन में पड़े टिन के शेड के नीचे बैठे और मुगौड़ी,ताज़ी चटनी और तले चने के घुघुरी का नायाब स्वाद का मजा ले रहे थे उस पर कहीं टिन शेड पर पड़ रही बरसात की फुहार,तो कहीं शेड की छेद से मेरे सिर या हाथ पर कभी कभी पड़ रही पानी की बूंदें ताजेपन के अहसास को रूबरू करा देती थी। स्वाद के क्या कहने,हमारी आत्मा तृप्त हो गयी।इसके चखने का मजे की तुलना मैं किसी भी व्यंजनों से नहीं कर सकता।सारे रस के छप्पन भोग व्यर्थ है क्योंकि भाभी के द्वारा पूरे दिल से स्वाद का नास्ता बनाना, गांव का जमीन से जुड़ा खुला और जिंदादिली का माहौल, बेबाक बातचीत ,मस्तदइल से बरसात का आमंत्रण बिना किसी भेदभाव के सबके साथ व्यवहार ही मेरे मन को खींच लेता था।
मैं इन सभी तथ्यों का लुत्फ उठा ही रहा था कि तभी गांव की चार -पआंच बूढ़ी औरतें पुरानी फटी चादरें लेकर आईं और घर के अंदर पहुंच कर बोली बहू! सब काम से फारिग हो गई हो तो आओ इन सभी फटी चादरों की तरीके से तही लगाते हैं और हमारे घर में छोटे मुन्ने के लिए छोटी सी कथरी ( कहीं कहीं इसे डसनियां भी बोलते हैं)घर के सुई धागे से डोबते हुए सभी मिलकर तैयार करते हैं।सब अपने हामी भरने का सिर हिलाते हैं और कहने के अनुसार पुरानी चादरों की तही लगाकर चारों कोनों को पकड़ लेते हैं और सभी सूई धागे से डोबते जाते हैं और गांव का गीत गाते हैं।
जुग जुग जियो रे ललनवां
भवनवां के भाग जागल हो।।
ललना लाल होइहैं,कुलवा के दीपक
मनवां में आस जागल हो।।......
मैं इसे पूरे मनोयोग से सुनता रहा और कहां बैठा हूं यह भी पता नहीं,पूरा सुध-बुध खो बैठा। आंखों में आंसुओ की धारा बहने लगी,सोचने लगा कि अपने बच्चे के लिए मां बाप क्या क्या आस लगाकर बैठते हैं क्या क्या मनौती मानते हैं। गांव के देवी-देवताओं के मठ जाकर उनके कुशल क्षेम दोनों हाथों से दामन फैलाकर दुआएं मांगते हैं। जाने क्या क्या टोटका करते हैं , नज़र उतारते हैं और रो रो कर कहते हैं कि हे मैया! हमारा लाल "भूख भर खाए और नींद भर सोये"। उसकी सारी बला मुझे दे दे। मैंने मन ही मन सोचा कि यह फटी चादरें बड़े नसीब वालों को मिलती हैं। भावना, कल्पना, अनुराग,दिल से मांगी दुआ आदि से बनी यह कथरी की तुलना दुनियां का कोई गद्दा, फर्नीचर,टेबल स्लीपवेल और डनलप पिलो नहीं कर सकता। अरे ये तो विमारी के घर हैं इनमें लेटो तो कमर दुखने लगती है पिलो पर सिर रखो तो गर्दन टेढ़ी हो जाती है और बड़ी मुश्किल से गर्दन की नस सीधी हो पाती है।और तो और , इनमें पैदा और पालित पोषित बच्चों की भावनाएं न बनती हैं और न पनपती हैं। यही कारण हैं कि मां बाप और बच्चों के बीच विचारों में अंतर आ गया है फलस्वरूप परिवार बिखर रहा है। खैर हम तो खुद को बहुत खुशनसीब समझता हूं कि हमारे पालकों ने किस तरह की सद्भावनाओं से हमको पाला है । पुराने पड़ोसी आज भी कहते हैं कि तुम्हारे मां बाप ने तुम्हारे लिए बहुत गहरा बीज बोया है,ऐसी संतान ही गुदड़ी के लाल होते हैं।
हमको अपने गांव की सब बात अच्छी लगी, पर एक बात जरूर खटकी,वो यह कि इस तरह की भावनाएं या कल्पनाएं केवल पुत्र के बारे में क्यों पनपती, पुत्री या लड़की के बारे में क्यों नहीं? ईश्वर के निगाह में दोनों का दर्जा एक सा है ,पलड़े में कोई पासंग नहीं। फिर हम सड़ी गली परम्पराओं के जंजीर में जकड़े हुए ऐसे दो आंख करते हैं। हमें याद है कि हमारी मां भी खान पान में ज्यादा पौष्टिक का भोजन हमें परोसतीं,हमारी बहनों को हमसे कम मात्रा में दूध घी देती। मुझे बुरा लगता मां को टोकता कि हम लोगों के बीच यह बर्ताव ठीक नहीं। उनका एक ही जबाब होता कि खेत के लिए हल में नथने के लिए बैल ही तैयार किए जाते, गायें नहीं।
हमनें मन में कहा कि हमारे दक्षिण भारत देश का केरल प्रांत महिला प्रधान है वहां तो वर पक्ष ही शादी के लिए कन्या ढूंढते हैं और लड़की के घर जाकर लड़की का हाथ मांगते हैं और दूल्हा ही अपनी पत्नी के मां बाप के परवरिश का जिम्मा उठाता है। तो ऐसी विडंबनायें उत्तर भारत में क्यों? यह सोचने को बाध्य करता है।