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हां,वो मां ही थी!

27 मई 2023

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              दो बच्चों के स्वर्गलोक सिधार जाने के बाद  तीसरे बच्चे के रूप में किशोर(नामकरण के बाद रखा नाम) जब गर्भ में आया तो उसकी मां रमाबाई अज्ञात डर और बुरी आशंका से भयभीत रहने लगी। अतः उसकी सलामती के लिए कहीं दूर दूसरे गांव के  किसी पुराने पेड़ को सफेद धागा बांधना,काले कुत्ते को खीर खिलाना,गांव के पास बनी मज़ार में दिया या अगरबत्ती जलाकर आना लगभग उसका रोज़ का काम हो गया था। वह मंदिर में अकेले घंटों बैठकर घुटने के बल बैठ,अपनी पहनी साड़ी के दामन फैलाकर बच्चे के पूरा जीवन देने और जीने के लिए भीख मांगती ।शाम के समय खेत से आए बोरे से धान निकालती। मिट्टी के बने अपने घर के सामने दालान में बने ओखली में धान डालकर मूसल से कूटती ,फिर ओखली से चावल और भूसी निकालकर सूप में डालती,पछोर कर पूरे चावल अलग करती। डलिया में गेहूं निकाल कर उसे रोज सुबह के झुटपुट में घर की बड़ी सी हाथ की चकिया में पीसती और आटा तैयार करती। मिट्टी के चूल्हे में लकड़ियां जलाकर अपने सास,ससुर और पति हीरालाल के लिए पूरा भोजन बनाती । पूरे घर की सलामती का भाव लिए वह रोज पहली रोटी ओसरी में बंधी गाय को खिलाती फिर सबको खाने के लिए कहती। गरम गरम ताजी रोटी खाकर सब निहाल हो जाते।
             बालक किशोर के जन्म के बाद मां रमाबाई सशंकित और चौकन्नी रहती,बालक पर किसी की कुदृष्टि न पड़े, इसलिए वह माथे पर काला टीका लगाना, घर के बाहर घूर पर रखना, उपनाम घुरहू रख देना, मंगलवार के दिन मंदिर ले जाना और वहां बालक को मंगरू पुकारना, एकांत में घर में बच्चे के पास बैठकर बात करना इत्यादि करती रहती थी।परिवार थोड़ा कुरीतियों और अंधविश्वासों से ग्रस्त था इसलिए वह  अकेले में अज्ञात दहशत से ग्रस्त और सशंकित रह उसके चेहरे को देखती और अपने दोनों आंखों से आंसू बहाती और गांव की देवी देवताओं से सलामती की मिन्नतें करती और दुआएं मांगती रहती थी।कहते हैं कि दुर्दिन में राह चलते मनुष्य की मन: स्थिति ऐसी हो जाती है किअगर मददगार बन जाएं तो ठोकर देने कंकर को भी शंकर समझ कर अपना लें ऐसे भाव आने लगते हैं औ भीरु बन  वह मनुष्य उसको माथे पर लगा माफ़ी मांगता है और रास्ते में लगने वाली हवा से भी गिड़गिड़ाता है कि वह बच्चे और उसके परिवार को सुकून से जीने की भीख दे दे,बस यही मन:स्थिति रमाबाई की थी। ज्यादा बड़ी बात नहीं,बस दुआओं में "भूख भर खायें,नींद भर सोएं"यही कहतीं।बस इतना ही उसके सर्व संतुष्टि का आधार था।
                   घर के पीछे कुछ दूरी पर सरयू नदी अवश्य बहती रहती है,गांव नदी के ऊपरी तल से काफी ऊपर है, इस गांव में निवास कर रहे हीरालाल के परिवार की आजीविका सीमित खेती पर आधारित था। पारम्परिक खेती के यंत्रों जैसे बैल के द्वारा चलने वाले हल, कुएं या नहर से ढेंकी, रहट द्वारा नहर से खेत की सिचाई  का पानी निकालना, हाथों से बीज बुआई, बैलों के द्वारा जुताई, फसलों की कीड़े-मकोड़े, जानवरों से यदि बचा खुचा तो गांव के सरपंच और जमींदार उसमें भी ठाकुर हो तो "करेला नीम चढ़ा" जैसा होता था, कहने का मतलब खेती पूरी तरह से प्रकृति पर निर्भर थी।संयोग या बड़े भाग्य की बात होती थी कि खेत के फसल का अनाज भरपूर घर पहुंच जाये।कहने का मतलब किसानों और खेती की बड़ी दुर्दशा थी।अधिकतर परिवार कुपोषण का शिकार था,ऐसे में भला हीरालाल और उसका परिवार कैसे अछूता रहता। तंग आकर उसने  जीविका के लिए कुछ कमाने को और रुख किया।पहले अकेले,बाद में अपनी पत्नी और बच्चे को ले गया।गांव से शहर आया सो बिल्कुल नया माहौल ,ऊपर से कमाई का सीमित साधन। वह गंगा के किनारे ज्योरा मलिन बस्ती में किराये पर मिट्टी की दीवारों और खपरैल की छत वाली झोपड़ी में परिवार सहित गुजर बसर करने लगा।
           समय जैसे तैसे बीतने लगा पर वहां का वातावरण हाइजेनिक नहीं था। कमरे के अंदर हमेशा सीलन रहती थी और सूरज की रोशनी भी ठीक से नहीं आती थी।वहां रहते रहते बालक किशोर को ठंडी लग गई वह गंभीर रूप लेकर न्यूमोनिया का रूप ले चुकी थी,छाती की पसलियां सांस के साथ उल्टी चलने लगी थी। आंखें सूज गई थी। अब तो उसकी मां को "काटो तो खून नहीं" जैसी हालत हो गई ,वह पागल हो गई। हो भी क्यों न? बच्चे की यह बदहाली देखकर कौन मां चुप बैठेगी ?वह कभी नीम हकीम के पास,कभी झाड़ फूंक करने वाले ओझा के पास और कभी डाक्टर के पास।उस समय नवाबगंज में बच्चों के लोग विशेषज्ञ नामी गिरामी डाक्टर नवीनचंद हुआ करते थे।मंहगी फीस लेते थे। रमाबाई अपने बच्चे को लेकर उनके क्लीनिक गई और उसके पास बच्चे को रख वह उनके पैरों पर गिर पड़ी और रो रोकर,दोनों हाथ जोड़े,गिड़गिड़ा कर दहाड़ने लगी,डाक्टर साहब,हमारे बच्चे को बचा लीजिए, हमारे पास कुछ नहीं है और आगे पीछे कोई आधार भी नहीं है , मैं इसके पहले दो बच्चों को खो चुकी हूं ,आप इसको ज़िंदगी दे दीजिए,हम दोनों हाथ जोड़कर इसके जीवन की भीख मांग रही हूं,आपके इस अहसान के बदले में हम कुछ नहीं दे सकते पर ऊपर नीली छतरी वाला आपको और आपके परिवार को सभी प्रकार से भरपूर कर देगा।किसी को जीवनदान देने से बढ़कर कोई दान नहीं होता। मैं इसके लिए भगवान से लड़ सकती हूं लेकिन कहीं दिखता नहीं क्या करूं? मेरे और हमारे पर की गई यह दया हम जीवन भर नहीं भूलूंगी । हम और हमारा यह बच्चा अपने पूरे जीवनभर की कमाई देकर भी आपके इस कर्ज से मुक्त नहीं हो सकता।
         ईश्वरीय प्रेरणा,दैवयोग या संयोग कहें, डाक्टर साहब के दिल में उक्त बातें घर कर गई,उनके दिलो-दिमाग को झकझोर कर रख दिया।वह थोड़ा ठिठके और बोले कि बहन जी,घबड़ाओ मत,आप ऐसी जगह आ गई हो ,अब इस बच्चे का जीवन सुरक्षित है और यह आगे चलकर आपका सहारा तो बनेगा ही, आपके परिवार का नाम रोशन भी करेगा। डाक्टर साहब ने बच्चे को चेक किया,पता लगा उसको डबल न्यूमोनिया हो गया है और इस कारण फेफड़े में पानी और कफ है और साथ साथ वे सिकुड़ते जा रहे हैं।अब उन्होंने उसका इलाज शुरू किया, पंद्रह दिन अपनी निगरानी में रखा ,पहले तो उन्होंने उस घर को बदल देने की सलाह दी और कहा ऐसी जगह घर लें जहां धूप और जलवायु पर्याप्त मिले और घर पर कैसे बच्चे को रखना है,वह पूरी तरह समझाया।अब लड़का स्वास्थ्य लाभ लेकर ठीक हो गया।पर न्यूमोनिया के कारण फेफड़े में काले काले दाग सदा के लिए बने रह गये। कहने का अर्थ फेफड़े सदा के लिए कमजोर हो गये।डाक्टर साहब के सलाह पर उन लोगों ने वह घर छोड़ दिया और दूसरी जगह रहने लगे।
          बालक किशोर धीरे धीरे बड़ा और स्वस्थ होता जा रहा था। उसकी शैतानियां  बढ़ती जा रहीं थीं।वह घर के बर्तनों से खेलता ,उसे बाहर निकाल कर सड़क पर लुढ़काने,खास तौर से गोल तवे, ढक्कन आदि को और चलते चार पहिया वाहन के सामने दोनों हाथ फैलाकर खड़ा होने और ड्राइवर के हार्न बजाने के बाद भी रास्ते से न हटने में बहुत मज़ा आता था,किसी  चाय के दुकान के चाय वाली भट्ठी फोड़ देता।फिर कोई आदमी किशोर का कान उमेठ कर उसकी हरकतों की शिकायत उसकी मां से करने जाता। कभी वह सड़क के किनारे रखे लम्बे से लाल रंग से पुते लेटर बाक्स में ऊपर बने खाने से वो ढेर सारे चमड़े की छीलन भर देता जो पास में फुटपाथ पर फट्टा या बोरा बिछाकर वो रामदीन मोची ग्राहकों के पुराने जूते रिपेयर करने के बाद वहीं छोड़ देता था।अब तो मां बहुत तंग हो गई उसने उसके दोनों हाथ रस्सी से बांध कर घर के अंदर डाल दिया, बाहर से घर का दरवाजा भी बंद कर दिया।जब हीरालाल काम करके घर आता तो ही किशोर की मां घर का दरवाजा खोलती और रस्सी से उसका हाथ खोलती।
          वास्तव में मां नारियल के खोपरे की तरह कठोर होती है जब बच्चे की उच्छृंखलता की हद को रोकने के लिए अपनी जिद पर आती है।धीरे धीरे बालक किशोर पांच साल का हो गया ,अब रमाबाई घर के पास म्युनिसिपल के प्राइमरी स्कूल में उसको डाल दिया।शुरु में जैसे अधिकतर बच्चे पढ़ने में मन नहीं लगाते ,सो उसको पढ़ना नहीं भाता । रमाबाई की शिक्षा प्राइमरी स्कूल तक ही हुई थी,आखिर गांव की ठहरी। पर शिक्षा के महत्व को समझती थी। वह यह भी भली-भांति जानती थी कि अपने परिवार के सर्वांगीण उत्थान के लिए इसको शिक्षित होना आवश्यक है। अतः रमाबाई ने उसकी पढ़ाई के लिए डेली रूटीन बनाया।वह परिवार के लिए जब  खाना भी बनाती,तो भी अपने बच्चे को पास बिठाती और हिन्दी के अक्षरों के लिखने का अभ्यास कराती।फ्री होने पर भी उसका हाथ पकड़ कर वर्णमाला लिखाती,एक से सौ तक सीधी गिनती,सौ से एक तक उल्टी गिनती सुनती और लिखवाती। उसने अंकों के सादे जोड़ और हासिल वाले जोड़,सादा घटाना और उधार लेकर घटाना, हासिल वाला गुणा और उधार वाला भाग समझाने और सिखाने के लिए चिकनी मिट्टी की छोटी छोटी गोलियां बनाकर एक टिन के डिब्बे में ढेर सारी भर रखतीं थी। वो हासिल के जोड़ करते समय जब जोड़ दो अंकों से ज्यादा हो जाता था तो वो गोलियों के माध्यम से बड़े प्रभावी ढंग से समझाती थीं कि इकाई के अंक को जोड़ उत्तर में लिखना और दहाई के अंक को हासिल समझ कर कैसे अलग रखना और दूसरे लाइन के जोड़ बाद उसको जोड़ में शामिल करना । इतनी उम्र बीत जाने पर किशोर को वह तरीक़ा अभी भी याद करता है कि किस प्रकार उसकी मां अंकों के भाग करते समय कहती कि इस अंक का अधिकतम पहाड़ा ऐसा पढो कि ऊपर वाले अंक से घट जाये मतलब ऊपर वाले अंक से कम हो।उसको इस बात का आज भी अहसास है कि उसके सो जाने के बाद उसकी मां  रात में जागकर अगले दिन पढ़ाने वाले सवालों को खुद हल करती और समझती थी।उसे ऐसा जुनून सवार हो गया कि उसे दूसरी और तीसरी कक्षा तक के दौरान उसने अभ्यास कराकर उसको एक से चालीस तक पहाड़े ,पौधा,अद्धा,पौना,ड्योढा आदि रटवा दिए। गीता प्रेस गोरखपुर की किताब "बालपोथी" में अनेक कहानियों को सुनाकर या सुनकर उसकी नैतिक रूप से भी शिक्षित किया। किनारे का पिता हीरालाल भी रात में राजा-रानी, परियों आदि के सुखद अंत वाले किस्से सुनाकर उसे सुप्तावस्था में सुनहरे सपनों की ओर ले जाते।वह ज्यादा पढ़े लिखे नहीं थे पर वे शायद यह अच्छी तरह जानते थे कि बच्चे की सर्वांगीण शिक्षा के लिए केवल किताबी शिक्षा ही नहीं, चारित्रिक और नैतिक रुप से भी मजबूत बनाना आवश्यक है। वे  ऐसा इंसान बनाना चाहते थे जिसका समाज में अंदर के साथ उदाहरण दिया जाय और नव पीढ़ियों का प्रेरणास्रोत बन सके।आखिर जब मेहनत इस तरह की हो,तो वह अपना रंग दिखलाती ही है।
          तुलसीदास जी ने लिखा है
         " अतिशय रगड़ करै जो कोई।
          अनल प्रगट चंदन से होई।।"
          बाल्यावस्था से ही किशोर को लिखने पढ़ने का ऐसा नशा छा गया कि हर सुबह बिना नाश्ता -पानी के पढ़ने बैठ जाता और स्कूल से लौटने के बाद बिना किसी आराम के चारपाई बिछाकर पुनः लिखने पढ़ने बैठ जाता। उसकी मां चिल्लाती रहती कि सुबह का नाश्ता कर लो और स्कूल से घर आने के बाद शाम को बाहर टहल आओ पर वह कुछ नहीं सुनता। नाश्ता या खाना ज़बरदस्ती उसे चारपाई पर ही देती। स्वाभाविक है कि मेहनत और जुनून इस तरह की पैदा हो गया हो तो स्कूल में शिक्षकों के नज़र में चढ़ेगा ही।इसकी जड़ में वह मां ही थी जिसकी वज़ह से उसे राष्ट्रीय छात्रवृति मिलनी शुरू हो गई। उसे अच्छी तरह पता हो गया कि समस्या का हल दूसरों से समझने के बजाय खुद दृढ़ निश्चय के साथ बैठकर गंभीरता से रास्ते तलाशे तो उसका आनन्द ही कुछ और होता है और वह दिमाग में स्थाई रूप ले लेता है अर्थात कभी भूलता नहीं।उसके जीवन में इतना जुझारूपन और आत्मविश्वास आ जाता है कि कितनी बड़ी समस्या हो,वह जल्दी से हार नहीं मानता।
          अब बालक जैसे जैसे आगे की कक्षाओं में बढ़ता गया, चुनौतियां भी अपना रूप बदलती गईं।उसके जीवन में आई चुनौतियों के जूझने में केवल एक ही शख्स साथ दे रही थी,वह उसकी मां ही थी। दसवीं की बोर्ड परीक्षा में शामिल होने के पहले कालेज़ के सारे ड्यूज क्लियर करने पड़ते हैं सो किशोर को भी इसका सामना करना पड़ा। उसके पिता को इतनी सामर्थ्य नहीं थी कि इसे निपटा सके।वे खुद एक कारखाने में काम करते वक्त एक दुर्घटना के शिकार हो गये थे और अस्पताल में भर्ती होकर अपना उपचार करवा रहे थे ।ऐसे में  बालक के साथ उसकी मां कक्षाध्यापक श्री सालिगराम के निवास पर जा असहाय होकर अपनी न सम्हलने वाली विपरीत हालात के बारे में विस्तार से बताया और कहा कि वह कालेज की कोई भी ड्यूज़ निपटाने में असमर्थ हैं ,उन लोगों की दुर्दशा सुनकर सालिगराम जी पिघल गये और कहा ,आप लोग जाइये अगले दिन प्रवेश पत्र मिल जायेगा और किशोर से कहा कि तुम निश्चित होकर खूब परिश्रम कर सभी विषय के पेपर दो।
          इन सब बातों का सार  कि वक्त कहता है कि अपने कष्टों से हारकर और निराश होकर बैठ जाना,यह जीवन जीने का कोई सही तरीका नहीं है, हर व्यक्ति के सामने हमेशा आगे बढ़ने का रास्ता सामने होता  है।सही और उचित तरीके से प्रस्तुत करने या होने की जरूरत होती है ।बस अपने पीड़ा के आंसू पोंछकर साहस के साथ खड़े तो हो जाइए,नियति का रास्ता खुद आपका हाथ थाम लेगा।
         तीखे मोड़ पर और खाई खण्दक में कूदते हुए वक्त के तीव्र बहाव के साथ पूरे परिवार का जीवन काफ़िला आगे बढ़ता रहा। अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद वह अपनी आजीविका के लिए दर दर भटक रहा था परन्तु अपने दैनिक खर्चे जो स्वयं वहन करने थे उसके लिए स्वाभिमानी बन घर घर जाकर स्कूली बच्चों को सवैतनिक पढ़ाना शुरू किया। खैर उसके संघर्ष के दिन थे तो यह बाध्यता भी अपरिहार्य थी। संघर्ष के साथ श्रम और पारिश्रमिक का मूल्य अच्छी तरह समझ में आ रहा था। संघर्ष का लम्बा समय बीता जरूर,पर समय एक न एक दिन अनुकूल आना ही था। सभी दिन एक समान नहीं होता। वक्त का पहिया निरन्तर घूमता है सो मनमाफिक कार्य मिल ही गया। यहां तीन साल का कार्य अनुभव लेने के बाद वह सरकारी नौकरी में आ गया। कार्यस्थल घने जंगल के बीच था , रोजमर्रा का सीधा साधा काम था पर प्राकृतिक आपदाएं तो थी हीं, साल के लगभग छः,सात महीने प्रचंड वायु वेग के साथ घनघोर बरसात वहां होती ही थी। खैर,पूरे परिवार को सुकून जीवन जीने की स्थिरता का अनुभव होने लगा।
         परिवर्तन, प्रकृति का नियम है,सो स्थिर जीवन व्यतीत होने का सवाल ही नहीं होता।जैसे समुद्र की लहरें शांत नहीं हो सकती और लहरों से घिरी कश्ती हर पल हिचकोले लेती रहती। किशोर का जीवन कुछ इसी प्रकार बीतता रहा। जीवनसाथी और बच्चों के साथ रह उनके परवरिश के अतिरिक्त अन्य सामाजिक दायित्व भी वहन करता रहा। मां थी इसलिए मां को उसकी फ़िक्र और उसे मां की चिंता रहती ही थी। वह अपने मां बाप को निर्वहन के लिए हर माह गांव के पते पर मनी आर्डर भेजता था।
         वयस्क किशोर के शरीर लिए जंगल में घिरे कार्यस्थल का प्राकृतिक वातावरण अनुकूल नहीं था, खासतौर पर वहां की घनघोर बरसात।उसके ठंड के कारण हाथ-पैर कभी अकड़ और कभी सुन्न हो जाते थे,उसका शरीर वहां की ठंडी को बर्दाश्त नहीं कर पाता था,सो नहाने में गुनगुने पानी का इस्तेमाल करता था।
         कालान्तर में किशोर को साइटिका हो गया।जिसकी वज़ह से कमर एक तरफ झुकने लगी थी, थोड़ी थोड़ी दूर पर चलते-चलते ठहरना पड़ता था, दर्द से थोड़ा निजात मिलने पर वह आगे बढ़ पाता था। कमर और दोनों जांघों के बीच के ज्वांइट सूजे हुए थे। पेन किलर दवायें अस्थाई राहत देती थी पर इसका ज्यादा प्रयोग करना खतरे से काली नहीं था। कहीं से भी आराम नहीं मिल पा रहा था। शासकीय अस्पताल के डाक्टरों ने रीढ़ की एल-४ की डिस्क का आपरेशन करने को कह दिया। आपरेशन भी रिस्की था। केवल पंचान्बे प्रतिशत सफल माना जाता था। कहीं से राहत नहीं मिल रही थी।
         पर हां,वो मां ही थी,जिसे उसकी पीड़ा उसकी आत्मा को छलनी किए जा रही थी। सूजे हुए ज्वांइट को देखकर बहुत तरस आ रहा था।  एक दिन उसके मन ने उसका सूजन ठीक करने की ठानी। वह राह में पड़े कुछ छोटे छोटे पत्थर उठा लाई । ज्वांइट पर तेल की मालिश करने के बाद मिट्टी के बोरसी में पत्थर को गर्म कर एक पुराने कपड़े में लपेटती और सूजे हुए ज्वांइट पर रख सिकाई करती। रमाबाई का यह प्रयोग असरदार रहा। ज्वांइट का सूजन कम हो गया और साथ साथ साइटिका का दर्द और असर धीरे-धीरे खत्म हो गया।
         अब वह सामान्य जीवन जी रहा है। अब उसकी मां दुनिया में नहीं हैं पर वह मां को दिल से याद कर आज भी रोता है। कहीं लगता है कि आज भी उसकी युक्ति दवा और दुआ बन रक्षा करती है। मां का सम्बन्ध प्रबल भावनाओं का होता है, दुनिया में अब भी उसका तोड़ नहीं है।
         सच कहा है " जननीं जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी"।
        
  
          


 

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बहुत खूबसूरत लिखा है आपने 👍🙏

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8 नवम्बर 2023

सही लिखा है आपने ,मेरी कहानी कचोटती तन्हाइयां के हर भाग पर अपना लाइक 👍 कर दें 🙏🙏

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रचनाएँ
वक्त की रेत पर
5.0
इस पुस्तक में अधिकांश ऐसे वर्ग के परिवारों की कहानियों का संग्रह है जो समाज की आर्थिक संरचना की दृष्टि में लगभग पेंदे पर है , सामान्य तौर पर लोगों की नज़र इनकी समस्याओं पर न तो पड़ती है और न ही तह तक जाकर समझना चाहती ।देश के कानून के अनुसार किसी वर्ग में नहीं आता क्योंकि राजनैतिक पार्टियों का मतलब केवल वोट बैंक से है जो धर्म,जाति या क्षेत्रवादिता पर आधारित है जो उनके शक्ति देने में सहायक है। यह अछूते हैं क्योंकि इनकी कोई लक्ष्मण रेखा नहीं है।आरक्षण का मूल आर्थिक न होने के कारण इनसे कोई हमदर्दी भी नहीं है।इस अनछुए वर्ग के लोगों की मानसिकता भी ऐसी है जिसमें आत्मविश्वास या विल पावर न के बराबर दिखती है ये समस्याओं में ही जीते और उसी में मर जाते हैं। इनमें इतनी भी कला नहीं होती कि किसी के समक्ष कुछ कह सके।इस पुस्तक के कहानियों के माध्यम से लेखक समाज को ठेकेदारों को यह समझाने का प्रयास कर रहा है कि देश का वास्तविक विकास इन अनछुए वर्ग को समस्याओं से निजात देने में निहित है। कुछ विचारोत्तेजक लेख भी समाहित हैं जो सोचने के लिए मजबूर करते हैं कि हम सब ,चाहे जितना सबल हों,नियति का हाथ हमेशा ऊपर रहता है,आखिर होनी ही तो है जो हर मनुष्य के किस्मत के साथ जुड़ी होती है, होनी और किस्मत मिलकर मनुष्य के सोच( विचार) का निर्माण करते हैं,सोच में ही तो सर्वशक्तिमान हर प्राणी में कुछ कमियां और खूबियां छोड़ देता है।वही मनुष्य के चाहे अथवा अनचाहे मन की विवशता से भवितव्यता की ओर ठेल ( धकिया)कर ले जाता है।चाहे मूक रूप से धर्मयुद्ध का शंखनाद हो या होनी के आगे कर्ण की विवशता।
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हमें जिंदगी में लाना होगा भरोसा जो कदम कदम पर जिंदगी की आहट को उमंगो की तरह पिरो दे, और वह अर्थ खोजना होगा जो मनुष्य को मनुष्य होने की प्रेरणा दे।वह लम्हे चुरा

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एक , वही मलाल

16 मई 2024
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कोई भी मनुष्य अपने जीवन को परिपूर्ण तथा महत्तम आनन्दमय बनाने लिए मनपसंद मार्ग चुनने के लिए स्वतंत्र है पर उस मार्ग की दशा और दिशा का पूर्णतः निर्धारण नियति ही

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