सुरेश को अपनी सत्तर वर्ष लम्बी की लम्बी जीवन यात्रा तय करने के बाद जाने क्यों अब लगने लगा कि इस महानगर में निर्मित पत्थरों के टावरों के जंगल में किसी एक छेद नुमा घोंसले में कबूतरों की तरह रहते रहते मन ऊब गया है। पंख भी नहीं हैं कि उड़ कर या निर्वसन होकर दूर देश में बने प्राकृतिक जंगल में जा बसेरा बना लें। जंगल में झूमते पेड़ों की लहराती और लरजती हवा, ओस या बरसात की ठंडी ठंडी बूंदें अथवा थोड़ी ही दूर पर निर्झर बहते झरने की हवा से छटकती बूंदों की बसेरे पर पड़ती फुहार शरीर पर ऐसा ताज़गी भरा सिहरन पैदा कर दे जो तन,मन और बुद्धि को झक्क कर दे ।जीवन जो कृत्रिमता से भरा हुआ है,उससे हटकर मौलिक रूप से बरबस जीने का उसका मन करने लगा है। कृत्रिमता से घृणा सी हो गई है यह बात अपने जिगरी दोस्त विनोद से कहना चाहता था, पर ऐसा क्यों ?इस विचार के पक्ष में वह घंटों क्या,पूरा दिन खर्च कर अपनी पूरी भड़ास बाहर करना चाहता था।पर अपने ही विचारों के चक्रव्यूह में वह स्वयं को फंसा हुआ महसूस कर रहा था , शायद अन्तरात्मा किसी न किसी कोने से उसका कचोट रही थी कि वह विकास विरोधी विचारों वाला तो नहीं।वह अब अपने को कैसे समझाये कि वह विकास का पक्षधर है, पर एक सीमा तक। सृजन में ऐसी भावना हो जिससे सहजता से स्वीकार किया जाये, न कि कृत्रिमता के अतिरेक में विकास, विनाश के भयावहता पर रचा जाये।
सुरेश सोच रहा था कि मैं बूढ़ा जरूर हो चला हूं, पर अतीत बचपन कैसे भूल सकता , भूतकाल का विषय अवश्य गया हो ,पर ऐसा भूत नहीं कि याद भी न कर सकें। कहने का मतलब परिवर्तन, ऐसा न हो कि बचपना ही कहीं खो जाये या यूं कहें कि लुप्त हो जाए।सृजन में मौलिकता का अलग ही आनंद है।इस अंतर्द्वंद्व में जानें कहां से उसकी बेटी सृष्टि आ गई,जो सुरेश के पीठ के पीछे आकर गले में बांहें डालकर बोली कि पापा देखो! मैं यह डाली सहित गुलाब का एक फूल लाई हूं।ये डाली, खिले गुलाब की सुन्दरता में चार चांद लगा रहा है पर इस फूल के खिलखिलाहट का जीवन अत्यल्प है। यह सूखकर अपना अस्तित्व मिटा देगा अथवा समय से पहले कोई वैज्ञानिक इसे लैब में ले जायेगा इसकी सारी पंखुड़ियों को अलग- अलग करके रिसर्च करेगा,इसके ऐसे रंग,रूप और गुण कहां और कैसे आये? इसमें अंदर के रसायनिक द्रव की छानबीन करेगा और कुछ विशेष गुण को ढूंढने की कोशिश करेगा जो मानवजाति का कल्याण करेगा अथवा खतरा पैदा करेगा। खैर ये तो उस रिसर्च साइंटिस्ट पर निर्भर करेगा कि वह उसमें स्थित रसायन का उपयोग कहां करें।वह इत्र भी बना सकता और कुछ मिलाकर एलर्जी पैदा कर सकता। सुरेश,अपनी बेटी की बातों को सुनकर वह अपने बातों की और गहराई में चला गया।शायद वह उसमें कुछ उत्तर तलाशने की कोशिश करने लगा हो।
थोड़ी देर बाद लगा कि वह अपने बेटी की बातों में आ पूर्व के विचार के रास्ते से भटक गया है। दरअसल उसने अपना नब्बे प्रतिशत जीवन प्रकृति पर निर्भर होकर बिताया था। दुपहरी जेठ की चिलचिलाती धूप, जो बदन पर घमौरियों के रूप में उभर कर आती थी। गर्माहट के थपेड़ो के प्रभाव को कम करने के लिए उसकी मां सिरकी के बेना को बांस के पोंगी में डालकर डुलाती थी,या अपनी पुरानी साड़ी को पानी से भिगोकर छप्पर के छोरों पर बंधी रस्सी पर फैला ठंडी फुहार को पैदा कर लाती थी। उन फुहारों में वाह क्या आनन्द आता था,आज के सारे ए०सी० फेल हैं।बचपन के दिनों की वो बरसात या तो उसने उन आफिस जाने के दिनों में ही देखी थी, बरसाती हवाओं की तेजी के कारण,कोई छाता नहीं लगाता,पता नहीं कौन सी हवाओं का थपेड़ा कब उसको उलट दे। अतः सभी डकबैक का काला रेनकोट और उसकी काली कैप ही पहनते थे।अंदर से ऐसी फीलिंग आती थी कि अंटार्कटिक महाद्वीप के सारे पेंगुइन इकट्ठे हो गये हों, या ड्रेस से उन सजायफ्ता कैदियों की ऐसी झलक लगती,जिनको फांसी की सजा सुनाई गई हो।यही नहीं,दिसंबर की कड़ाके की ठंड के दिनों की बात की कुछ और है, गांव में मिट्टी के बने घरों के बाहर नीम के पेड़ के चारों ओर मिट्टी के चबूतरे के नीचे सभी आस पास के किसान पड़ोसी जैसे पल्टन धोबी, पत्ता बुआ ,राम मिलन ,दानबहादुर,श्रीधर,चिर्रा आदि गोल आकार में चौपाल बनाते थे, बीच में लट्ठा जलता रहता था उसमें खेतों से तोड़कर लाई गई मटर की ताजी छीमी भूनी जाती थी ,उसको लोग अपने-अपने घरों से नमक,हरी मिर्च, अदरक और धनिया की चटनी लाते थे और कड़वाहट के स्वाद के साथ चटकारे लगाते थे।उसको याद आता है कि उसके पिता रघुनंदन देशी और गांव के किस्से सुनाते थे तो चौपाल में बैठे लोग कहकहे लगाकर ठहाके लगाते थे।सारी कड़ाके की ठंडी छू मंतर हो जाती थी, वो प्रसंग याद आ गया कि प्रेमचंद के " पूस की रात" की कहानी में वो किसान अलाव की गर्मी पाकर अकेला सुबह की कुहासी ठंड में भी कैसे झूम रहा था बेचारा वो बेजुबान जानवर कुत्ता ही पूरे खेत की फसल आग में नष्ट हो जाने की बेबसी पर उसके आगे पीछे हो रहा था। सुरेश यही सोचते सोचते तो निर्गुण दोहे में निमग्न हो गया.......
कबिरा खड़ा बजार में ,लिए लुकाठा हाथ।
जो घर जारे आपना,चले हमारे साथ।।
अतीत के ख्यालों में वह खो सा गया। बचपन का वो गांव , जहां सारे के सारे मिट्टी के घर( मड हाउसेज़), जिसमें अंदर जाने का दरवाजा इतना छोटा कि साढ़े पांच फुट के आदमी को कमर तक झुकना पड़ता, लकड़ी के धन्नियों और बांस के खपच्चियों के सहारे खपरैल की छत की शोभा देखते बनती थी ,मजाल है कि बरसात के पानी का एक बूंद ऊपर से रिस जाए। रसोई में जोड़ेदार मिट्टी के चूल्हे,जिसके एक मुंह पर दाल या चावल और दूसरे मुंह पर सब्जी या रोटी पका लो। लम्बे चौड़े दालान,कोठार और बरामदे होते थे।
कोई मेहमान आने से पूरे गांव में पूरे गांव में शोर सा हो जाताऔर उसको देखने के लिए आस पास के पड़ोसी लोग इकट्ठे हो जाते और गोल घेरा बनाकर मेहमान को घेर लेते ।दूर के मेहमानों के पैर कठौती में पानी भरकर ऐसे मग्न होकर धोते कि लगता मेहमान नहीं, भगवान आ गये हों,मुझे तो ऐसा दृश्य लगता कि श्रीकृष्ण,अपने मित्र सुदामा के पैर बड़े तन्मय होकर धो रहे हों। बड़े भावुक भरी दिल से निकाल निकाल ऐसी बातें करते कि मोह हो जाता। बूढ़े पिता जी बड़े से लोटे में रस्सी का " लोटा गांठ"लगाकर पास के कुएं से पानी भरकर ले आते, कहते बेटा, यह बहुत ताजा,ठण्डा और मीठा पानी है, पहले थोड़ा गुड़ खाकर इसको पीना। हम पानी भरे लोटे को कम, उसमें लगी " लोटा गांठ" को ज्यादा देखते। सोचते यह कैसे बनाई गईं है ? हमनें उन बुजुर्ग व्यक्ति से सीखने की कोशिश भी की पर टांय टांय-टांय फिस्स। हमने जब स्कूल में स्काउट गाइड का क्लास किया तो वहां " लोटा गांठ" लगाने की क्रिया और उसका महत्व बताया गया। हमें लगता कि वे बुजुर्ग पढ़ें लिखे नहीं होते पर बहुत सी महत्वपूर्ण क्रियाओं को ऐसे करते कि पढे लिखे को मात देते। महफ़िल में ऐसे तर्क़ देते कि अच्छे अच्छे विद्वान दांतों तले उंगली दबाते।
सुरेश सोचता,अब तो महानगर में बने दीवारों में बैठे बैठे मनुष्य मनहूस सा हो गया है।दिलखोल कर किसी से बात नहीं बोल सकता। सब सुविधा सम्पन्न होते हुए भी भावनाहीन असुविधाओं में पल रहा है।
दिल कचोट कचोट कर कहता कि हे भगवन! लौटा दो,मेरे बचपन का वह गांव, जिसके ऊपर खुला नीला आसमान हो, उसकी मिट्टी में धानी रंग हो और ढलते दिन की सुरमई सांझ हो,खुले खुले बात वाले लोग हों चाहे पहने गये उनके कुर्ता धोती अथवा बनियाइन में ढेर सारी धूल या मिट्टी के दाग़ हों,मूंज की रस्सी से बनी वह खटिया अवश्य हो ताकि निखरहरे लेटने पर पूरे बदन को वह पूरा सुकून मिले जो डबल बेड और डनलप के गद्दे पर लेटने से आज की जिंदगी में कभी न मिला हो। खेतों से ताज़ी ताज़ी सब्जी अथवा साग हो, मिट्टी के भडिया में जमी हुई सोंधी सोंधी दही या उसका मट्ठा हो ,कुछ भी न हो कम से कम जमीन से जुड़े लोग हों,जमीनी बात के धनी और सरल हों।अब तो इस बनावटी दुनियां से मन ऊब गया।कम से कम इस दुनियां से विदा लेते वो स्वाद फिर चख लेता।