नया दौर है ,खुली हवा में सांस लेने की दिल में चाह लिए आज की पीढी कुछ भी करने को आतुर रहती हैं।मन में जो आये हम वही करेंगे ,किसी प्रकार की रोक-टोक वरदाश्त नहीं,किशोर पीढ़ी स्वतंत्रता और समान अधिकार के क्षोभ में सामूहिक चर्चा शामिल नहीं होना चाहती, कहने का अर्थ यह सहकारी ढंग से लिए निर्णय को अपने ऊपर लोड समझती हैं,पंचायत के कभी मुखिया रहे राम अवतार ने बाहर से घर में घुसते ही झुंझला कर ये बात कही।
हो भी क्यों न! चालीस साल से वह यही काम करते आ रहें हैं। इतने वर्षों के बाद जो वह अनुभव कर रहे हैं उसकी भड़ास अकेले घर के ड्राइंग रूम में बैठे बड़-बड़ करके निकाल रहे ।
तभी दिवाकर बाबू किसी काम से उनके घर आये। लम्बे समय तक वे उनके साथ उसी विभाग में क्लर्क का काम करते रहें हैं।पहले तो कुछ क्षणों तक वे समझ नहीं पाये कि माजरा क्या है?उनके साथ चाय पीते पीते वे उनके झल्लाहट का कारण समझ गये। वे बोले अवतार जी! आजकल एनोवेशन का ज़माना है।आज के टीनएजर्स परम्परा से हट कुछ नया करने की सोचते हैं । वे पीढ़ियों से चल रही परम्परा को अपने पैरों की बेड़ियां समझते हैं।कुछ न कुछ प्रयोग करते रहते हैं, चाहे वो व्यक्तिगत हो या पारिवारिक, दार्शनिक हो या सामाजिक, वैज्ञानिक वा कलात्मक। परिणाम की चिन्ता नहीं,वह कुछ भी हो।जीवन को दांव लगाने की हद तक भी जाने का दुस्साहस कर बैठते हैं। कहते भी सुने जाते कि हम तो अपने मर्जी के मालिक हैं,बस अपने लिए जीना चाहते हैं।
भीतर से उनकी पत्नी रीना उन लोगों की बातों में अपनी बात जोड़ी कि आजकल की पीढ़ी किसी को अपना आदर्श नहीं बनाना चाहती ,वे सोचते हैं कि कुछ न कुछ ऐसा नया करो कि वह अपने उस कला के लिए अधिक से अधिक फालोवर्स बना सके। अच्छा हो बुरा, उसके लिए वे इसके बीच कोई लकीर नहीं खींचते।इनके लिए यही सरल परिभाषा है जो कार्य उनको भाये या सुख दे वह अच्छा भले वो क्षणिक ही क्यूं न हो । टीनएजर्स तो अलग अलग क्षेत्रों की कलाओं को मिक्स कर प्रयोग कर रहें हैं।आजकल तो रीमिक्स का ज़माना है जैसे योग या व्यायाम के साथ डांस इसको यूं भी कह सकते हैं डांस के साथ व्यायाम या योग।पता ही नहीं चलता कि योग या व्यायाम सीख रहें हैं या डांस। हम तो बड़ा कन्फ्यूज होतें हैं कि व्यायाम या योग में डांस है या डांस में व्यायाम अथवा योग।
थोड़ी देर रविवार की सुबह, दोस्तों के साथ लान टेनिस खेलने और मार्निंग वॉक का लुत्फ उठाकर घर आते हुए उनके बेटे सृजन ने कहा हम तो ऐसी नई दुनियां बनाना चाहते हैं और उसमें बसना भी चाहते हैं जिसे अभी तक किसी ने न सोची हो और न ही किसी ने बनाई हो।देखो न, अब की पीढ़ी चांद पर बसना चाहती है ,अब वो चंदा मामा कहने का जमाना गया ।आप सभी अंकल,आंटी, मम्मी और पापा को प्राइमरी में पढ़ाया जाता था कि जाड़े की रात में चंद्रमा ठिठुरता है तो बालकपन की भावना लिये अपनी मां से एक कुर्ता सिल देने को कहता है,तो मां कहती है कि उसका साइज़ घटता बढ़ता रहता है ,सो कुर्ता सिलना नामुमकिन है। किसी कवि ने अपनी पत्नी की सुंदरता करते हुए कहा कि उसका बदन चन्द्रमा की तरह सुंदर है। क्या अब यह कपोल कल्पित बात नहीं लगती।
अमेरिका का अपोलो और हमारे देश की चन्द्रयान मिशन ने साबित किया कि चन्द्रमा की सतह कहीं से सुन्दर नहीं है।यही नहीं, वहां की परिस्थितियां ऐसी हैं कि किसी प्राणी का सामान्य जीवन वहां सम्भव नहीं है,फिर भी नई सम्भावनाओं को तलाशा जा रहा है।
कहां चले गये हमारे दिवाकर बाबू, यह खोजते उनकी पत्नी कौशल्या वहां आ धमकी और बोली कि आजकल के नौजवानों की तरह इनको भी फ़िक्र नहीं है, न ही भावना है कि इतनी देर हो गई कहीं हमारी पत्नी तो परेशान हो रहीं होगी।यह अपने मां बाप से यह भी भाव नहीं ले पाये ,अरे इनकी मां इनके पिता के बिना भोजन नहीं लेती थीं और पिता जी जब भी परदेश से लौटते तो याद से उनके लिए वह सारी चीजें लाते जो इनकी मां को पसंद होता था।सब तो ये सभी बातें प्रयोगवाद के युग में धुल गए।
हमारे पड़ोसी घर को देखो, उनकी विवाहित बिटिया तीन साल से ससुराल छोड़ मायके में अपने माता-पिता के पास है। पढ लिख कर वह आधुनिकता के रंग में डूबी हुई, साथ में उसकी मां और बहनें दुर्बुद्धि भरने में प्रवीण। वे अहंकार के मद में ऐसी अंधी कि यह भूल गई कि एक मंथरा ने ऐसा स्वांग रचा कि पूरी अयोध्या उस कांड में डुब गई और सूर्पनखा ने ऐसा तिरिया चरित किया कि पूरी लंका खाक में बदल गई।
आजकल के प्रयोगवादी टीनएजर्स को क्या कहने ? उनको अपने चुने रास्ते का कितना ज्ञान, हमें तो नहीं पता? पर समाज में यह विकार,विष की तरह फ़ैल रहा है कि इससे सुखद जीवन का अंत निश्चित है हो भी क्यों न , जहां कैकेई के उद्गार "सकउं पूत पति त्यागि" को नई किशोर पीढ़ियां जीवन दर्शन बना लें,जो उन्होंने दासी के सामने व्यक्त किये।
अब तो कोर्ट में ऐसे फेमिली केसेज़ की भरमार हो गई,इनको यह नहीं पता कि इसमें परिजनों की परेशानियां,धन और समय की कितनी बर्बादी,साथ में दोनों पक्षों के चरित्र की छीछालेदर।कई बार हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के समय-समय पर कमेंट भी आये।
निश्चित ही यह अत्यंत सोचनीय विषय है कि यह विकार, जो आज के प्रयोगवादी युग की देन है,देश और समाज को कहां तक ले जायेगा? इसलिए अभी समय है कि अपने लिए और अपने भविष्य के लिये आत्मचिंतन और आत्ममंथन करें कि यह हमारे लिए कितना अच्छा है। सम्बंधित मां बाप को सावधान हो जाना चाहिए और जीते जी आत्माहन से बचने के लिए अपने पाल्यों को इस तरह के प्रयोग से बचाने का प्रयत्न के साथ साथ आगाह भी करना चाहिए। यह सही है कि प्रयोगवाद, प्रगतिवाद की जड़ है बशर्ते सीमा निर्धारित हो। नहीं तो सारी की सारी पीढ़ी अनियंत्रित प्रयोगवाद के चक्कर में पड़ कर सुरसा के गाल में समाकर काल कवलित हो जायेंगी।