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अध्याय - २ गर्भाधान संस्कार

11 सितम्बर 2021

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🌹 *द्वितीय - भाग* 🌹

*१- गर्भाधान संस्कार*

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*गताँक से आगे:--*

इस भौतिक जगत में जीव की यात्रा माँ के गर्भ से ही हो जाती है ! कहते हैं नींव जितनी मजबूत होती है महल भी उतना ही सुदृढ़ होता है ! यही विचार मन में रखते हुए सनातन के पुराधाओं ने गर्भ धारण को भी एक *संस्कार* की संज्ञा देते हुए प्रथम *संस्कार* के रूप में *गर्भाधान संस्कार* का विधान रखा है | *गर्धान संस्कार* के विषय में हमारे शास्त्र कहते हैं कि :--

*निषेकाद् बैजिकं चैनो गार्भिकं चापमृज्यते !*

*क्षेक़संस्कारसिद्धिश्च गर्भाधानफलं स्मृतम् !!*

*अर्थात्:-* विधिपूर्वक *संस्कार* से युक्त *गर्भाधान* से अच्छी और सुयोग्य संतान उत्पन्न होती है इस *संस्कार* से वीर्यसम्बन्धी पाप का नाश होता है , दोष का मार्जन तथा क्षेत्र का *संस्कार* होता है ! यही *गर्भाधान संस्कार* का फल है !

*और भी बताया गया है:--*

*गर्भस्या$$धानं वीर्यस्थापने स्थिरीकरणं यस्मिन्येन वा कर्मणा तद् गर्भाधानं*

*अर्थीत्:-* गर्भ बीज और आधान अर्थात् स्थापना ! सतेज और दीर्घायु संतान के लिए यथासमय विधि सहित बीज की स्थापना करना ही *गर्भाधान संस्कार* कहा गया है !

गृहस्थ आश्रम अर्थात विवाह के उपरांत संतानोपत्ति करना प्रत्येक दंपति का कर्तव्य है | जहां मां बनकर एक स्त्री की पूर्णता होती है , वहीं पुरुष के लिए संतान पितृ-ऋण से मुक्ति प्रदान करने वाली होती है | श्रेष्ठ संतान के जन्म के लिए आवश्यक है कि *गर्भाधान' संस्कार* श्रेष्ठ मुहूर्त में किया जाए |  *'गर्भाधान*' कभी भी क्रूर ग्रहों के नक्षत्र में नहीं किया जाना चाहिए |  *'गर्भाधान*' व्रत , श्राद्धपक्ष , ग्रहणकाल , पूर्णिमा व अमावस्या को नहीं किया जाना चाहिए | जब दंपति के गोचर में चन्द्र , पंचमेश व शुक्र अशुभ भावगत हों तो *गर्भाधान*' करना उचित नहीं होता, आवश्यकतानुसार अनिष्ट ग्रहों की शांति-पूजा कराकर *गर्भाधान संस्कार* को संपन्न करना चाहिए |

शास्त्रानुसार रजोदर्शन की प्रथम ४ रात्रि के अतिरिक्त ११वीं और १३वीं रात्रि को भी *'गर्भाधान*' नहीं करना चाहिए | *'गर्भाधान*' सदैव सूर्यास्त के पश्चात ही करना चाहिए | *'गर्भाधान* दक्षिणाभिमुख होकर नहीं करना चाहिए | *'गर्भाधान*' वाले कक्ष का वातावरण पूर्ण शुद्ध होना चाहिए | *गर्भाधान* के समय दंपति के आचार-विचार पूर्णतया विशुद्ध होने चाहिए |

सनातन धर्म की मान्यता है कि बिना संकल्प के सिद्धि नहीं होती इसलिए *'गर्भाधान'* वाले दिन प्रात:काल गणेशजी का विधिवत पूजन व नांदी श्राद्ध इत्यादि करना चाहिए | अपने कुलदेवता व पूर्वजों का आशीर्वाद लेना चाहिए | *गर्भाधान*' के समय *गर्भाधान* से पूर्व संकल्प व प्रार्थना करनी चाहिए एवं श्रेष्ठ आत्मा का आवाहन कर निमंत्रित करना चाहिए |  *'गर्भाधान* के समय दंपति की भावदशा एवं वातावरण जितना परिशुद्ध होगा, श्रेष्ठ आत्मा के गर्भप्रवेश की संभावना उतनी ही बलवती होगी |

*गर्भाधान-संस्कार* में रात्रियों की पृथक-पृथक महत्ता होती है | यदि सम रात्रियों में *गर्भाधान* होता है तब पुत्र उत्पन्न होने की संभावना अधिक होती है | जब विषम रात्रियों में *गर्भाधान* होता है तब पुत्री उत्पन्न होने की संभावना अधिक होती है |

*गर्भाधान* करने के बाद यह सदैव रखा जाना चाहिए कि गर्भ में शिशु किसी चैतन्य जीव की तरह व्यवहार करता है- वह सुनता और ग्रहण भी करता है | माता के गर्भ में आने के बाद से गर्भस्थ शिशु को संस्कारित किया जा सकता है | *हमारे पूर्वज इन सब बातों से परिचित थे इसलिए उन्होंने गर्भाधान संस्कार के महत्व को बताया |* इसीलिए गर्भवती माताओं के लिए विशेष निर्देश दिया है जिसके अनुसार :-- *जब तक स्त्री गर्भ को धारण करके रखती है तब तक उसे धार्मिक किताबें पढ़ना चाहिए आध्यात्मिक परिवेश में रहना चाहिए और अधिक से अधिक रचनात्मक कार्य करना चाहिए | ऐसा काई कार्य न करें जिसमें तनाव और चिंता का जन्म होता हो |* गर्भ में पल रहा बच्चा मां की आवाज और मां के मन को संवेदना के माध्यम से सुनता और समझता है | *इसका जीवंत उदाहरण अभिमन्यु का है जिसने गर्भ में रहकर ही संपूर्ण व्यूहरचना को तोड़ना सीख लिया था |* अत: माता जितना स्वयं को शांत रखते हुए रचनात्मक कार्यों में अपना समय लगाएगी बच्चा उतना ही समझदार और शांत चित्त का होगा |

*एक विशेष बात:--*

*आहाराचारचेष्टाभिर्यादृशोभिः समन्वितौ !*

*स्त्रीपुंसौ समुपेयातां तयोः पुतोडपि तादृशः !!*

*अर्थात :-*  स्त्री और पुरुष जैसे आहार-व्यवहार तथा चेष्टा से संयुक्त होकर परस्पर समागम करते हैं, उनका पुत्र भी वैसे ही स्वभाव का होता है |

*चिंता:-*

आज आधुनिकीरण की अंधी दौड़ व *पाश्चात्य संस्कृति* के प्रवाह में हमने *'गर्भाधान' संस्कार* की बुरी तरह उपेक्षा की है | वर्तमान समय में *'गर्भाधान'* को एक संस्कार की तरह करना लुप्त हो गया है जिसके गंभीर दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं | बिना उचित रीति व श्रेष्ठ मुहूर्त के *गर्भाधान* करना निकृष्ट व रोगी संतान के जन्म का कारण बनता है | एक स्वस्थ, आज्ञाकारी, चरित्रवान संतान ईश्वर के वरदान के सदृश होती है किंतु इस प्रकार की संतान तभी उत्पन्न हो सकती है, जब *गर्भाधान* उचित रीति व शास्त्रों के बताए नियमानुसार किया जाय |

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रचनाएँ
सोलह संस्कार (विधि सहित)
5.0
मानव जीवन में संस्कारों का बड़ा महत्व है ! बिना संस्कार के मनुष्य होकर भी मनुष्य पशु के ही समान है ! संस्कारों के महत्व को देखते हुए मानव जीवन में जन्म के पहले से लेकर मृत्युपर्यन्त १६ संस्कारों की व्यवस्था सनातन धर्म में बनाई गयी है ! इस पुस्तक के माध्यम से हम उन दिव्य संस्कारों के विषय में जानने का प्रयास करेंगे !
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अध्याय - १ - सोलह संस्कार

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अध्याय - २ गर्भाधान संस्कार

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अध्याय - ३ पुंसवन संस्कार

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अध्याय - ४ सीमन्नतोन्नयन संस्कार

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अध्याय - ५ जातकर्म संस्कार

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अध्याय - ६ नामकरण संस्कार

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अध्याय - ७ निष्क्रमण संस्कार

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अध्याय - ८ अन्नप्राशन संस्कार

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अध्याय - ९ चूड़ाकर्ण संस्कार

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अध्याय - १०; विद्यारंभ संस्कार

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अध्याय - ११ कर्णवेध संस्कार

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अध्याय - १२ उपनयन संस्कार

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अध्याय - १३ वेदारम्भ संस्कार

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अध्याय - १४ केशान्त संस्कार

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अध्याय - १५ समावर्तन संस्कार

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अध्याय - १६ विवाह संस्कार

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अध्याय - १७ अन्येष्टि संस्कार

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