🌹 *पंचम - भाग* 🌹
*२- जातकर्म संस्कार*
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*१६ संस्कारों* के क्रम में अब तक आपने *अन्तर्गभ संस्कार (गर्भाधान , पुंसवन , सीमन्तोन्नयन)* के विषय में पढ़ा ! अब प्रारम्भ होते हैं *बहिर्गर्भ संस्कार* जिसमें पहला संस्कार है *जातकर्म संस्कार* जब जातक का जन्म होता है तो जातकर्म संस्कार किया जाता है इस बारे में कहा भी गया है कि:--
*“जाते जातक्रिया भवेत्”*
*अर्थात्:-* गर्भस्थ बालक के जन्म के समय जो भी कर्म किये जाते हैं उन्हें *जातकर्म संस्कार* कहा जाता है | इनमें बच्चे को स्नान कराना , मुख आदि साफ करना , मधु व घी चटाना , स्तनपान , आयुप्यकरण आदि कर्म किये जाते हैं | क्योंकि जातक के जन्म लेते ही घर में सूतक माना जाता है इस कारण इन कर्मों को *संस्कार* का रूप दिया जाता है ! मान्यता है कि इस *संस्कार* से माता के गर्भ में रस पान संबंधी दोष , सुवर्ण वातदोष , मूत्र दोष , रक्त दोष आदि दूर हो जाते हैं व जातक मेधावी व बलशाली बनता है | इस *संस्कार* का मन्तव्य होता है शिशु में दीर्घायु , तेजस्विता एवं पराक्रम की स्थापना ! यहाँ कामना की जाती है कि:--
*दशमासाञ्छशयान: कुमारो अधि मातरि !*
*निरैतु जीवो अक्षतों जीवन्त्या अधि !!*
*अर्थात्:-* हे परमात्मन ! दस माह तक माता के गर्भ में रहने वाला सुकुमार जीव प्राण धारण करता हुआ अपनी प्राण शक्ति सम्पन्न माता के शरीर से सुखपूर्वक बाहर निकला है ! इसका कल्याण हो !
इस *संस्कार* में पिता समाज को बालक के जन्म की सूचना देता है और कहता है कि- *हे बालक मैं तुझ को ईश्वर का बनाया हुआ घृत और शहद चटाता हूँ, जिससे कि तू विद्वानों द्वारा सुरक्षित होकर इस लोक में सौ वर्ष तक धर्मपूर्वक जीवन व्यतीत करें |* बालक का जन्म होने के बाद यह संस्कार किया जाता था | होम करने के बाद पिता बालक का स्पर्श करता था और उसे सूँघता था | इसके बाद वह बालक के कान में आशीर्वाद के मंत्र पढ़ता था, जिससे कि बालक दीर्घायु हो और प्रखरबुद्धि वाला हो | *बालक को शहद और घी चटाया जाता था | इस घी में सोना भी घिसा जाता था ! माता उसे अपने स्तनों से पहली बार दूध पिलाती थी |* इसके बाद बालक की नाल काटी जाती थी | *इस संस्कार का प्रमुख उद्देश्य बालक को स्वस्थ और प्रखरबुद्धि वाला बनाना था |*
*जातकर्म संस्कार* में मुख्य रूप से :--
*मेधाजनन, प्रसूतिकाहोम, आयुष्यकरण, अंसाभिमर्षण, पंचब्राह्मणस्थापन, मात्र्यभिमंत्रण, स्तनप्रतिधान व प्रतिरक्षात्मक अनुष्ठान |*
*१- मेधाजनन -*
पिता के द्वारा *नालछेदन के पूर्व* नवजात शिशु के दाहिने कान में किये जाने वाले "मंत्रोच्चार को ही *मेधाजनन'* कहा गया है, इसके बाद शिशु का पिता एक सुवर्णयुक्त पात्र मे मधु एवं घृत को रखकर अथवा केवल घृत को ही रखकर मंत्रोच्चार पूर्वक अपनी अनामिका अंगुली से उसे अभिमंत्रित कर शिशु की जिह्वा पर तीन बार *ॐ वाक् ॐ वाक् ॐ वाक्* का उच्चारण करके लगाता था | घृत मधु शिशु को चटाते समय पिता कहे :-
*"मैं तुझमें "भू' रखता हूँ,*
*"भूवः' रखता हूँ,*
*"स्वः' रखता हूँ*
*"भूर्भुवः स्वः' सभी को एक साथ रखता हूँ |*
इसके बाद शिशु को सम्बोधित करते हुए कहता था "तू वेद है !
*२- प्रसूतिका होम :-*
प्रसूति कक्ष के बाहर दुरात्माओं से बालक रक्षा के लिए नित्य दस दिन तक हवन किया जाना चाहिए !
*३- आयुष्करण :-*
*मेधाजनन* अनुष्ठान के उपरांत शिशु की दीर्घायु की कामना से एक अन्य अनुष्ठान किया जाता था, जिसे *"आयुष्करण*' कहा गया है | इसमें शिशु का पिता उसके कान में (अथवा किसी के अनुसार नाभि के पास ) अपने मुंह को ले जाकर कहता था- *""अग्नि वनस्पतियों से, यज्ञ दक्षिणा से, ब्रह्म ब्राह्मणों से, सोम औषधियों से, देवता अमृत से, पितृगण स्वधा से, समुद्र नदियों से आयुष्मान् है, अतएव मैं तत्तत् पदार्थों से तुझे आयुष्मान् करता हूँ |*'' वह इन मंत्रों को तीन बार दुहराता था।
*४- अंसाभिमर्षण :-*
इसके साथ की पुत्र की शतायु की कामना करने वाले पिता के लिए यह भी निर्देश दिया गया है कि वह पुत्र के कंधों का स्पर्श करके दस मंत्रों वाले एक *"वत्सप्र'* नामक अनुवाक् का पाठ करे ¢ इसे *अंसाभिमंत्रण'* कहा गया है |
*५- पंचब्राह्मणस्थापना :-*
इसके उपरांत पाँच ब्राह्मणों को ( चारों को चार दिशाओं में और पाँचवें को मध्य में ) खड़ा करके उनसे कुमार को अपने श्वासों के द्वारा अनुप्राणित करने का अनुरोध करता था | इसमें पूर्व दिशा में स्थित ब्राह्मण *"प्राण' शब्द का,* दक्षिणस्थ *"व्यान' का* पश्चिमस्थ *"अपान' का*, उत्तरस्थ *"उदान*' का तथा मध्यस्थ ऊपर की ओर देखता हुआ *"समान*' शब्द का उच्चारण करता था, अर्थात् ब्राह्मणों के उपलब्ध न होने पर पिता स्वयं ही शिशु के चारों ओर घूमता हुआ प्रश्वास के साथ इन पाँचों प्राणों के नामों का उच्चारण करता था |
*६- देशाभिमंत्रण :-*
इसके बाद जिस स्थान पर शिशु का जन्म हुआ हो, वहाँ पर जाकर एक मंत्र ( *वेद ते भूमिर्ऱ्हदयं* ) से उस भूमि का यशोगान करता हुआ, सौ वर्ष तक पुत्र के साथ स्वस्थ जीवन बिताने की कामना करता था | तदनंतर शिशु का स्पर्श करके कहता था - *"हे पुत्र तुम आत्मा हो, अतः पाषाण के समान दृढ़, परशु के समान शक्तिशाली, सुवर्ण के समान तेजस्वी होकर, सौ साल तक जियो | आयुष्य के इसी अंश का "बल' कहा जाता है |*
*७- मात्र्यमिमंत्रण :-*
इसके अनंतर वह शिशु की माता के समीप जाकर उसका अभिमंत्रण करते हुए शिशु की जन्मपत्री माता के यशोगान के रुप में कहता था -- *"हे मैत्रावरुणि ! तुम ईडा के समान हो, वीर हो, तुमने वीर पुत्र को जन्मा है , इसलिए तुम वीरप्रसू जननी हो | तुमने हमें वीर पुत्रवान् होने का सौभाग्य प्रदान किया है |*
*८- स्तनप्रतिधान :-*
माता पहले दाहिने स्तन का फिर बायें स्तन का प्रक्षालन करके शिशु के मुंह में देती था इसके बाद प्रसूति के सिर के पास एक जलभरित पात्र रखा जाता था | जिसमें जल से प्रार्थना की जाती थी, *"हे जल ! तुम देवताओं के प्रति जिस प्रकार जागरुक रहते हों, उसी प्रकार इस पुत्रवती प्रसूता के प्रति भी जागरुक रहो |*
*चिंता*
*आज जातकर्म संस्कार दिवास्वप्न बन गया है ! या तो लोग इनके विषय में जानते नहीं या फिर जो जानते हैं वे करना और लोगों को बताना नहीं चाहते ! यही कारण है कि इन संस्कारों का लोप हो गया है | कोई माने या न माने विद्वानों का कार्य है उचित दिशा निर्देश देते रहना ! जो कि आज लगभग बन्द होता जा रहा है !*