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गीत

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 (२१)  कितनों की लोलुप आँखों ने  बार - बार प्याली हेरी।  पर, साकी अल्हड़ अपनी ही  इच्छा पर देता फेरी।  हो अधीर मैंने प्याली को  थाम मधुर रस पान किया,  फिर देखा, साकी मेरा था,  प्याली औ’ दुनिया

 (२०)  दिये नयन में अश्रु, हॄदय में  भला किया जो प्यार दिया,  मुझमें मुझे मग्न करने को  स्वप्नों का संसार दिया।  सब-कुछ दिया मूक प्राणों की  वंशी में वाणी देकर,  पर क्यों हाय, तृषा दी, उर में 

 (१९)  चलना पड़ा बहुत, देखा था  जबतक यह संसार नहीं,  इस घाटी में भी रुक पाया  मेरा यह व्यापार नहीं।  कूदूँगा निर्वाण - जलधि में  कभी पार कर इस जग को,  जब तक शेष पन्थ, तब तक  विश्राम नहीं, उद्ध

 (१८)  देख न पाया प्रथम चित्र, त्यों  अन्तिम दृश्य न पहचाना,  आदि-अन्त के बीच सुना  मैंने जीवन का अफसाना।  मंजिल थी मालूम न मुझको  और पन्थ का ज्ञान नहीं,  जाना था निश्चय, इससे  चुपचाप पड़ा मुझ

 (१७)  छूकर परिधि-बन्ध फिर आते  विफल खोज आह्वान तुम्हें।  सुरभि-सुमन के बीच देव,  कैसे भाता व्यवधान तुम्हें?  छिपकर किसी पर्ण-झुरमुट में  कभी - कभी कुछ बोलो तो;  कब से रहे पुकार सत्य के  पथ पर

 (१६)   क्या पूछूँ खद्योत, कौन सुख  चमक - चमक छिप जाने में?  सोच रहा कैसी उमंग है  जलते - से परवाने में।  हाँ, स्वाधीन सुखी हैं, लेकिन,  ओ व्याधा के कीर, बता,  कैसा है आनन्द जाल में  तड़प - तड

 (१५)  चलने दे रेती खराद की,  रुके नहीं यह क्रम तेरा।  अभी फूल मोती पर गढ़ दे,  अभी वृत्त का दे घेरा।  जीवन का यह दर्द मधुर है,  तू न व्यर्थ उपचार करे।  किसी तरह ऊषा तक टिमटिम  जलने दे दीपक मे

 (१४)  एक चाह है, जान सकूँ, यह  छिपा हुआ दिल में क्या है।  सुनकर भी न समझ पाया  इस आखर अनमिल में क्या है।  ऊँचे-टीले पन्थ सामने,  अब तक तो विश्रान नहीं,  यही सोच बढ़ता जाता हूँ,  देखूँ, मंजिल

 (१३)  देखें तुझे किधर से आकर?  नहीं पन्थ का ज्ञान हमें।  बजती कहीं बाँसुरी तेरी,  बस, इतना ही भान हमें।  शिखरों से ऊपर उठने  देती न हाय, लघुता अपनी;  मिट्टी पर झुकने देता है  देव, नहीं अभिमान

 (१३)  देखें तुझे किधर से आकर?  नहीं पन्थ का ज्ञान हमें।  बजती कहीं बाँसुरी तेरी,  बस, इतना ही भान हमें।  शिखरों से ऊपर उठने  देती न हाय, लघुता अपनी;  मिट्टी पर झुकने देता है  देव, नहीं अभिमान

 (१२)  तारे लेकर जलन, मेघ  आँसू का पारावार लिए,  संध्या लिए विषाद, पुजारिन  उषा विफल उपहार लिये,  हँसे कौन? तुझको तजकर जो  चला वही हैरान चला,  रोती चली बयार, हृदय में  मैं भी हाहाकार लिये।   

 (११)  कौन वीर है, एक बार व्रत  लेकर कभी न डोलेगा?  कौन संयमी है, रस पीकर  स्वाद नहीं फिर बोलेगा?  यों तो फूल सभी पाते हैं,  पायेगा फल, किन्तु, वही,  मन में जन्मे हुए वृक्ष का  भेद नहीं जो खोल

 (१०)  बहुत चला तू केन्द्र छोड़ कर  दूर स्वयं से जाने को;  अब तो कुछ दिन पन्थ मोड़  पन्थी! अपने को पाने को।  जला आग कोई जिससे तू  स्वयं ज्योति साकार बने,  दर्द बसाना भी यह क्या  गीतों का ताप ब

 (९)  जादू की ओढ़नी ओढ़ जो  परी प्राण में जागी है;  उसकी सुन्दरता के आगे  क्या यह कीर्ति अभागी है?  पचा सकेगा नहीं स्वाद क्या  इस रहस्य का भी मन में?  तब तो तू, सत्य ही, अभी तक  भी अपूर्ण अनुर

 (८)  तू जो कहना चाह रहा,  वह भेद कौन जन जानेगा?  कौन तुझे तेरी आँखों से  बन्धु! यहाँ पहचानेगा?  जैसा तू, वैसे ही तो  ये सभी दिखाई पड़ते हैं;  तू इन सबसे भिन्न ज्योति है,  कौन बात यह मानेगा?  

 (७)   छिप कर मन में बैठ और  सुन तो नीरव झंकारो को।  अन्तर्नभ पर देख, ज्योति में  छिटके हुए सितारों को।  बड़े भाग्य से ये खिलते हैं  कभी चेतना के वन में।  यों बिखेरता मत चल सड़कों  पर अनमोल वि

तुझ बिन अधूरी है ख्वाहिशें
तुमसे मिलने कि है साजिशें
अब दिल मुझे मिलता ही नही

ना  काटती हूं, ना  जलाती हूं,
ना  सुखाती हूं,  ना मिटाती हूं,

नन्ही परी, गुड़ की डली,
चाशनी तू प्यार की।
रंगों भरी, नन्ही कली,
खुशियां

चांद कटोरा, सपने बटोरा,
आंगन बैठा रे,
संग निदिया रानी तुझे बुलाए,
सो जा

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