मत कर यहाँ सिंगार ,
द्वार पर खड़ा हुआ पतझार ,
चार दिन की है सिर्फ बहार ||
दुनियां में हर फूल झूमता खिल कर मुरझाने को ,
दुनियां में हर सांस जागती , थक कर सो जाने को |
जीवन में बचपन का भोलापन यौवन की मस्ती ---
आते हैं दो चार कदम , हंस खेल बिछड़ जाने को |
हर बहार पतझर के दामन से उलझी होती है |
इसीलिये दो दिन रहता है , बगिया का सिंगार ||
दो पल को संध्या के हाथों में महदी रचती है ,
चार पहर रजनी की चूनर तारों से सजती है |
आँखों में आंसूं आने से पहले अधर विहंसते ,
और विरह से पूर्व मिलन की शहनाई बजती है |
सूरज की उजली किरणों से रात जनम लेती है |
और दिये की बांहों में पलता रहता अंधियार ||
सूरज का हर सुबह जन्म , हर शाम मरण होता है ,
अपना यौवन लुट जाने पर चाँद बहुत रोता है |
धानी चुनरी ओढ़ धरा दो पल को दुल्हन बनती ---
और रूप का अंत जरा के दरवाजे होता है ||
दुनियां की हर मांग सुहागिन बन कर ही लुटती है |
फूलों की सेजों पर सोये रहते हैं अंगार ||