गुम_हो_गए_संयुक्त_परिवार
एक वो दौर था जब पति,
अपनी भाभी को आवाज़ लगाकर
घर आने की खबर अपनी पत्नी को देता था ।
पत्नी की छनकती पायल और खनकते कंगन बड़े उतावलेपन के साथ पति का स्वागत करते थे ।
बाऊजी की बातों का.. ”हाँ बाऊजी"
"जी बाऊजी"' के अलावा दूसरा जवाब नही होता था ।
आज बेटा बाप से बड़ा हो गया, रिश्तों का केवल नाम रह गया
ये "समय-समय" की नही,
"समझ-समझ" की बात है
बीवी से तो दूर, बड़ो के सामने, अपने बच्चों तक से बात नही करते थे
आज बड़े बैठे रहते हैं हम सिर्फ बीवी से बात करते हैं
दादाजी के कंधे तो मानो, पोतों-पोतियों के लिए
आरक्षित होते थे, काका ही
भतीजों के दोस्त हुआ करते थे ।
आज वही दादू - दादी
वृद्धाश्रम की पहचान है,
चाचा - चाची बस
रिश्तेदारों की सूची का नाम है ।
बड़े पापा सभी का ख्याल रखते थे, अपने बेटे के लिए
जो खिलौना खरीदा वैसा ही खिलौना परिवार के सभी बच्चों के लिए लाते थे ।
'ताऊजी'
आज सिर्फ पहचान रह गए
और,......
छोटे के बच्चे
पता नही कब जवान हो गये..??
दादी जब बिलोना करती थी,
बेटों को भले ही छाछ दे
पर मक्खन तो
केवल पोतों में ही बाँटती थी।
दादी ने
पोतों की आस छोड़ दी
क्योंकि,...
पोतों ने अपनी राह
अलग मोड़ दी ।
राखी पर बुआ आती थी,
घर मे नही
मोहल्ले में,
फूफाजी को
चाय-नाश्ते पर बुलाते थे।
अब बुआजी,
बस दादा-दादी के
बीमार होने पर आते है,
किसी और को
उनसे मतलब नही
चुपचाप नयननीर बरसाकर
वो भी चले जाते है ।
शायद मेरे शब्दों का
कोई महत्व ना हो,
पर कोशिश। करना,
इस भीड़ में
खुद को पहचानने की
कि,.......
हम "ज़िंदा है"
या
बस "जी रहे" हैं"
अंग्रेजी ने अपना स्वांग रचा दिया,
"शिक्षा के चक्कर में
संस्कारों को ही भुला दिया"।
बालक की प्रथम पाठशाला परिवार
पहला शिक्षक उसकी माँ होती थी,
आज
परिवार ही नही रहे
पहली शिक्षक का क्या काम...??
"ये समय-समय की नही,
समझ-समझ की बात है.