हिन्दी हमारी राष्ट्र भाषा है, यह एक समृद्ध भाषा होने के साथ साथ विज्ञान की कसौटी पर खरी उतरती है। विश्व में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषओं में हिन्दी का क्रम तीसरा है। यह सहज सरल भाषा होने के साथ साथ लगभग ८० करोड़ से अधिक लोगों द्वारा बोली और समझी जाती है। किन्तु भारतीयों के अंग्रेजी प्रेम ने न तो हिंदी को विश्व में उचित स्थान दिलवाया है और न ही हमारी उच्च शिक्षा (विशेषकर तकनीकी एवं चिकित्सा शिक्षा) का माध्यम बनने दिया है । फ्रेंच, स्पेनिश और रशियन जैसी भाषाएँ जिनके बोलने वाले हिन्दी भाषा भाषियों से कहीं कम तादाद में है बावजूद फ्रांस, स्पेन और रूस न सिर्फ अपनी मात्र भाषा में उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं वरन यह भाषाएँ संयुक्त राष्ट्र संघ की अधिकृत भाषाएँ भी है। भारतीयों की कम इच्छा शक्ति के कारण ही आज हम अपनी जन भाषा को छोड़कर उस भाषा में शिक्षा प्राप्त करने को मजबूर है जो इस देश में सिर्फ २ प्रतिशत लोगों की भाषा है। तथाकथित अंग्रेजी पप्रेमियों की यह दलील की अंग्रेजी, व्यक्ति को विश्व समुदाय से जोडती है इसलिए आवश्यक है; किन्तु वे यह भूलते है की चीन और जापान जैसे देश अपनी मातृभाषा में शिक्षा देने के बावजूद विश्व के अन्य देशो से तालमेल स्थापित कर रहे है एवं अपना विकास भी बहुत अच्छे तरीके से कर रहे हैं। भाषा का अच्छा ज्ञान विद्यार्थियों के लिए विषय को अच्छी तरह समझने में सहायक होता है। हमारे आसपास के माहोल की समझ हमारे ज्ञान में वृद्धि करती है । इसी स्थिति में अंग्रेजी में ग्रहण की गई शिक्षा स्थानीय परिवेश में व्यवहारिक नहीं होती। अंग्रेजी में अध्यन करना दिमाग पर अतिरिक्त बोझ निर्मित करता है। इसके कारण शिक्षण बोझिल हो जाता है एवं भाषा सिखने के चक्कर में विद्यार्थी विषय से भटक जाते हैं। आजादी के बाद ही हिन्दी विद्वानों ने तकनिकी एवं चिकित्सा शिक्षा की शब्दावली पर कार्य करना प्रारंभ कर दिया था किन्तु हमारे राजनेताओं की उदासीनता के कारण यह कार्य प्रगति नहीं कर पाया। यदि तकनिकी एवं चिकित्सा शिक्षा में कुछ विदेशी विशिष्ट शब्दों की कमी पड़ने की स्थिति निर्मित होने पर विदेशी आगत शब्दों को देवनागरी लिपी में यथावत रखा जा सकता है। कुछ दिनों में हिन्दी इन शब्दों को स्वतः आत्मसात कर लेगी। यदि उच्च शिक्षा में हिन्दी का प्रयोग होने लगे तो हमारे ग्रामीण क्षेत्र के युवक-युवतियों को अपनी प्रतिभा को प्रदर्शित करने का अवसर प्राप्त होगा एवं अंग्रेजी भाषा के नाम पर धंधा करने वाली कोचिंग संस्थाओं का बाजार भी कम होगा। अंग्रेजी के नाम पर गरीब परिवार भी इन कान्वेंट एवं कोचिंग संस्थानों पर अपनी गाढ़ी कमाई का बड़ा हिस्सा खर्च कर देते हैं, बावजूद उन्हें वांछित परिणाम प्राप्त नहीं होते है। यदि हम इतना धन हिन्दी के विकास हेतु खर्च करें तो न सिर्फ भारत वरन विश्व में हिन्दी अपना उच्च स्थान प्राप्त कर लेगी । गणित का अविष्कारक देश यदि गणित को विदेशी भाषा में पढता है तो इससे शर्म की बात कोई दूसरी नहीं हो सकती !! आशा करते है इस जनभावना को हमारी व्यवस्थापिका समझेगी एवं भारतियों को अपनी मातृभाषा में उच्च शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार प्रदान करेगी ।