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हिन्दी दिवस........14 सिंतबर

13 सितम्बर 2023

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                       हिन्दी दिवस का इतिहास और इसे दिवस के रूप में मनाने का कारण बहुत पुराना है। वर्ष 1918 में सृजन पति तिवारी ने इसे जनमानस की भाषा कहा था और इसे देश की राष्ट्रभाषा भी बनाने को कहा था। लेकिन आजादी के बाद ऐसा कुछ नहीं हो सका। सत्ता में आसीन लोगों और जाति-भाषा के नाम पर राजनीति करने वालों ने कभी हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनने नहीं दिया। देश में कई क्षेत्रीय भाषाओं के कारण प्रशासन के लिए हिंदी को ही आधिकारिक भाषा माना भारत के संविधान ने 14 सितंबर 1949 को हिंदी, जो देवनागरी लिपि में लिखी गई है, उसे भारत की आधिकारिक भाषा के तौर पर स्वीकार किया । कई क्षेत्रीय भाषाओं के कारण प्रशासन के लिए हिंदी को ही आधिकारिक भाषा माना गया। हिन्दी दिवस की शुरुआत (1949 से 1950)संपादित करें

अंग्रेजी भाषा के बढ़ते चलन और हिंदी की अनदेखी को रोकने के लिए हर साल 14 सितंबर को देशभर में हिंदी दिवस मनाया जाता है।आजादी मिलने के दो साल बाद 14 सितंबर 1949 को संविधान सभा में एक मत से हिंदी को राजभाषा घोषित किया गया था और इसके बाद से हर साल 14 सितंबर को हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाने लगा। दरअसल 14 सितम्बर 1949 को हिन्दी के पुरोधा व्यौहार राजेन्द्र सिंहा का 50-वां जन्मदिन था, जिन्होंने हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए बहुत लंबा संघर्ष किया । स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित करवाने के लिए काका कालेलकर, मैथिलीशरण गुप्त, हजारीप्रसाद द्विवेदी, महादेवी वर्मा, सेठ गोविन्ददास आदि साहित्यकारों को साथ लेकर व्यौहार राजेन्द्र सिंहा ने अथक प्रयास किए। इसके चलते उन्होंने दक्षिण भारत की कई यात्राएं भी कीं और लोगों को मनाया ।

भारत की राजभाषा नीति (1950 से 1965)संपादित करें

26 जनवरी 1950 को भारतीय संविधान लागू होने के साथ साथ राजभाषा नीति भी लागू हुई। संविधान के अनुच्छेद 343 (1) के तहत यह स्पष्ट किया गया है कि भारत की राजभाषा हिंदी और लिपि देवनागरी है। संघ के शासकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाले अंकों का रूप भारतीय अंकों का अंतर्राष्ट्रीय रूप है। हिंदी के अतिरिक्त अंग्रेजी भाषा का प्रयोग भी सरकारी कामकाज में किया जा सकता है। अनुच्छेद 343 (2) के अंतर्गत यह भी व्यवस्था की गई है कि संविधान के लागू होने के समय से 15 वर्ष की अवधि तक, अर्थात वर्ष 1965 तक संघ के सभी सरकारी कार्यों के लिए पहले की भांति अंग्रेज़ी भाषा का प्रयोग होता रहेगा। यह व्यवस्था इसलिए की गई थी कि इस बीच हिन्दी न जानने वाले हिन्दी सीख जायेंगे और हिन्दी भाषा को प्रशासनिक कार्यों के लिए सभी प्रकार से सक्षम बनाया जा सकेगा।

अनुच्छेद 344 में यह कहा गया कि संविधान प्रारंभ होने के 5 वर्षों के बाद और फिर उसके 10 वर्ष बाद राष्ट्रपति एक आयोग बनाएँगे, जो अन्य बातों के साथ साथ संघ के सरकारी कामकाज में हिन्दी भाषा के उत्तरोत्तर प्रयोग के बारे में और संघ के राजकीय प्रयोजनों में से सब या किसी के लिए अंग्रेज़ी भाषा के प्रयोग पर रोक लगाए जाने के बारे में राष्ट्रपति को सिफारिश करेगा। आयोग की सिफारिशों पर विचार करने के लिए इस अनुच्छेद के खंड 4 के अनुसार 30 संसद सदस्यों की एक समिति के गठन की भी व्यवस्था की गई। संविधान के अनुच्छेद 120 में कहा गया है कि संसद का कार्य हिंदी में या अंग्रेजी में किया जा सकता है।

वर्ष 1965 तक 15 वर्ष हो चुका था, लेकिन उसके बाद भी अंग्रेजी को हटाया नहीं गया और अनुच्छेद 334 (3) में संसद को यह अधिकार दिया गया कि वह 1965 के बाद भी सरकारी कामकाज में अंग्रेज़ी का प्रयोग जारी रखने के बारे में व्यवस्था कर सकती है। अंग्रेजी और हिन्दी दोनों भारत की राजभाषा है।[3]

अंग्रेज़ी का विरोध (1965 से 1967)संपादित करें

मुख्य लेख: अंग्रेजी हटाओ आंदोलन

26 जनवरी 1965 को संसद में यह प्रस्ताव पारित हुआ कि "हिन्दी का सभी सरकारी कार्यों में उपयोग किया जाएगा, लेकिन उसके साथ साथ अंग्रेज़ी का भी सह राजभाषा के रूप में उपयोग किया जाएगा।" वर्ष 1967 में संसद में "भाषा संशोधन विधेयक" लाया गया। इसके बाद अंग्रेज़ी को अनिवार्य कर दिया गया। इस विधेयक में धारा 3(1) में हिन्दी की चर्चा तक नहीं की गई। इसके बाद अंग्रेज़ी का विरोध शुरू हुआ। 5 दिसंबर 1967 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने राज्यसभा में कहा कि हम इस विधेयक में विचार विमर्श करेंगे।[4]

वर्ष 1990 व उसके बादसंपादित करें

वर्ष 1990 में प्रकाशित एक पुस्तक "राष्ट्रभाषा का सवाल" में शैलेश मटियानी जी ने यह सवाल किया था कि हम 14 सितम्बर को ही हिन्दी दिवस क्यों मनाते हैं। इस पर प्रेमनारायण शुक्ला जी ने हिन्दी दिवस के दिन इलाहाबाद में इसके कारण को बताया था कि इस दिन ही हिन्दी भाषा के लिए कई महत्वपूर्ण निर्णय लिए गए थे। इस कारण इस दिन को राष्ट्रीय पर्व के रूप में मनाया जाता है। लेकिन वे इस जवाब से संतुष्ट नहीं थे। उन्होंने कहा कि इस दिन को हम राष्ट्रभाषा या राजभाषा दिवस के रूप में क्यों नहीं मनाते हैं। इसके साथ ही शैलेश जी ने इस दिन हिन्दी दिवस मनाने को शर्मनाक पाखंड करार दिया था
आओ हम सभी मातृभाषा हिंदी का समर्थन और सहयोग के साथ हिन्दी का लेखन प्रयोग करते हैं।

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