"तुझे बेतहाशा चाहूँ"
बंदीशों के दायरे में रहकर क्यूँ तुमको चाहूँ, चंचल नदी सी हूँ अपने समुन्दर की प्यासी क्यूँ सारे बंधन तोड़ कर बयार सी बह ना जाऊँ.!
आगोश फैला मेरे अनुरोध पर मैं लहरों सी लहराती आऊँ, चाहत में समाधान कैसा ज़माने की हर शै से ज़्यादा मैं तुमको चाहूँ.!
इज़हार सरेआम है मेरा दिल में छुपे इश्क को बेबाक सी आगाज़ दूँ, इकरार में तू सर तो झुका मैं नखशिख समूची तुम में समाऊँ.!
नहीं चाहिए इज़ाज़त ज़माने कि चाहती हूँ बेपनाह ये कहने से क्यूँ शरमाऊँ दिल की तू दहलीज़ तो खोल मैं नंगे पैर दौड़ी चली आऊँ.!
दिल ने तमन्ना की है मेहबूब तुझे पाने की रख दी है जान तेरे कदमों में शौक़ से, इश्क की तौहीन ना करना कहीं सदमे से मैं मर ना जाऊँ।।
"रूक रागिनी"
रुक रागिनी तेरी मरमरी पीठ पर अधरों से लालित्य लिख दूँ,
झूल रही दो डोरी वक्षावरण को थामें हल्के से ज़रा बाँध तो दूँ...
कातिल मोड़ तेरी कमर के मुझे दे रहे है निमंत्रण,
पालव की ज़ुबान पर अपनी ऊँगलियों के ज़रा लब रख दूँ...
लाजवंती ज़रा ठहर जा गरदन सुराही शीत चूम लूँ,
नुक्ता पड़ा कानों के नीचे हौले से पलकों से छू तो लूँ...
कमर बंध पर दिल अटका मेरी आँखें अटकी तेरी चाल पर,
कबरी खोल गेसू लहरा तेरी एक एक लट सूँघ तो लूँ...
लाल चुनर पर वार दूँ मेरा सबकुछ मेरी दिलरुबा,
मूड़ के देख मेरी माहताब आशिक को दीदार का दान तो दे...
आग लगाता अंग-अंग तेरा विकल करे मेरी रूह को,
डाली सा तन तेरा देखकर बाँसुरी सी उठा लूँ मेरा मन करें...
मृगनयनी मत मोह जगा अकुल प्राण की आह तू सुन,
अधीर उठे अरमान मेरे ना छेड़ उच्छ्वास को तान ना दे..
मदिर मदिर तेरी साँसों पर लहराता बन्दी बना मेरा मासूम दिल,
रहने दे नखरें न दिखा मन खिंचता ही जाता तेरी ओर, तेरी ओर, तेरी ओर।
"तुझे आँखों से नहीं, मेरे दिल से जुदा होना है"
खंगाल कर देख लिया तुम्हें देने के लिए मेरे पास कुछ भी नहीं...
पलकों पर ठहरे मोती मत बनों
बाँध नहीं बना सकती जो तुम ठहर सको..
मूड़ मूड़ के मत देखो
जगह नहीं है तिल भर कि तुम्हें कैसे सहज लूँ....
मत टटोलो मेरे भीतर तुम्हारी मौजूदगी का एक भी अंश बाकी नहीं
उम्मीद में नज़रें मत उठाओ...
तिमिर का समुद्र हूँ एक बूँद भी मेरे भीतर मीठे उजियारे की किरण नहीं...
विनष्ट स्वप्न से लदी हूँ मेरे ख़वाबगाह में कोई सपना बाकी नहीं
विषाद की बदली में प्रीत की बारिश मत ढूँढो....
मत पुकारो मीत समझकर मरुस्थली में सुधामयी शाम कहाँ पाओगे...
विरहघिरी विभावरी हूँ अमावस की अंधेरी रात में पूर्णिमा मत तलाशो...
कोरे आसमान पर कृति रचने चले हो ज़रा ठहरो
कितने भी रंग छिड़कोगे गाल इस गगन के लाल होने वाले नहीं है...
मत मलो अपने तसव्वुर में मेरा एक भी रंग मेरे अधरों पर अंगार पड़े है....
खाली कर दो मुझे अपनी अदाओं का हर रंग अपने साथ लेकर जाओ...
मुझे खुद को दफ़न करना है नखशिख दर्द की गर्द में...
एक भी अंश तुम्हारा मेरे भीतर रह गया तो कहो उस मोह से नाता मैं कैसे तोड़ पाऊँगी....
तुम्हें दिल से जुदा होना है, सिर्फ़ आँखों से नहीं.....
"सुनों ना"
"मेरे असबाब को अपनी आगोश में भरने वाली ए अर्धांगनी सुनों ना"
अनैसना जँचता नहीं तुम्हारे माहताब पर..
वह तुम ही तो हो जो मेरी रचनाओं पर राज करते विराजमान है,
करीब आओ, छुओ पन्नों पर मुस्कुराती अपनी आत्मा को, पढ़ो मेरी हर कविता में खुद को
तुम्हारे पसीजते तन की खुशबू से सराबोर कर दो मेरी रचनाओं को
हर पंक्ति में शुमार है तुम्हारी अदाओं का....
नहीं ओर कोई नहीं मेरी रचनाओं की नायिका,
मेरी कल्पनाओं की अंगड़ाई हो तुम, तुम्हारे जुड़े से गिरती मोगरे के गजरे की महक से बने है मिसरे मेरी गज़ल के..
वह...हाँ...वह
जो नशीली आँखों को जाम लिखा है वह तुम्हारे नैंनों का कम्माल लिखा है
"शक ना करो"
तुम्हारी कमर में कस कर बंधे पल्लू को मैंने अपनी मंज़िल लिखा है..
तुम्हें सोचना तुम्हें लिखना तुम्हारे प्रति अहोभाव और तुम्हारा ऋण चुकाना नहीं
ये इन्तेहा है मेरे इश्क की..
मेरे संसार रथ की धुरी किस तरह तुम्हारा शुक्रिया अदा करूँ
संजोया है मेरे जीवन को तुमने बखूबी
अनुचर हूँ तुम्हारा...
तुम्हारी नाभि को चक्रवात लिखा है
पर्वत की चोटी नहीं तुम्हारे वक्ष की कलात्मक अभिव्यक्ति लिखी है...
धड़कन की घकघक नहीं
तुम्हें मेरे जीने की वजह लिखा है...
अरे रूठो नहीं वो तुम्हारे लबों की तबस्सुम को ही मैंने झिलमिलाता गौहर लिखा है
देखो ना दसवें पन्नें पर जो मुकम्मल मेरा जहाँ लिखा है
वह मेरे आशियाने की गरिमा तुम्हारे समर्पण का सार लिखा है..
कह न पाया कभी अपने अहसास तुम्हें रुबरु
तुम्हारे प्रति संमोहन के मोतियों को
शब्दों में पिरोया है
स्पर्श करो पसीज उठोगी मेरी चाहत की तपिश में नहाते..
ये रचनाओं का महज़ सरमाया नहीं
मेरी पूजा है जो कि है मैंने ताउम्र तुम्हारी..
ओ मेरे तसव्वुर की सुरबाला कसम से मैंने अपनी कला तुम्हारे नाम लिखी है।
अनैसना (रूठना)
"खुद को साझा कर लूँ"
क्या मैं अपने राज़ तुम्हारे साथ साझा कर सकती हूँ?
तुम्हारे करीब आकर हौले से गुनगुनाते कानों में..
शब्द इजाज़त नहीं दे रहे
खयाल भी कहने के मूड़ में नहीं
पर दिल चाहता है तुम्हारे सामने खुल्ली किताब सी बन जाऊँ..
मैं स्त्री से उपर उठकर भी बहुत कुछ हूँ,
तुम जो देख नहीं पाते, पढ़ नहीं पाते मेरे भीतर
उन सारी संज्ञाओं का अर्थ हूँ...
मैं अहसास हूँ, मैं सपना हूँ, मैं धैर्य हूँ
ये सब मेरे भीतर शिद्दत से जल रहा है
गर्म लावा सी मेरी इच्छाओं को महसूस करो,
मुझे देखनी है अपनी गरिमा की उस ज्योत को तुम्हारी आँखों के भीतर झिलमिलाती डार्क पुतलियों के पीछे..
फैला हुआ मेरा पागलपन, बेशर्मी और मेरी विस्फोटक लालसाएं,
मेरी खुद्दारी और समझदारी की नदियों को मर्दाना अहं से परे रहकर विशाल समुन्दर बनकर थाम सकोगे..
क्या तुम मुझे खुद के साथ साझा करने के लिए समर्थ हो
मेरी तपिश को महसूस करने के लिए तैयार हो
मेरे स्पंदन और मेरी गरिमा के कतरों को समेट पाओगे
क्या तुम बाँहें फैलाकर आगोश में ले सकते हो मेरे विराट वजूद को
या बंद कर दूँ मेरे राज़ को समेटे पड़ी किताब को।
"अपनी कल्पनाओं में मुझे स्थापित कर लो"
मुझे अपने कलम की स्याही में सुरक्षित कर लो, मुझे शब्दों की सशक्त श्रृंखला में हीरे सी जड लो..
मुझे कविता का उपनाम दे दो..
मेरी आभा को चित्रित कर लो
मेरा तन कैनवास समझो हर रेशे पर खुद को प्रतिबिम्बित कर दो..
मेरी त्वचा पर अपनी हर अदा को वर्णित करो,
मेरे लब को दवात समझो दो पंखुडि से सारी शबनम चुराकर
इन सारी क्रिया को कहानी का रुप दो...
अपने अहसासों में टैगोर की गीतांजलि और कालिदास की मेघदूतम सी अभिव्यंजना भर कर मुझे सर्वोत्कृष्ट कर दो..
अपनी असंख्य कल्पनाओं में मुझे स्थापित करो,
फिर जो जन्म ले तुम्हारे दिमाग में मनोरचना उसे मेरी आँखों में परिवर्तित करो..
मैं जन्म लेना चाहती हूँ तुम्हारी रूह की कोख से मुझे प्रदर्शित करो,
विश्व देखें मुझे तुम्हारे भीतर
मैं तुम्हारे दिल की जीवंत कला बनकर रहना चाहती हूँ
इस जन्म में और अगले कई जन्मों तक..
#भावु