स्त्री विमर्श
10 मार्च 2022
इक्कीसवीं सदी में भी कुछ नारियों के लिए कुछ भी नहीं बदला। बेशक कुछ महिलाओं के जीवन में परिवर्तन आया है, पर आज भी कुछ मर्दों के दिमाग में पितृसत्तात्मक वाली सोच पल रही है, जिसका खामियाजा कुछ स्त्रियाँ भुगत रही है। मेरी यह किताब उन्हीं महिलाओं को समर्पित है। हर प्रताड़ित नारियों के एहसासों का आईना है मेरी हर एक रचना, जिसका प्रतिबिम्ब पाठकों के विचारों में झलकेगा। स्त्री कोई बुत नहीं जीती जागती एहसासों से लबालब भरी शख़्सियत है उसे भी दर्द महसूस होता है। हर स्त्री परिवार की बुनियाद होती है उसे ही मर्द क्यूँ गिराना चाहता है? ऐसी सोच वाले मर्दों को मेरी रचनाएँ कहती है की,,,, "कोई तो इतिहास रचो" अपनी प्रिया का सुंदर स्वरुप देखना है अपनी आँखों में तो जैसे हो वैसे रहो, वफ़ादार साथी का साथ बनाता है स्त्री को सुंदर। उसके कदम से कदम मिलाओ चाँद की तरह चमकते उसकी राहों में रोशनी भरो, वो महसूस करेगी मानों आसमान में उड़ रही हो। उसकी सोच से अपनी सोच का मिलन रचो वो अपनी रूह निकालकर रख देगी तुम्हारी हथेलियों पर, उसकी बात को सही साबित होने दो उसके भीतर आत्मविश्वास खिल उठेगा। वह रिश्ते में शिद्दत से बंधी होती है उसके एहसास को सम्मानित करो, भीतर से खाली होते समर्पित हो जाएगी उसके स्पंदन पराग से नवपल्लवित हो जाएंगे। जब वो टूट चुकी हो ज़िंदगी की बाज़ी हारते उसे आगोश में लेकर अपना सबकुछ हारते प्यार दो सोहनी सोने सी निखर उठेगी। उसका हाथ थामें ले चलो झिलमिलाती नई दहलीज़ तक, प्रवाल सा मृदु उर है औरत का प्रीत की नमी का इंधन दो पनप उठेगी आपके आँगन में तुलसी सी ज़रा सा हक तो दो। बहुत हुआ स्त्री विमर्श का नाटक अब तो पटाक्षेप हो इस विषय का, कोई तो नारी के वजूद का नया शृंगार करो सही स्थान देकर नया इतिहास रचो। भावना ठाकर 'भावु' बेंगलोर
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