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शृंगार रस

10 मार्च 2022

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1 "कभी भूला तो न दोगे मुझे"
फ़िरोज़ी मेरे सपने बुनते है एक वितान अपने अरमानों के धागों संग तुम्हारी  किस्मत की तुरपाई करते, तुम्हारी आगोश में टूटे मेरे तन की कश्मकश कहती है कहो कभी भूला तो न दोगे मुझे...

कहकशाँ को गवाह रखते तुम्हारी हथेलियों ने थामा है मेरी लकीरों को इश्क की आराधना करते मानकर चली मैं अपना खुदा तुम्हें इबादत अधूरी छोड़ कर
कहो कभी भूला तो न दोगे मुझे... 

सौंपा है मैंने खुद को तुम्हारी पलकों की छाँव तले रखकर अपने स्पंदनों को  तुम्हारी गर्म साँसों की रवानी में अपने  जिस्म की खुशबू को बहा कर खो दिया अपने वजूद को बेपरवाही के आलम में कहो कभी भूला तो न दोगे मुझे... 

दिल की गहराई से चाहूँ तुमको तुमसे मिली फुर्कत जो कभी मर ही जाऊँगी सनम जोड़ा है जो रिश्ता शिद्दत से ताउम्र तुम तोड़ना न कभी किसी ओर के बहकावे में आकर कहो कभी भूला तो न दोगे मुझे..

शक नहीं रश्क है मुझे मेरे दीवाने के कई दीवाने ठहरे अपने दिल की संदूक में छिपाकर रख लूँ तुम्हें सिवा मेरे कोई ओर न देखे तुम्हें बस एक ही बात से डरती हूँ कहो कभी भूला तो न दोगे मुझे..



2 'चल उतरे दरिया पार'
है हरसू छैया प्रीत की लबरेज़ भरा घट छलक रहा, इंतज़ार किस बात का माशूक इकरार में ज़रा तू नैंन उठा..

"न तुम दाता न मैं याचक 
मोहब्बत में न मांगना न देना होता है"

अनसुनी धड़कन में उठती चिंगारी को चखकर समीप आ सीने पर सर रख चूमें प्रेम का हर अवलम्बन.. 

तय नहीं होती प्रेम की क्षितिज चले जहाँ तक हम तुम सनम लेकर हाथों में हाथ उस डगर पर चाहत की नींव रखी होती है..

बहती है एक ही मंदाकिनी दो उरों की धार से जिसमें बहते अँजुरी भर पीनी है इश्क की मदमस्त आग..

ललक नहीं, न अधिरता प्रीत की मखमली परवाज़ लिए हमें चलना है ताउम्र साथ..

सुध ले ले तू मेरी मैं तेरा छिनूँ चैनों करार एक दूजे के भीतर रहकर जी ले ज़िस्त हज़ार..

जुदा नहीं मुझसे तू नखशिख मौजूद रग-रग जान, नदिया मैं तू है सागर साजन संगम रच ले आज..

वेग है तुम्हारे चुम्बन में, मेरा आलिंगन धुँआधार, मिलती है चार आँखें जहाँ वहाँ रचता है स्वर्ग का द्वार..

वादे न इरादे न यकीन का यलगार, मानें तू मुझे खुदा अपना तू मेरा तारणहार 
सिद्ध करें चलो समर्पण उतरे इश्क का दरिया पार..




3 'रहने दो'
माना कि जादुई शाम के जलवों ने उन्मादित चाहत की चद्दर बिछा रखी है हमदोनों की उर धरा पर।

यूँ इतना करीब आके उरों की आग को न भड़काओ रहने दो प्रीत की प्रवाल को नर्मी की संदूक में ही रहने दो। 

मेरी गोरी त्वचा की परत पर न फ़ेरो अपनी ऊँगलियों की ललक चिंगारी को हल्की ही सही हवा न दो।

न बहको यूँ मेरी गेसूओं की खुशबू को साँसों में भरकर प्रणय का गान अभी ज़रा मद्धम गाओ। 

तिश्नगी को थोड़ा काबू में रखो, हाँ माना की मंज़ूर है हमें भी आपकी आगोश की गर्मी।

पर डरती हूँ वल्लाह तुम्हारी तलब को चूमकर ख़्वाहिशों की ललक हमें हद पार न ले जाए कहीं। 

तबाह कर देगी दिलों की बसाई बस्ती को बुरी है बहुत बुरी रवायतें ज़माने की दो प्रेमियों की नज़दीकीयाँ कहाँ भाती है। 

दबे एहसास को दिल की अंजुमन में दबे ही रहने दो रहने दो, चर्चे हमारे इश्क के सरेआम न हो जाए कहीं।



4 बिखरी लटों वाली लड़की 
रात की ठोड़ी पर बैठे चाँद का झिलमिलाना तुम्हारे रुख़सार की याद दे गया..
 
बिखरी लटों वाली लड़की चाँदनी में  नहाते तुम जब झांकती थी झील में, नखशिख स्वप्न परी सी लगती थी..

ये वादियों में गिरती चाँदनी की बूँदों से पिघलती कायनात की परतें 
पसीजती थी तुम्हारी हथेलियां मेरे हाथों की गर्मी में घुलकर उस लम्हें की याद दिलाती है..

कह दो अपनी यादों से थम जाए ख़्वाब बैठा है मेरी पलकों पर, तसव्वुर से मेरी दूर जाओ तो ज़रा नींद आए..

हंगामा न कर कुमुदिनी यूँ कल्पनाओं की क्षितिज पर बैठे, चाँदनी रात में तड़पते कोई खता न हमसे हो जाए.. 

यकीन करो इश्क है बेइन्तहाँ तुमसे फासलों पर दिल दहलता है 
चाँदनी रात में तुम्हारी याद आते ही आशिक के चैनों करार का जनाज़ा निकलता है।




5 "कभी सामने तो आ"
"जादू-नशा-मदहोशियां या कोई करिश्मा कुदरत का लिखूँ, कश्मकश में हूँ ताज सी हसीन मेरी महबूबा की तारीफ़ चंद शब्दों में कैसे लिखूँ"

गुम होती उसके संदली गेसूओं में हवाओं से बह रहे नग्मों की धुन पर मचलते मेरे अरमाँ को कैसे ढ़ालूँ लफ़्ज़ों में..

गुज़री थी कल रात मेरे सपनों से वो दबे पाँव, मैं भीगा हूँ नखशिख वो जमकर कुछ यूँ बरसी थी..
 
कस्तूरी मृग मरीचिका सी, नाजुक जिसके नैंन नक्श, अभी भी महक रही है वो मेरे जिस्म के भीतर खुशबू ही उसकी ज़र्दे सी थी.. 

काली आँखों के मैखाने की कम्माल पर टूटी कलम को जोडूँ कैसे, हुश्न नहीं वो आग है उसकी तपिश में तपना छोडूँ कैसे..

सिने से सरकते दुपट्टे की सिलवटो में अटके मेरे दिल की हालत न पूछो, हर साँसों पर धड़कते बांवरा मन बार-बार उछलता है.. 

ऊँगली के छल्ले पर अटकी आँखें वापस मोडूँ कैसे, चुम्बन को तरसे अधीर लबों की तड़प के आगे ज़िंदगी की हर तिश्नगी हारे..

कब तक ख़यालों में गुफ़्तगु होगी रूह में बसी लड़की कभी सामने तो आ, रुबरु की तलब का वर्णन अल्फाज़ों में कोई कैसे ढ़ाले।





6 "कहो चल पाओगे मेरे सम्मान को अपना गुरुर बनाकर" 

मेरे फैसलों पर अपने विश्वास की नींव रखकर मेरी हंसी में अपने लबों की नमी रखोगे अगर हाँ तो, 
मैं सरताज समझकर तुम्हें पूजती रहूँगी..

सहरा या शूल सी न समझना फूलदल सी नाजुक हूँ ज़ख़्मों की आदी नहीं प्रेम से लदी हूँ, क्या सहज पाओगे सिप में मोती सी अगर हाँ तो, 
समेट लो मुझे सराबोर तुम्हारी हूँ 

मेरे हर कदम को अपने वजूद की छाँव देकर जो चलोगे तुम अगर हाँ तो, 
मैं हर धूप तुम्हारे हिस्से की ओढ़ लूँगी..
 
समझ सकोगे अनकही मेरी बातों के तथ्यों को मेरी आँखों की भाषा पर अपनी धड़कन का धड़कना पहचान पाओगे अगर हाँ तो, 
संपूर्ण समर्पित मुझे पाओगे..

जुदा नहीं मैं तुमसे आधा अंग हूँ 
पसीजते मेरे अहसासों की तपिश के संग अपने अहसासों को शेक पाओगे अगर हाँ तो,  
थामों हाथ मेरा चलो साथ-साथ चलें..

मुश्किल नहीं मुझे समझना हल्का सा हक और सम्मान की रिश्वत पर अपना सबकुछ वारने का हुनर जानती हूँ दे पाओ इतना? अगर हाँ तो, 
मैं ताउम्र नतमस्तक होकर जीना जानती हूँ..

अहं और अकड़ मुझमें भी है तुमसे भी ज़्यादा पर तुमसे ज़्यादा अज़िज नहीं, तुम्हारे आगे अपना सबकुछ हारना जानती हूँ मैं।
"कहो अब तो चलोगे न मेरे संग उस अर्श की चौखट तक? अगर हाँ तो मैं खुद को तुम्हें सौंपती हूँ"



7 "उत्कट प्रेम की परिभाषा क्या पता क्या होती होगी"
मैं जो करती आ रही हूँ उनसे शायद प्रेम है, हाँ प्रेम ही तो है...

हर दफ़ा हर पल मैं उन पे मरती रही भीतर ही भीतर चिंगारी सी जलती रही
प्रेम तितली है दिल शहद, 
हर फूल में उसका ही चेहरा तलाशती रही...
 
मैं उसकी आँखों पर अपनी जान न्योछावर करती रही 
हंसी की तरह उनके लबों पर ठहरती रही जैसे उसकी हर खुशियों की वजह मैं ही रही...

थक कर उसके चूर होने पर नखशिख मैं क्यूँ पसीजती रही
अपने हिस्से की हर सौगात उसके नाम ही करती रही...

देखे न महसूस किए कभी उसके दिल के एहसास मैंने फिर क्यूँ उसकी हर अनकही बातों का प्रतिभाव मैं देती रही...

सिगार की उसकी आदत पर मैं धुआँ बनकर उठती रही, राख भई न कोयला फिर भी मनमीत पर आफ़्रिन होती रही...

उसके हर गम को अपना कर अपने मथ्थे मडती रही,
उसका ज़िंदगी से हारना मुझे मंज़ूर नहीं अपने भीतर का हौसला उसकी रग-रग में भरती रही...

कितनी मासूम होती है चाहत 
उससे जुड़ी हर कहानी का मैं किरदार बनती रही
मुझे प्रेम है उसकी हर अदाओं से तभी तो उसकी नज़र अंदाज़गी भी सहती रही...

जब टकराई थी उस ज़ालिम की नज़रों से मेरी नज़र उस लम्हें का सज़दा ताउम्र  करती रही...
 
किसीने कहा मुझसे एक दिन जिस पर तू इतनी शिद्दत से मरती है उसकी सोच में भी तू दूर दूर तक नहीं....
 
हमने भी कह दिया तो क्या हुआ उसकी निगाहों में हम नहीं, 
रहता तो वह मेरे भीतर ही है, उससे दिल लगाने का हमें कोई गम नहीं... 

भावु।
Dinesh Dubey

Dinesh Dubey

बहुत बढ़िया

10 मार्च 2022

bhavna Thaker

bhavna Thaker

11 मार्च 2022

बहुत बहुत धन्यवाद सर

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