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“प्रकृति विनाशक आखिर क्यों है?”

12 अगस्त 2021

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प्रकृति विनाशक आखिर क्यों है?”

-आनन्द विश्वास

बिस्तर गोल हुआ सर्दी का,

अब गर्मी की बारी आई।

आसमान से आग बरसती,

त्राहिमाम् दुनियाँ चिल्लाई।

उफ़ गर्मी, क्या गर्मी ये है,

सूरज की हठधर्मी ये है।

प्रकृति विनाशक आखिर क्यों है,

किस-किस की दुष्कर्मी ये है।

इसकी गलती, उसकी गलती,

किसको गलत, सही हम बोलें।

लेकिन कुछ तो कहीं गलत है,

अपने मन को जरा टटोलें।

थोड़ी गर्मी, थोड़ी सर्दी,

थोड़ी वर्षा हमको भाती।

लेकिन अति हो किसी बात की,

नहीं किसी को कभी सुहाती।

लेकिन यहाँ न थोड़ा कुछ भी,

अति होती, बस अति ही होती।

बादल फटते थोक भाव में,

और सुनामी छक कर होती।

ज्यादा बारिश, बादल फटना,

चट्टानों का रोज़ दरकना।

पानी-पानी सब कुछ होना,

शुभ संकेत नहीं ये घटना।

आखिर ऐसा सब कुछ क्यूँ है,

रौद्र-रूप कुदरत का क्यूँ है।

वहशी, सनकी, पागल, मानव,

खुद को चतुर समझता क्यूँ है।

बित्ता भर के वहशी मानव,

अब तो बात मान ले सनकी।

तेरे कृत्य न जन हितकारी,

सुन ले अब कुदरत के मन की।

मिल-जुलकर, चल पेड़ लगा ले,

जल, थल, वायु शुद्ध बना ले।

हरियाली धरती पर ला कर,

रुष्ट प्रकृति को आज मना ले।

रुष्ट प्रकृति जब मन जाएगी,

बात तभी फिर बन जाएगी।

खुशहाली होगी हर मन में,

हरियाली चहुँ दिश छाएगी।

सृष्टि-सृजन के पाँच तत्व हैं,

जब तक ये सब शुद्ध रहेंगे।

तब तक अनहोनी ना होनी,

सुख-सरिता, जलधार बहेंगे।

दूषित तत्व विनाशक होते,

ये विनाश की कथा लिखेंगे।

प्रकृति और मानव-मन दोनों,

विध्वंसक हो, प्रलय रचेंगे।

-आनन्द विश्वास

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