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जब बात बनाए न बनी !

25 जुलाई 2022

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बड़े-बूढ़े कुछ झूठ नहीं कह गए हैं कि परदेश जाए तो ऐसे चौकन्ने रहें, जैसे बुढ़ापें में ब्याह करने वाला अपनी जवान जोरू से रहता है। हम चौकन्नेपन क्या, दसकन्नेपन की सिफारिश करते हैं, वरना ईश्वर न करे किसी पर ऐसे बीते, जैसी परदेश में हम पर बीती, यानी हम साढ़े पांच हाथ के जीते-जागते मौजूद रहे और परदेश ने हमारे मुंह पर कानूनी तमाचा मारकर कुछ देर के लिए यह साबित कर दिया कि हम फौत शुद यानी मर गए।

शहर का नाम-ठाठ तो न पूछिएगा, गई-गुजरी बात के लिए किसी को बदनाम करने की हमारी नीयत नहीं। हां ! इतना जान लेना ही आपके लिए काफी होगा कि वह नगर एक दूसरी भाषा बोलने वालों के प्रदेश में ही और हम पापी पेट से बंधे साल-भर के वास्ते वहां रहने गए थे।

मकानों की समस्या के विषय में तो आप सब जानते ही हैं, हमें भी बड़ी किल्लत का सामना करना पड़ा। होटल सस्ता होकर भी बड़ा महंगा था। दाम भरपूर और प्रबंध का यह हाल था कि सुबह की चाय दस तकाज़ों के बाद दोपहर में मिलती थी, और दोपहर का खाना अगर आज मांगा गया है तो परसों शाम को अवश्य पहुँच जाएगा। खैर, बड़ी दौड़-धूप की; दफ्तरी कुर्सियों की मिन्नत-खुशामद की और तकदीर ऐसी सिकन्दर सिद्ध हुई कि चार महीने बाद ही एक मकान हमारे नाम अलाट हो गया। हम बड़े प्रसन्न हुए, मकान देखने गए। एक छोटी-सी चाल थी, अर्थात् उस नई बनी हुई दो मंजिला इमारत में एक-एक कमरे वाले बीस घर थे। हम अपने कार्यालय के एक सहयोगी को लेकर उस जगह को देखने गए थे और जब देख ही रहे थे कि एक सज्जन, गोदी में अपने मुनुआं को लिए बड़ी अकड़ के साथ दाखिल हुए और अपनी भाषा में कुछ पूछा। हम तो खैर नये थे, लेकिन हमारे सहयोगी ने समझकर बात का उत्तर अंग्रेजी में दिया। घड़ाघड़ बात होने लगी।

उन्होंने पूछा—‘‘आप इस घर को ले रहे हैं?’’

उसने कहा—‘‘जी हैं।’’

वे बोले—‘‘लेकिन मैं आपको चेतावनी देता हूं कि इस घर में न आइए।’’

‘‘क्यों साहब ? क्या इस घर में भूत रहते हैं?’’

‘‘भूत!’’ उन्होंने चौंककर शब्द दुहराया, 

फिर बोले ‘‘जी नहीं। यहां हमलोग रहते हैं।’’

‘‘तो फिर क्या चोर-उचक्कों की बस्ती है?’’

हमारे इस प्रश्न से वे लाल-भभूका हो गए, कहा, 

‘‘आप हमारा अपमान करते हैं। यहां सब शरीफ लोग रहते हैं।’’

हम विनम्र हो गए, दीनता से कहा :

‘‘यही सोचकर तो हम भी आ रहे हैं, परदेश में शरीफों का साथ ही ठीक रहता है।’’

‘‘लेकिन आप नहीं आ सकते। यहां सब घर-गिरस्ती वाले लोग ही रहते है।’’ उन्होंने कहा।

‘‘हम भी घर-गिरस्ती वाले ही है।’’

‘‘लेकिन आप परदेशी हैं। हमारे यहां कोई परदेशी नहीं रह सकता।’’

हमारे दफ्तरी सहयोगी को बुरा लगा। वे भी परदेशी थे, यद्यपि हमारा उनका प्रदेश भी अलग था और प्रादेशिक भाषा भी। वे गरमा गए, बोले : 

‘‘परदेशी होना तो कोई अपराध नहीं। आप भी रोजी-रोजगार से बंधकर किसी ओर प्रदेश में रहने के लिए जा सकते हैं। आपके प्रदेश के बहुत-से लोग हमारे यहां रहते हैं—वे भी तो आखिर वहां परदेशी ही हुए। ये बेजा बात है, हम सब भारतवासी हैं, मानव हैं।’’

हमारे सहयोगी के इस तर्क से वे लुंगी-बनियानधारी मुनुवां खिलावन सज्जन फिर भड़के, कहा, 

‘‘यह घर मैं अपने साले के लिए अलॉट करवाना चाहता था, लेकिन वेटिंग लिस्ट में उसका नाम दूसरे नम्बर पर हो गया और आपका पहले नम्बर पर। आप यदि अपनी टांग छोड़ दें, तो यह घर मेरे साले को मिल जाएगा।’’

हमने उनको समझाया, 

‘‘देखिए सारी दुनिया को अपने पड़ोस में बसाइए, मगर साले-ससुरे से सात कोस दूर रहना ही आपकी गृहस्थी के लिए शुभ होगा।’’

वे गरमा गए, कहा, 

‘‘आप मेरे साले की इन्सल्ट करते हैं।’’

हमने घबराकर चटपट उत्तर दिया, 

‘‘बारहा कहा कि मेरी मजाल नहीं जो अपमान कर सकूं। और अगर आपको लगा हो कि मैंने अपमान किया है तो लिखित क्षमा मांग लूंगा, मगर हाथ आया घर न छोड़ूंगा। आपका जी चाहे तो मुझे हंसकर या गाली देकर साला कह सकते हैं। मैं दोनों स्थितियों में अहिंसावादी बना रहूंगा।’’

जब उनका बस चला तो हर मिडिल क्लास क्लर्क बाबू की तरह वे गरमा उठे। उन्होंने निजी बात को फौरन राजनीतिक जामा पहनाते हुए कहा, 

‘‘आप हम पर अपना साम्राज्यवाद लादना चाहते हैं। हमारे प्रदेश, हमारे नगर में आकर हमारे मकानों पर कब्जा करना चाहते हैं ? ऑल राइट, आई विल सी यू।’’

हमने कोई ध्यान न दिया, यह, वह या कोई भी प्रदेश क्यों न हो ? सारे भारत में क्लर्क –बाबू पहले-पहल इसी तरह पेश आता है, पोलिटिकल भाषा में बोलता है, ‘‘आई विल सी यू’’ के जोम के साथ गुर्राता है और बाद में हिल-मिलकर एक हो जाता है—बेचारा चलती चक्की में पिसते हुए गेहूं-सा क्यों न कुर्र-कुर्र बोले ?

खैर साहब, उस घर में हम रहने लगे। हम बड़ी शराफत से रहने लगे। गृहस्थी के लिए आवश्यक और उचित चीजें लाने के साथ-साथ हम गणेश और बजरंगबली के चित्र भी ले आए। घण्टी, दीपक, माला, स्त्रोतों की पोथी, धूपबत्ती आदि भी लाकर सजा ली, ताकि लोग हमें भला मानुष समझें।

ऊपर–नीचे, पास-पड़ोस में आते-जाते नमस्कार करके अपना-उनका परचिय लिया-दिया। चार-पांच दिनों में ही उनके साथ सवेरे शाम राजनीति जमाने और अखबारी समाचारों पर बहसें होने लगीं—बस, एक वही साहब हमसे सीधा रुख न मिलाते थे, जिनका साला पड़ोसी न बन सका था। हमने उनकी चिन्ता छोड़ी; एक के नाराज़ होने से क्या बिगड़ता है ? हमने साले वाली बात भी और को बतला दी।

मगर एक पखवारा भी न बीता था कि हम अनुभव  करने लगे, लोग-बाग हमसे कतराते है, अब नमस्कारों में मुस्कान का चमत्कार नहीं रहा, ‘वेल सर, हाऊ आर यू,’ का शगूफा भी न छिड़ने लगा, पडोसियों के बच्चे-बच्ची भी हमसे, यानी अपने नये ‘अंकल जी’ से टॉफी मांगने न आने लगे। हम घबराए कि आखिर माजरा क्या है ? कुछ ही दिनों में हम एकदम अकेले पड़ गए। यानी कि लोगों ने नमस्कार का जवाब देना तक किसी हद तक बन्द कर दिया। हमने सोचा कि अवश्य ही कोई सालारजंगी चाल है। पर क्या चाल है, यह पता नहीं चलता था। खैर, समूह में सदा दो-एक नरम दिल के भी होते हैं, हमने एक पड़ोसी को बाहर ही पकड़ा, प्रेम से रेस्तरां में ले जाकर कॉफी पिलाई; तब मालूम हुआ कि हमको उस चाल में रहने वाले सरकारी बाबुओं के पोलिटिकल विचारों की जासूसी करने के लिए खास नई दिल्ली से भेजा गया है।

हमने फौरन ही इसकी काट शुरु की, मगर जासूस का डर पक्का बैठ चुका था, बात हाथ से निकल चुकी थी। हमारी सफाई से पड़ोसियों का संदेह और बढ़ा।

चार दिन बाद हमारे कमरे के पिछवाड़े वाले दरवाज़े के पास एक मुर्गियों की ढाबली दिखलाई पड़ने लगी। हम डरे कि जाने किसकी हो, खामोश रहे। मगर शाम को जब घर आए तो देखा कि सारी स्त्रियां अपनी भाषा में गर्मागर्म शब्द छोंकती मेरे ऊपर टूट पड़ीं।

हमने बहुत समझाया कि हमने मुर्गी-पालन कार्य कभी  नहीं किया; हम घोर वैष्णव हैं, प्याज़-लहसुन तक नहीं खाते, मगर कौन सुनता है ? दूसरे दिन मकान-मालिक भी गरमाता आया। हमने उसे लिखकर दिया कि मुर्गियां हमारी नहीं। मगर उसके बाद से हम सबकी नज़रों का खटकता खार हो गए।

इसके बाद एक सप्ताह ही बीता था कि एक दिन सुबह सिपाही के साथ साले साहब को लेकर बहनोई साहब आ धमके। दरवज़ा खटखटाया और हमारे कुण्डी खोलते ही सब लोग अन्दर घुस आए और बिना पूछे-ताछे धड़ाधड़ हमारा सामान फेंका जाने लगा।

हमने पूछा, 

‘‘ये क्या माजरा है?’’

बतलाया गया कि जिसके नाम वैधानिक रूप से घर अलॉट हुआ है, वह रहने आया है।

हमने कहा कि घर तो हमारे नाम अलॉट हुआ है। उन्होंने नाम पूछा, हमने अपना नाम बतलाया। वे बोले, इस नाम का किरायेदार तो परसों इसी घर में हार्टफेल से मर गया। सब लोगों की गवाही है। और हम कोई ऐरे-गैरे कल जबर्दस्ती इस घर में घुस आए हैं।

आप समझ सकते है, कि हम पर क्या गुज़री होगी। यानी अब तक ज़िन्दा थे और परसों मर चुके थे। हम, हम न थे बल्कि ऐरे–गैरे थे। हमारा सामान सड़क पर गया और घर साले का हो गया। हमारे बनाए कोई बात न बनी। फिर से अपने–आपको जीवित साबित करने में ही सारा दिन लग गया।

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अमृत लाल नागर 1932 में निरंतर लेखन किया। अमृतलाल नागर हिन्दी के उन गिने-चुने मूर्धन्य लेखकों में हैं जिन्होंने जो कुछ लिखा है वह साहित्य की निधि बन गया है। सभी प्रचलित वादों से निर्लिप्त उनका कृतित्व और व्यक्तित्व कुछ अपनी ही प्रभा से ज्योतित है उन्होंने जीवन में गहरे पैठकर कुछ मोती निकाले हैं और उन्हें अपनी रचनाओं में बिखेर दिया है उपन्यासों की तरह उन्होंने कहानियाँ भी कम ही लिखी हैं उन्हें अपनी रचनाओं में प्रसिद्ध निबंध भी लिखें हैं |
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