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जय बम्भोला

25 जुलाई 2022

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शिवरात्रि के मेले की मौज-बहार लेने के लिए झोला कन्धे पर और सोटा हाथ में लिए हम भी मगन-मस्त चाल से दिग्गज के समान झूमते-झामते महादेवा के पावन क्षेत्र की ओर बढ़े चले जा रहे हैं। ये देखो, दसों दिशाओं से घेरकर महादेव की दर्शनार्थी, ग्रामीण जनता बम-बम भोला महादेव की जै जै कारे करती चली आ रही है। लाखों भगत चले आ रहे हैं; गंगाजल की कांवरों पर कांवरे कन्धों पर लादे चले आ रहे हैं। हर एक को बस एक ही लगन लगी है। भोलानाथ, तुम्हारे दर्शन कर लें, तुम्हें जल चढ़ा दें, और तुम्हारे सामने गाल बजाकर उलु-उलु-हरहर बमबम के नारों से आकाश गुंजाकर अपना जीवन सार्थक कर लें। क्यों नहीं भगवान्, आखिर तुम ब्रह्मा, विष्णु महेश की हाई कमाण्ड में से एक हो, लय-प्रलय के देवता हो, और वरदानी हो। ऐसे बोले कि भगत की एक सच्ची –झूठी मनुहार, पर रीझकर मनमाने वरदान दे देते हो रावण, बाणासुर, भस्मासुर, आदि सभी दुष्ट जन तुम्हीं को अपनी तपस्या से फुसलाकर बड़े-बड़े वरदान पा गए और बाद में स्वयं तुम्हें ही कष्ट देने लगे। तब क्यों न लोगबाग तुम्हारी सच्ची-झूठी खुशामद में लगे। लेकिन हे देवाधिदेव, भारत की अनपढ़ गरीब भोली जनता बड़े भाव से तुम्हारी स्तुति करती है, बड़ी अनोखी महिमा बखानती है 

‘‘बम बम भोले नाथ की जिनके कौड़ी नहीं खोजने में। 

तीन लोक बस्ती में बसाये आय बसे वीराने में।’’

वाह, बिना कौड़ी के महिमामय भगवान तुम्हारी ऐसी निलारी स्तुति भारत की जनता ही कर सकती है। वो देखो, वो मंझोले कद का वह भस्म-जटा-दाढ़ी चिमटाधारी साधु किस ठाठ के साथ अपनी कड़कदार आवाज में सुना रहा है :

डमरू डिमिकि डिमिकि डिम बोला।

नाचें अगड़धत्त बम्भोला

पहिंदे आसमान का चोला

माथे गंग नाग तन डोला

छानैं सौ मन भोग का गोला।।

नाचें अगड़धत्त।।

कमाल है विश्वनाथ, तुम्हारे भक्तजन तुम्हें सौ-सौ मन भंग के गोले छना देते हैं, आक-धतूरे का भोग लगाते हैं—यही नहीं, एक कवि ने तुम्हारी भंग-ठण्डाई का जो नुस्खा लिखा है उसे तो पढ़ने मात्र से ही जब हमें घनघोर नशा आ जाता है तब तुम्हारा क्या हाल होता होगा, ये तुम्हीं जानो। कवि जी ने तुम्हारे श्रीमुख से भगवती पार्वती जी को क्या कहलाया है, सुनोगे प्रभु ?—सुनो :

एक समय अति मगन मन बोले बिहंसि महेस।

मैं जइहौं प्रिय गोकुले सुनहु उमा उपदेश।।

घर बम में विजया नहीं मिले न हाट बाजार।

मोहि भांग बिन भामिनी कौन करेगा प्यार।।

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रचनाएँ
अमृत लाल नागर के प्रसिद्ध निबंध
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अमृत लाल नागर 1932 में निरंतर लेखन किया। अमृतलाल नागर हिन्दी के उन गिने-चुने मूर्धन्य लेखकों में हैं जिन्होंने जो कुछ लिखा है वह साहित्य की निधि बन गया है। सभी प्रचलित वादों से निर्लिप्त उनका कृतित्व और व्यक्तित्व कुछ अपनी ही प्रभा से ज्योतित है उन्होंने जीवन में गहरे पैठकर कुछ मोती निकाले हैं और उन्हें अपनी रचनाओं में बिखेर दिया है उपन्यासों की तरह उन्होंने कहानियाँ भी कम ही लिखी हैं उन्हें अपनी रचनाओं में प्रसिद्ध निबंध भी लिखें हैं |
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जब बात बनाए न बनी !

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बड़े-बूढ़े कुछ झूठ नहीं कह गए हैं कि परदेश जाए तो ऐसे चौकन्ने रहें, जैसे बुढ़ापें में ब्याह करने वाला अपनी जवान जोरू से रहता है। हम चौकन्नेपन क्या, दसकन्नेपन की सिफारिश करते हैं, वरना ईश्वर न करे किसी

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बुरे फंसे : बारात में

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फंसने-फंसाने के मामले में हमारा अब तक यह दृढ़ विश्वास रहा है कि लोग तो बदफेली में फंसते हैं, या राजनीति की गुटबंदियों में। इसीलिए मैं हमेशा ही इन दोनों चीजों से बचता रहा हूं। यह बात दूसरी है कि इस लतो

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भतीजी की ससुराल में

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रायबरेली नहीं, बांसबरेली की बात कह रहा हूं-वहीं, जहां पागलखाना है, लकड़ी का काम होता है, जहां की पूड़ी और चाट मशहूर है, जहां एक बार मुशायरे में शामिल होने के लिए हज़रत ‘शौकत’ थानवी को थर्ड क्लास का टि

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पडो़सिन की चिट्ठियां

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25 जुलाई 2022
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पुराने भारतीय गुरुओं के सम्बन्ध में बहुतों ने बहुत कुछ जो सुन रक्खा होगा उसका एक रूप बीसवीं सदी में रहते हुए भी हमने आंखों देखा है। बचपन में जो पण्डित जी हमको पढ़ाते थे, वे प्राचीन ऋषि गुरुओं की आत्मा

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अतिशय अहम् में

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बात कुछ भी नहीं पर बात है अहम् की। आज से करीब पचास व साठ बरस पहले तक अहम् पर खुद्दारी दिखलाना बड़ी शान का काम समझा जाता था। रईस लोग आमतौर पर किसी के घर आया-जाया नहीं करते थे। बराबरी वालों के यहां भी ब

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तीतर, बटेर और बुलबुल लड़ाना

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यह मुमकिन है कि शान्ति के कबूतर उड़ाते-उड़ाते हम एटम हाइड्रोडन मिज़ाइल किस्म के भयानक हथियारों और आस्मानी और दर आस्मानी करिश्मों के औजारों की लड़ाई बन्द कराने में सफल हो जाएं, मगर यह कि लड़ाई का चलन ह

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मिट्टी का तेल और नल क्रान्ति

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गदर से लगभग 15 वर्ष बाद ही अंग्रेजी पढ़े-लिखों की बिरादरी काफी बढ़ गई थी। मिडिल और स्कूल लीविंग सर्टिफिकेट ही नहीं, कुछ लोग तो बी.ए. और एम.ए. तक भी ढैया छूने लगे थे। अंग्रेजी के सर्टिफिकेट बटोरना और

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बाबुओं में सबसे पहली क्रान्ति यही थी। शहरों में विलायती में ईसाई भिक्षुणियों के रूप में बड़े-बड़े घरों में आती थीं। साहब-शासन की पुरतानियों (पुरोहितानियों) को यद्यपि कोई अपने घर में न आने के लिए तो क

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बाबू पुराण

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नये वर्ष में हमारा पहला विचार अपने लिए एक महल बनवाने का है। बीते वर्षों में हम हवाई किले बनाया करते थे, इस साल वह इरादा छोड़ दिया क्योंकि हवा बुरी हैं। इस साल दो आफतें एक साथ फरवरी महीने में आ रही हैं

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कवि का साथ

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आपने भी बड़े-बूढ़ों को अक्सर यह कहते शायद सुना होगा कि हमारे पुरखे कुछ यूं ही मूरख नहीं थे जो बिना सोचे-विचारे कोई बात कह गए हो या किसी तरह का चलन चला गए हों। हम तो खैर अभी बड़े-बूढ़े नहीं हुए, मगर अन

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मैं ही हूँ

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मैं- वाह रे मैं, वाह। मैं तो बस मैं ही हूं- मेरे मुकाबले में भला तू क्या है ! इस मैं और तू को लेकर हमारे सन्तों और बुधजनों ने शब्दों की खासी खाल-खिंचाई भी की है। कबीर साहब का एक दोहा है कि ‘‘जब मैं थ

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कृपया दाये चलिए

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कहते तो आप ठीक ही हैं पंडित जी, मगर मध्यवधि चुनाव के अभी चार-पांच महीने पड़े हैं, आप तत्काल की बात सोचिए। कार्पोरेशन में किसी बड़े अफसर को फोन-वोन करके ये गंदगी ठीक करवाइए जल्दी से, अंदर से मैनहोल उभर

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