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अंग्रेज़ी-पठन क्रान्ति

25 जुलाई 2022

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बाबुओं में सबसे पहली क्रान्ति यही थी। शहरों में विलायती में ईसाई भिक्षुणियों के रूप में बड़े-बड़े घरों में आती थीं।

साहब-शासन की पुरतानियों (पुरोहितानियों) को यद्यपि कोई अपने घर में न आने के लिए तो कहने की हिम्मत नहीं कर सकता था, परन्तु उनके घर से जाने के बाद सारा घर पानी से धोया जाता था। मिशन के स्कूल जगह-जगह खुलने लगे थे। ईसाई पादरी, अध्यापक और डाक्टर भारतीय युवकों में घूम-घूमकर लोगों को अपनी सेवा से संतुष्ट करते हुए अंग्रेजी पढ़ने का आग्रह करते थे। हमारे रहन-सहन, रीति-रिवाज, देवी-देवता, इतिहास-दर्शन सभी को हमारे मुंह पर दो कौड़ी का सिद्ध किया जाता था। और उसके साथ ही साथ प्रभु यीशु के धर्म तथा अंग्रेजों की भाषा सीखने के लाभ बतलाए जाते थे।

स्व. पं, प्रतापनारायण मिश्र के एक लेख ‘दबी हुई आग’ में हमारे उस जातीय अपमान की झांकी मिलती है, जो ईसाई मिशनरी लोगों के द्वारा निरन्तर किया जाता था। ईसाई पादरी अपना जूता दिखाकर हिन्दू बालकों से कहते थे कि यह तुम्हारे देवता हैं।

अपने स्कूलों में ही नहीं वरन् महाजनी पाठशाला में भी गुरुओं को दो-चार रुपये दक्षिणा चटाकर ये पादरी अपने धर्म-प्रचार के हेतु हमारे धर्म और देवताओं की निन्दा किया करते थे। इतना ही नहीं, तस्वीरें, किताबें और मिठाइयां वगैरह बांटकर वे छोटे बच्चों को ऐसे गीत सिखलाते जिनसे बच्चों के अन्दर स्वधर्म के प्रति अश्रद्धा उत्पन्न हो।

माला लक्कड़, ठाकुर पत्थर, गंगा निरबक पानी।

राम कृष्न सब झूठे भैया चारों बेद कहानी।।

इस प्रकार की अपमानजनक बातों ने भारतीय जनता में बहुत क्षोभ भर दिया।

गदर में अंग्रेज़ों के प्रति भारतीय जनता के विरोध का एक प्रबल कारण यह भी था। इस देश की जनता अपने धर्म की निन्दा करने वालों को कभी सहन नहीं कर पाई। भले ही उनके अत्याचारों और अपनी निर्बलता के कारण वह ऐतिहासिक परिस्थितियों से अनेक बार विवश हो गई। गदर के बाद अंग्रेजी भाषा के प्रचार में इज़ाफा करने के लिए दो बातें अलग-अलग कर दी गई थीं। अंग्रेज सरकार की नौकरी पाने के लिए अंग्रेजी भाषा ही सीखना आवश्यक था, न कि ईसाई धर्म कबूल करना। इस स्पष्टीकरण ने बड़ा काम किया। मिशनरी स्कूलों के अलावा अनेक सरकारी स्कूल भी खुले।

वे अनेक युवक जो अपने धर्म के प्रति गूंगी अनास्था रखते हुए भी जाहिरा तौर पर उसे त्यागकर ईसाई नहीं बनाना चाहते थे, अंग्रेजी पढ़कर उम्दा नौकरी पाने के लिए लालायित हो उठे।

कुछ दुनियादार बापों ने अपने बेटों को अंग्रेज़ी पढ़ाने के लिए स्वयं उकसाया। यों अधिकतर युवकों ने अपने पुरखों से आदरपूर्वक विद्रोह कर अंग्रेजी पढ़ना आरम्भ किया।

सन् 1875-80 के लगभग अवध क्षेत्र में अंग्रेजी राज्य के शिक्षा विभाग के अन्तर्गत लगभग 1400 छोटे-बड़े स्कूल थे जिनमें लगभग 70 हजार विद्यार्थी पढ़ते थे। अंग्रेजी पढ़ने वाले विद्यार्थियों की संख्या पांच हजार थी।

गांव के एक ब्राह्मण युवक ने शहर के अंग्रेजी स्कूल में नाम लिखाने के बाद लगातार छह वर्ष तक अपने पिता का आमना-सामना नहीं किया। वे लुक-छिपकर अपने गांव जाते थे और माता से मिलते थे। बहुत-से घरों में पिताओं का विद्रोह व अपने पुत्रों के विद्रोहों से समझौता करने लगा। मेरे पितामह और उनके भाई स्कूल में जब तक रहते पानी नहीं पीते थे।

स्कूल से लौटने के बाद घर के बैठकखाने में वे कपड़े टांग दिए जाते थे। अंगोछा पहनकर नंगे बदन अंदर जाना, फिर हाथ-पैर और जनेऊ धोकर जल ग्रहण करना- यह नियम मेरे पितामह और भाइयों तक ही सीमित नहीं था।

मैंने अनेक प्रकार के ब्राह्मण बुर्जुर्गों से इस जमाने का यही चलन सुना है।

दोहाती मेलों में घोड़े पर अंग्रेज़ के जाने की बात भी मैंने अक्सर सुनी है। घोड़े पर अंग्रेज़ डाक्टर जाता है, अंधों की आंखें ठीक कर देता है, अंग्रेजी भाषा का प्रचार करता है, अंग्रेजी पढ़ जाने पर अच्छी नौकरी दिला देने का भरोसा देता है। अंग्रेजी पढ़ जाने के बाद गांव के जमींदार-साहूकार और बड़े से बड़े प्रतिष्ठित आदमी से भी साधारण किसान के बेटे की और हैसियत अधिक बढ़ जाएगी, यह प्रलोभन पद-दलित कुलीन किसानों को वश में करता जा रहा था। एक सज्जन ने अपने संस्मरण में मुझे यह सुनाया कि जब पिता की स्वीकृति पाकर वे आगरा के स्कूल में पढ़ने आए तो उस गांव के एक बहुत प्रतिष्ठित महाजन उनकी जाति के नेता ने उनके पिता को बुलाकर पूछा- 

क्यों जी केशवराम, (कोई भी नाम) तुम्हारा लड़का शहर में अंग्रेजी पढ़ता है ?

केशवराम विनयपूर्वक गिड़गिड़ाकर बोले- 

मुझे तो मालूम नहीं दाऊ, 

मुझसे तो मिलकर भी नहीं गया; अपनी मां से कह गया कि वह कुछ सीखने जा रहा है।

दाऊजी ने केशवराम जी को बहुत डांटा-फटकारा और मुंह चिढ़ाते हुए कहा- अंग्रेजी पढ़ाकर हाकिम बनाएगा, हमसे बराबरी करेगा ?

उन्होंने बहुत ऊंच-नीच समझाया। 

धर्म के आगे अंग्रेज सरकार के हाकिम को भी झुकना पड़ेगा, बिरादरी से निकाल दिए जाओगे, वगैरह। इन धमकियों के साथ केशवराम जी के पुत्र पढ़ते रहे और एक दिन छोटे-मोटे हाकिम बने।

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रचनाएँ
अमृत लाल नागर के प्रसिद्ध निबंध
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अमृत लाल नागर 1932 में निरंतर लेखन किया। अमृतलाल नागर हिन्दी के उन गिने-चुने मूर्धन्य लेखकों में हैं जिन्होंने जो कुछ लिखा है वह साहित्य की निधि बन गया है। सभी प्रचलित वादों से निर्लिप्त उनका कृतित्व और व्यक्तित्व कुछ अपनी ही प्रभा से ज्योतित है उन्होंने जीवन में गहरे पैठकर कुछ मोती निकाले हैं और उन्हें अपनी रचनाओं में बिखेर दिया है उपन्यासों की तरह उन्होंने कहानियाँ भी कम ही लिखी हैं उन्हें अपनी रचनाओं में प्रसिद्ध निबंध भी लिखें हैं |
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