shabd-logo

नये वर्ष के नये मनसूबे

25 जुलाई 2022

25 बार देखा गया 25

नये वर्ष में हमारा पहला विचार अपने लिए एक महल बनवाने का है। बीते वर्षों में हम हवाई किले बनाया करते थे, इस साल वह इरादा छोड़ दिया क्योंकि हवा बुरी हैं। इस साल दो आफतें एक साथ फरवरी महीने में आ रही हैं- एक तो अष्टग्रही योग*

यह लेख 1961 में लिखा गया था जब अष्टग्रही योग की बड़ी चर्चा थी।

और दूसरा एलेक्शन। इन दोनों ही का हुल्लड़ इतना है कि बहुत घबराकर, चचा ग़ालिब की उक्ति में थोड़ी-सी तरतीम कर हम बार-बार अपने हज़रते दिल से यही गुहार रहे हैं कि-

रहिए अब ऐसी जगह चलकर जहां हुल्लड न हो

वोट मंगना हो न कोई ज्योतिषी कोई न हो

वे दरी दीवार का इक घर बनाना चाहिए

जिसमें कि कुण्डी न हो और पोस्टर चस्पां न हो

-दुखी हो गए हैं साहब ! ठीक तरह से सवेरा भी नहीं हो पाता और दरवाजे की कुण्डी खटकने लगती है। खोलकर देखिए तो कोई न कोई पार्टी वाले खड़े होते हैं। इनकी सूरतें देखते ही हमें फौरन मीयादी बुखार चढ़ आता है। चुनाव के दिनों में ये लोग वोटरों से बोलते नहीं बल्कि हिनहिनाते हैं : 

‘हेंहेंहेंहें, हम आपकी सेवा में आए हैं। हेंहेंहेंहें हमारा चुनाव चिह्न चूल्हा है। महंगाई में आजकल घर-घर के चूल्हें ठंडे हैं। हम अपने उम्मीदवार को उन्हीं ठंडे चूल्हों को सुलगता लक्कड़ बनाना चाहते हैं। हेंहेंहेंहें आइए, हमारी मनोकामना पूरी कीजिए। हमारी लक्कड़ पार्टी को अपना कीमती वोट प्रदान कीजिए।’ 

लक्कड़ पार्टी के बाद फक्कड़ पार्टी के बाद कंकड़-पत्थर पार्टी और फिर पार्टी पर पार्टी के लोग आ-आकर इतनी बार कुण्डी खटखटाते हैं कि हमारे दरवाजे की

कुण्डी ढीली पड़ गई है, उसे तोड़ने के लिए चोरों को अब छैनी-हथोड़े की आवश्यकता नहीं पड़ेगी, महज एक झटका ही काफी है। यह तो कुण्डी की दशा है, अब तनिक घर की दीवारों का मुलाहिजा फरमाइए- ऊपर से नीचे तक सब पार्टियों के पोस्टर ही पोस्टर चिपके हुए हैं। पिछली दीवाली पर कर्ज लेकर हमने दीवाली की पुताई करवाई थी, वह कर्ज अभी चुका भी नहीं पाए और दीवारों की हालत यह है कि............क्या कहें। बाहर की दीवारे देख-देखकर हमें स्वयं अपने ही घर में घुसने को जी नहीं चाहता, या घर में होते हैं तो बाहर निकलकर उनकी दुर्दशा देखने का साहस नहीं होता। कहीं गेरू से लिखा गया है- 

‘फलाने जी को वोट दो।’ उस पर तारकोल से क्रास निशान बनाकर नीचे लिखा गया है- ‘ढिमाके जी को वोट दो।’

किसी ने ‘वोट’ शब्द के अक्षरों की प्रूफ-मिस्टेक सुधारकर उसे भद्दी गाली बनाकर मज़ा लूटा है। किसी ने किसी पोस्टर के ऊपर अपना पोस्टर चिपकाकर हमारी दीवाल पर कागज़ पलस्तर चढ़ाया है। किसी ने किसी का पोस्टर उखाड़ते हुए हमारी दीवाल की पपड़ियां उखाड़ डाली हैं। एलेक्शन वालों से प्रेरणा लेकर अष्टग्रही योग की आनेवाली प्रलय से घबराए हुए धर्मभीरुओं ने भी जगह-जगह लिख रक्खा है- 

‘‘पांच फरवरी को प्रलय होगी, उससे बचने के लिए हमारे राम नाम या कृष्ण नाम संकीर्तन मण्डल के सदस्य बनिए।’’

किसी ने लिखा है, 

‘‘अष्टग्रहों से सावधान ! अपनी जन्म-पत्री में मकर राशि का स्थान बिचरवाइए, असली ज्योतिष मारदण्ड पंडित नागनाथ जी से अपने अष्टग्रहों की शान्ति करवाइए। फीस गरीब अमीर के जन-कल्याणार्थ हमने बहुत कम रक्खी है, सवा रुपया जन्म कुण्डली दिखाई और सवा पांच रुपिया अष्ट्रग्रह शांति के लिये जाते हैं।’’ 

यह हाल और जग में हुल्लड़ इतना है कि हम शान्ति से बैठकर कुछ सोच या कर ही नहीं पाते। इसीलिए हमने ‘स्पेस’ में बे-दरो-दीवाल का एक ठगद ज्योतिषियों और नकली नेताओं से तो नजात मिलेगी।

हमारा दूसरा ठोस मनसूबा है कि इस नये वर्ष में हम अपनी सैकड़ों सदियों, पुरानी मातृभाषा का मुंह काला करके एक किराये की मादरी ज़बान को अपने घर में ला बिठाएंगे। ये मातृभाषा, साहब, बड़ी खतरनाक वस्तु है। इसमें हम जो कुछ भी कहते हैं, वह हमारी बे-पढ़ी-लिखी जनता तक समझ जाती है।

यह बात बहुत बुरी और राष्ट्र घाटक बात है। हम अपने राष्ट्रीय मनसूबों की बाबत महान-महान् बातें सोचें और वह भी अपनी देशी ज़बान में ? छि:छि:छि: ! हम अपने मनसूबों का इतना बड़ा अपमान करें ? नहीं, नहीं हरगिज़ नहीं। फिर हमारा शुमार पढ़े-लिखे बाबुओं में क्योंकर होगा, जाहिल किसान,, मजदूरों और लालालूली लोगों पर हमारे रौब का सिक्का क्यों कर जमेगा ? इसलिए हमारा दृढ़ मनसूबा है कि नये साल में अपनी मातृभाषा का त्याग का आदर्श उपस्थित करेंगे।

हमारा तीसरा मनसूबा बड़ा ही सांस्कृतिक है। हम अपने कमरे से नटराज बुद्ध और गांधी की मूर्तियां हटाकर उसे नये सिरे से सजाना चाहते हैं। हमारा विचार है कि चीनी किंवदन्ती के गांधी पोषित तीन उन पर लिखा होगा : 

‘‘बुरा देखो। बुरा बोलो। बुरा सुनो। बुरा करो।’’ 

हम एक सच्ची मिसाल देकर आपको इस नये ‘मॉटो’ (MOTT0) का सत्य साबित कर दिखलाएंगे। अभी हाल ही में एक उपन्यास-लेखक हमसे मिलने के लिए घर पधारे थे। इन्होंने लगभग दो ढाई सौ उपन्याय लिख, छाप और बेचकर अब तक लगभग चार-पांच लाख रुपया कमाया है। साहित्यिक दुनिया में इनका नाम कोई नहीं जानता, पर वे सफल और महान उपन्यासकार तो हैं ही। कहने लगे : 

‘‘हम आपको अपना गुरु उसी प्रकार मानते हैं जिस प्रकार एकलव्य द्रोणाचार्य को इसलिए मैं अब केवल बुरा ही बुरा देखता हूं। मैंने अमुक अमुक उपन्यास में एक बेचारी दीन-हीन सुन्दरी विधवा, दो बेचारी लोअर मिडिल क्लास की कालिज कन्याओं और एक बेचारी सुन्दरी स्टैवोग्राफर की दु:ख-दलितहीन दशा का नग्न सत्यवर्णन किया है।

एक चार सौ बीसिया सेठ अपने तीन कालेबाज़ारी सेठ मित्रों के साथ इन चारों रमणियों को चन्द चांदी के टुकड़ों के वास्ते पतित करता है। मैंने एमुक प्रगतिशील आलोचक को ललकार कर कहा कि देखो मैंने यह प्रगतिशाल चित्र अंकित किया है, तो वे बोले कि यह अश्लील चित्र है। मैंने भी उनकी शेखी का जवाब दे दिया। मैंने कहा, 

‘‘जिसे तुम अश्लील कहते हो उस किताब की मैंने छह महीने में अठारह हजार प्रतियां बेटी हैं। मैं अश्लीलता में समाज की बुराई ही देखी है। मैंने अपने समाज की अश्लीलता पर घोर प्रहार किया है। यही सच्ची प्रगतिशीलता है।’’ 

हमने कहा, 

‘‘सच है, आपको बुरा देखना फला- और सही अर्थ में आप प्रगतिशील भी बने क्योंकि कल तक प्रफरीडरी करके प्रेसों में चप्पलें चटकाते थे और आज बुरा देखने-दिखाने की बदौलत आपने स्वयं प्रेस-मालिक और मोटरशाली बनकर अपनी प्रगति की है। ‘‘

जब वो चले गए तब हम अपनी हालत पर गौर करने लगे। समाज का भला देखने और लेखक बनने के फेर में हमने कमाने की कौन कहे अपने बाप दादों की कमाई भी घर-खर्च को ‘डेफिसिट’ से बचाने में फूंक डाली। जग के भले के पीछे अपना और अपने बाल बच्चों का बुरा किया। लिहाजा क्या यें भला मनसूबा न होगा कि नये वर्ष में हम भी उन उपन्यास लेखक महोदय की तरह बुरा देखें, सुनें, बोलें और कहें ? चूंकि ये मनसूबा हमारा क्रांतिकारी है इसलिए सुनने वालों की नेक सलाह चाहते हैं। क्या बुरा है, हम सब अपने-अपने ही में सिमट जाएं, समाज को गोली मारें। अष्टग्रही योग के प्रताप से खंड-प्रलय आए या न आए मगर बुरा देखने, बोलने, सुनने और करने की तरकीब से दुनिया में महाप्रलय शर्तिया आ जाएगी, यह निश्चित है।

हमारे कुछ मनसूबे बड़े निजी किस्म के हैं- जैसे कि हमारा गरम कोट फट गया है। पिछले कई वर्षों के नये दिनों पर हमने ये मनसूबा साधा कि इस बार तो बनवा ही लेंगे पर न बनवा पाए। हाल की सर्दी में कांपते कलेजे से हम यही सोचते रहे कि इस नये साल में कोट अवश्य सिलवाएंगे। देखिए पूरा होता है या नहीं। आज सुबह से ही हम ये मनसूबा भी बांध रहे हैं, नये वर्ष के नये दिन पेट भरकर गाजर का हलुआ खाएं, मगर घरवाली नाक सिकोड़कर ताना मारती है कि घर में नहीं दाने और आप चले भुनाने ! भला ये लेखक का मुंह और गाजर का हलुआ!- ख़ैर, ये तो मनसूबा है और हम पहले ही अर्ज़ कर चुके कि मनसूबे केवल बांधे जाने के लिए ही होते हैं, पूरे करने के लिए नहीं।

16
रचनाएँ
अमृत लाल नागर के प्रसिद्ध निबंध
0.0
अमृत लाल नागर 1932 में निरंतर लेखन किया। अमृतलाल नागर हिन्दी के उन गिने-चुने मूर्धन्य लेखकों में हैं जिन्होंने जो कुछ लिखा है वह साहित्य की निधि बन गया है। सभी प्रचलित वादों से निर्लिप्त उनका कृतित्व और व्यक्तित्व कुछ अपनी ही प्रभा से ज्योतित है उन्होंने जीवन में गहरे पैठकर कुछ मोती निकाले हैं और उन्हें अपनी रचनाओं में बिखेर दिया है उपन्यासों की तरह उन्होंने कहानियाँ भी कम ही लिखी हैं उन्हें अपनी रचनाओं में प्रसिद्ध निबंध भी लिखें हैं |
1

जय बम्भोला

25 जुलाई 2022
11
1
0

शिवरात्रि के मेले की मौज-बहार लेने के लिए झोला कन्धे पर और सोटा हाथ में लिए हम भी मगन-मस्त चाल से दिग्गज के समान झूमते-झामते महादेवा के पावन क्षेत्र की ओर बढ़े चले जा रहे हैं। ये देखो, दसों दिशाओं से

2

जब बात बनाए न बनी !

25 जुलाई 2022
3
0
0

बड़े-बूढ़े कुछ झूठ नहीं कह गए हैं कि परदेश जाए तो ऐसे चौकन्ने रहें, जैसे बुढ़ापें में ब्याह करने वाला अपनी जवान जोरू से रहता है। हम चौकन्नेपन क्या, दसकन्नेपन की सिफारिश करते हैं, वरना ईश्वर न करे किसी

3

बुरे फंसे : बारात में

25 जुलाई 2022
5
0
0

फंसने-फंसाने के मामले में हमारा अब तक यह दृढ़ विश्वास रहा है कि लोग तो बदफेली में फंसते हैं, या राजनीति की गुटबंदियों में। इसीलिए मैं हमेशा ही इन दोनों चीजों से बचता रहा हूं। यह बात दूसरी है कि इस लतो

4

भतीजी की ससुराल में

25 जुलाई 2022
0
0
0

रायबरेली नहीं, बांसबरेली की बात कह रहा हूं-वहीं, जहां पागलखाना है, लकड़ी का काम होता है, जहां की पूड़ी और चाट मशहूर है, जहां एक बार मुशायरे में शामिल होने के लिए हज़रत ‘शौकत’ थानवी को थर्ड क्लास का टि

5

पडो़सिन की चिट्ठियां

25 जुलाई 2022
0
0
0

सावित्री सीने की मशीन खरीदने गई थी। लेकिन बड़ी देर हो गई। मैं उतावला होकर सोचने लगा कि अब तो उसे आ जाना चाहिए। तीन बजे हैं। पिछले बीस दिनों से, जब से सावित्री यहां आई है, हम पहली बार इतनी देर के लिए अ

6

मेरे आदिगुरु

25 जुलाई 2022
0
0
0

पुराने भारतीय गुरुओं के सम्बन्ध में बहुतों ने बहुत कुछ जो सुन रक्खा होगा उसका एक रूप बीसवीं सदी में रहते हुए भी हमने आंखों देखा है। बचपन में जो पण्डित जी हमको पढ़ाते थे, वे प्राचीन ऋषि गुरुओं की आत्मा

7

अतिशय अहम् में

25 जुलाई 2022
0
0
0

बात कुछ भी नहीं पर बात है अहम् की। आज से करीब पचास व साठ बरस पहले तक अहम् पर खुद्दारी दिखलाना बड़ी शान का काम समझा जाता था। रईस लोग आमतौर पर किसी के घर आया-जाया नहीं करते थे। बराबरी वालों के यहां भी ब

8

तीतर, बटेर और बुलबुल लड़ाना

25 जुलाई 2022
0
0
0

यह मुमकिन है कि शान्ति के कबूतर उड़ाते-उड़ाते हम एटम हाइड्रोडन मिज़ाइल किस्म के भयानक हथियारों और आस्मानी और दर आस्मानी करिश्मों के औजारों की लड़ाई बन्द कराने में सफल हो जाएं, मगर यह कि लड़ाई का चलन ह

9

मिट्टी का तेल और नल क्रान्ति

25 जुलाई 2022
1
0
0

आर्यसमाज और अखबारों की छत्र-छाया में बाल-विवाह भले ही न रुके हों अथवा विधवा-विवाह भले ही न हुए हों, परन्तु छोटी-मोटी क्रान्तियाँ अवश्य हुई। उनमें अंग्रेजी दवाओं, मिट्टी के तेल और पानी के नल का उपयोग ब

10

जी-हुजूर क्रान्ति

25 जुलाई 2022
0
0
0

गदर से लगभग 15 वर्ष बाद ही अंग्रेजी पढ़े-लिखों की बिरादरी काफी बढ़ गई थी। मिडिल और स्कूल लीविंग सर्टिफिकेट ही नहीं, कुछ लोग तो बी.ए. और एम.ए. तक भी ढैया छूने लगे थे। अंग्रेजी के सर्टिफिकेट बटोरना और

11

अंग्रेज़ी-पठन क्रान्ति

25 जुलाई 2022
0
0
0

बाबुओं में सबसे पहली क्रान्ति यही थी। शहरों में विलायती में ईसाई भिक्षुणियों के रूप में बड़े-बड़े घरों में आती थीं। साहब-शासन की पुरतानियों (पुरोहितानियों) को यद्यपि कोई अपने घर में न आने के लिए तो क

12

बाबू पुराण

25 जुलाई 2022
1
0
0

(यह निबंध स्वाधीनता-प्राप्ति से पूर्व लिखा गया था और ‘हंस’ में प्रकाशित हुआ था।) परम सुहावन महा-फलदायक इस बाबू को पढ़ते-सुनते आज के युग में कोई सूत, शौनक, काकभुशुंडि या लोहमर्षक यदि यह पूछ बैठे कि अद

13

नये वर्ष के नये मनसूबे

25 जुलाई 2022
0
0
0

नये वर्ष में हमारा पहला विचार अपने लिए एक महल बनवाने का है। बीते वर्षों में हम हवाई किले बनाया करते थे, इस साल वह इरादा छोड़ दिया क्योंकि हवा बुरी हैं। इस साल दो आफतें एक साथ फरवरी महीने में आ रही हैं

14

कवि का साथ

25 जुलाई 2022
0
0
0

आपने भी बड़े-बूढ़ों को अक्सर यह कहते शायद सुना होगा कि हमारे पुरखे कुछ यूं ही मूरख नहीं थे जो बिना सोचे-विचारे कोई बात कह गए हो या किसी तरह का चलन चला गए हों। हम तो खैर अभी बड़े-बूढ़े नहीं हुए, मगर अन

15

मैं ही हूँ

25 जुलाई 2022
1
0
0

मैं- वाह रे मैं, वाह। मैं तो बस मैं ही हूं- मेरे मुकाबले में भला तू क्या है ! इस मैं और तू को लेकर हमारे सन्तों और बुधजनों ने शब्दों की खासी खाल-खिंचाई भी की है। कबीर साहब का एक दोहा है कि ‘‘जब मैं थ

16

कृपया दाये चलिए

25 जुलाई 2022
2
0
0

कहते तो आप ठीक ही हैं पंडित जी, मगर मध्यवधि चुनाव के अभी चार-पांच महीने पड़े हैं, आप तत्काल की बात सोचिए। कार्पोरेशन में किसी बड़े अफसर को फोन-वोन करके ये गंदगी ठीक करवाइए जल्दी से, अंदर से मैनहोल उभर

---

किताब पढ़िए