कभी - कभी देखती हूं हाथों के लकीरों को ।
क्या लिखा है इसमें,
ना सुबह की चैन
ना शाम को आराम लिखा है ।
बस चलते रहना ही हमारा काम लिखा है ।
वक्त को बदलते देखा है हमने
अक्सर परिस्थितियां भी बदल जाया करती है ।
कभी मैं घर की छोटी नन्ही परी हुआ करती थी ।
वक्त के साथ आज घर के रोटी हुआ करती हूं ।
जिम्मेदारी तले इतनी दबी जा रही हूं ।
खुद का न खयाल है ।
एक आशियाना बनाने में मेरा सारा जीवन बेहाल है
खुद के बारे में कभी जब सोचती हूं ।
ख्याल मन में आता है
एक चिड़िया परिंदा सा उड़ता हुआ आसमान में नजर आता है ।
वह परिंदा जिसे ना गिरने का डर ना ऊंचाइयों का भय ।
बस जैसे कि दाना चुनना ही उसका काम है ।
हां यह सच है कि वह सैर पुरा आसमा का करती है ।
कुछ हासिल ना हो सही पर तजुर्बा सबसे बड़ी रखती है ।
अपनी खुशी छोड़कर
जंग के मैदान में दौड़ पड़ती हुं ।
जितनी जिम्मेदारी ली हूं ।
उसे पूरा करने की भरसक प्रयास करती हूं। ।
बस अपनों का प्यार और साथ चाहती हूं ।
चाहे जितनी भी हो मुश्किल सबका हौसले बुलंद रखती हूं ।