हम इन्सानों की अजीब कहानी है दस कदम चले नहीं कि बस दोराहें आनी हैं एक राह अपनानी है तो दूजी छूट जानी है जिस राह को चुन चल पड़े वो लगती नहीं सुहानी है जो राह छूट गयी है बस उसपे पछतानी है
अकेले हो तो क्या व्याकुल नजरों से पंथ न निहारो तुम मन की उलझनों से एक पल तो निकालो तुम पलटकर भूतकाल में जरा नजर डालो तुम पहले भी अकेले ही चले थे ये दोनों
आज शाम मिली फुरसत मुझको अकेले में पर पड़ गई फिर उसी चिन्तन के झमेले में उस दिन ये जो हुआ तो क्यों हुआ काश वो होता तो कितना अच्छा होता उस सोच की सोच में घंटों लगा दिये शुकून से जो पल बिता