भारतीय पत्रकारिता के बुझते हुए पुंज में बचे कुछ अंतिम उजालों में से एक थे "कमाल ख़ान" कमाल की सादगी, कमाल की तहज़ीब, कमाल की लखनवी ज़बान और कमाल का अंदाज़... सच में कमाल कमाल के ही थे। पत्रकारिता से लुप्तप्राय रिपोर्टिंग के लिए कमाल ख़ान जैसे पत्रकार वेंटिलेटर का काम कर हैं/थे। कमाल ख़ान को जब आप रिपोर्टिंग करते देखेंगे तो उनकी आवाज़ के उतार चढ़ाव से ही आप उस ख़बर की गंभीरता का सही सही अंदाज़ा लगा सकते हैं। पक्ष-विपक्ष दोनों लिए कमाल उसी आवाज़ का उपयोग करते थे। ना पक्ष की बात कहते हुए उनकी आवाज़ की पिच कभी बदली ना विपक्ष की बात कहते हुए। कमाल इतनी सादगी और मजबूती से अपनी बात कह जाते थे कि बोले गए सच को झुठलाने से पहले किसी को भी पसीने छूट जाएं। राजनीति की खबरें इतनी खरे अंदाज़ में कहने के बाद भी राजनीतिक गलियारों में उनके बहुत चाहने वाले थे। कमाल का शब्द चयन उनका मानक था। सही जगह सही शब्दों का प्रयोग उनकी पत्रकारिता की पहचान थे। एक एक शब्द को चबा कर बोलने का उनका अंदाज़ उनकी रिपोर्टिंग में जान फूंक देता था। भाषा की संयमता और एकरूपता साथ ही हिंदी और उर्दू का बेहतरीन समावेश कमाल खान जी की रिपोर्टिंग में हमेशा सुनने को मिलता था साथ ही भाषा में काव्यात्मकता झलकती थी। कमाल का यूं चले जाना इस मरती हुई पत्रकारिता का थोड़ा और मर जाना है। 🙏