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कथा

hindi articles, stories and books related to katha


पूरी स्पीड में है ट्राम खाती है दचके पै दचके सटता है बदन से बदन पसीने से लथपथ । छूती है निगाहों को कत्थई दांतों की मोटी मुस्कान बेतरतीब मूँछों की थिरकन सच सच बतलाओ घिन तो नहीं आती है? जी तो न

जी हाँ, लिख रहा हूँ ... बहुत कुछ ! बहोत बहोत !! ढेर ढेर सा लिख रहा हूँ ! मगर , आप उसे पढ़ नहीं पाओगे ... देख नहीं सकोगे उसे आप ! दरअसल बात यह है कि इन दिनों अपनी लिखावट आप भी मैं कहॉ पढ़ पात

क्या नहीं है इन घुच्ची आँखों में इन शातिर निगाहों में मुझे तो बहुत कुछ प्रतिफलित लग रहा है! नफरत की धधकती भट्टियाँ... प्यार का अनूठा रसायन... अपूर्व विक्षोभ... जिज्ञासा की बाल-सुलभ ताजगी... ठ

ॐ श‌ब्द ही ब्रह्म है.. ॐ श‌ब्द्, और श‌ब्द, और श‌ब्द, और श‌ब्द ॐ प्रण‌व‌, ॐ नाद, ॐ मुद्रायें ॐ व‌क्तव्य‌, ॐ उद‌गार्, ॐ घोष‌णाएं ॐ भाष‌ण‌... ॐ प्रव‌च‌न‌... ॐ हुंकार, ॐ फ‌टकार्, ॐ शीत्कार ॐ फुस‌फु

आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी, यही हुई है राय जवाहरलाल की रफ़ू करेंगे फटे-पुराने जाल की यही हुई है राय जवाहरलाल की आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी! आओ शाही बैण्ड बजायें, आओ बन्दनवार सजायें, खुशियों में

सीता हुई भूमिगत, सखी बनी सूपन खा बचन बिसर गए गए देर के सबेर के ! बन गया साहूकार लंकापति विभीषण पा गए अभयदान शावक कुबेर के ! जी उठा दसकंधर, स्तब्ध हुए मुनिगण हावी हुआ स्वर्थामरिग कंधों पर शेर के !

'स्वेत-स्याम-रतनार' अँखिया निहार के सिण्डकेटी प्रभुओं की पग-धूर झार के लौटे हैं दिल्ली से कल टिकट मार के खिले हैं दाँत ज्यों दाने अनार के आए दिन बहार के ! बन गया निजी काम- दिलाएंगे और अन्न दान

बापू के भी ताऊ निकले तीनों बन्दर बापू के! सरल सूत्र उलझाऊ निकले तीनों बन्दर बापू के! सचमुच जीवनदानी निकले तीनों बन्दर बापू के! ग्यानी निकले, ध्यानी निकले तीनों बन्दर बापू के! जल-थल-गगन-बिहारी निकल

सीधे-सादे शब्द हैं, भाव बडे ही गूढ़ अन्न-पचीसी घोख ले, अर्थ जान ले मूढ़ कबिरा खड़ा बाज़ार में, लिया लुकाठी हाथ बन्दा क्या घबरायेगा, जनता देगी साथ छीन सके तो छीन ले, लूट सके तो लूट मिल सकती कै

खुब गए दूधिया निगाहों में फटी बिवाइयोंवाले खुरदरे पैर धँस गए कुसुम-कोमल मन में गुट्ठल घट्ठोंवाले कुलिश-कठोर पैर दे रहे थे गति रबड़-विहीन ठूँठ पैडलों को चला रहे थे एक नहीं, दो नहीं, तीन-ती

फूले कदंब टहनी-टहनी में कन्दुक सम झूले कदंब फूले कदंब सावन बीता बादल का कोप नहीं रीता जाने कब से वो बरस रहा ललचाई आंखों से नाहक जाने कब से तू तरस रहा मन कहता है छू ले कदंब फूले कदंब झूले कदं

नभ में चौकडियाँ भरें भले शिशु घन-कुरंग खिलवाड़ देर तक करें भले शिशु घन-कुरंग लो, आपस में गुथ गए खूब शिशु घन-कुरंग लो, घटा जल में गए डूब शिशु घन-कुरंग लो, बूंदें पडने लगीं, वाह शिशु घन-कुरंग

धिन-धिन-धा धमक-धमक मेघ बजे दामिनि यह गयी दमक मेघ बजे दादुर का कण्ठ खुला मेघ बजे धरती का ह्र्दय धुला मेघ बजे पंक बना हरिचंदन मेघ बजे हल्का है अभिनन्दन मेघ बजे धिन-धिन-धा... १९६४ में लि

पाँच पूत भारतमाता के, दुश्मन था खूँखार गोली खाकर एक मर गया, बाक़ी रह गए चार चार पूत भारतमाता के, चारों चतुर-प्रवीन देश-निकाला मिला एक को, बाक़ी रह गए तीन तीन पूत भारतमाता के, लड़ने लग गए वो अ

अमल धवल गिरि के शिखरों पर, बादल को घिरते देखा है। छोटे-छोटे मोती जैसे उसके शीतल तुहिन कणों को, मानसरोवर के उन स्वर्णिम कमलों पर गिरते देखा है, बादल को घिरते देखा है। तुंग हिमालय के कंधों पर

सत्य को लकवा मार गया है वह लंबे काठ की तरह पड़ा रहता है सारा दिन, सारी रात वह फटी–फटी आँखों से टुकुर–टुकुर ताकता रहता है सारा दिन, सारी रात कोई भी सामने से आए–जाए सत्य की सूनी निगाहों में जरा भी

गीली भादों रैन अमावस कैसे ये नीलम उजास के अच्छत छींट रहे जंगल में कितना अद्भुत योगदान है इनका भी वर्षा–मंगल में लगता है ये ही जीतेंगे शक्ति प्रदर्शन के दंगल में लाख–लाख हैं, सौ हजार हैं कौन

1 यहीं धुआँ मैं ढूँढ़ रहा था यही आग मैं खोज रहा था यही गंध थी मुझे चाहिए बारूदी छर्रें की खुशबू! ठहरो–ठहरो इन नथनों में इसको भर लूँ... बारूदी छर्रें की खुशबू! भोजपुरी माटी सोंधी हैं, इसका यह

बातें– हँसी में धुली हुईं सौजन्य चंदन में बसी हुई बातें– चितवन में घुली हुईं व्यंग्य-बंधन में कसी हुईं बातें– उसाँस में झुलसीं रोष की आँच में तली हुईं बातें– चुहल में हुलसीं नेह–साँचे में ढ

क्रान्ति सुगबुगाई है करवट बदली है क्रान्ति ने मगर वह अभी भी उसी तरह लेटी है एक बार इस ओर देखकर उसने फिर से फेर लिया है अपना मुँह उसी ओर ’सम्पूर्ण क्रान्ति’ और ’समग्र विप्लव’ के मंजु घोष उसके का

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