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कथा

hindi articles, stories and books related to katha


दो हज़ार मन गेहूँ आया दस गाँवों के नाम राधे चक्कर लगा काटने, सुबह हो गई शाम सौदा पटा बड़ी मुश्किल से, पिघले नेताराम पूजा पाकर साध गये चुप्पी हाकिम-हुक्काम भारत-सेवक जी को था अपनी सेवा से काम

समुद्र के तट पर सीपी की पीठ पर तरंगित रेखाओं की बहुरंगी अल्पना, हलकी! ऊपर औंधा आकाश निविड़ नील! नीचे श्याम सलिल वारुणी सृष्टि! सबकुछ भूल तिरोहित कर सभी कुछ – अवचेतन मध्य खड़े रहेंगे मनुपुत्र

रमा लो मांग में सिन्दूरी छलना... फिर बेटी विज्ञापन लेने निकलना... तुम्हारी चाची को यह गुर कहाँ था मालूम! हाथ न हुए पीले विधि विहित पत्नी किसी की हो न सकीं चौरंगी के पीछे वो जो होटल है और उस हो

"वो इधर से निकला उधर चला गया" वो आँखें फैलाकर बतला रहा था- "हाँ बाबा, बाघ आया उस रात, आप रात को बाहर न निकलो! जाने कब बाघ फिर से बाहर निकल जाए!" "हाँ वो ही, वो ही जो उस झरने के पास रहता है वह

अपने खेत में.... जनवरी का प्रथम सप्ताह खुशग़वार दुपहरी धूप में... इत्मीनान से बैठा हूँ..... अपने खेत में हल चला रहा हूँ इन दिनों बुआई चल रही है इर्द-गिर्द की घटनाएँ ही मेरे लिए बीज जुटाती ह

एक की नहीं, दो की नहीं, ढेर सारी नदियों के पानी का जादू: एक के नहीं, दो के नहीं, लाख-लाख कोटि-कोटि हाथों के स्पर्श की गरिमा: एक की नहीं, दो की नहीं, हज़ार-हज़ार खेतों की मिट्टी का गुण धर्म:

तुम्हारी यह दंतुरित मुस्कान मृतक में भी डाल देगी जान धूली-धूसर तुम्हारे ये गात... छोड़कर तालाब मेरी झोंपड़ी में खिल रहे जलजात परस पाकर तुम्हारी ही प्राण, पिघलकर जल बन गया होगा कठिन पाषाण छू गया

'गीतों के जादूगर का मैं छंदों से तर्पण करता हूँ ।' सच बतलाऊँ तुम प्रतिभा के ज्योतिपुत्र थे,छाया क्या थी, भली-भाँति देखा था मैंने, दिल ही दिल थे, काया क्या थी । जहाँ कहीं भी अंतर्मन से, ॠतुओं की

मानसून उतरा है जहरी खाल की पहाड़ियों पर बादल भिगो गए रातोंरात सलेटी छतों के कच्चे-पक्के घरों को प्रमुदित हैं गिरिजन सोंधी भाप छोड़ रहे हैं सीढ़ियों की ज्यामितिक आकॄतियों में फैले हुए खेत

जाने, किधर से चुपचाप आकर हाथी सामने लेट गए हैं, जाने किधर से चुपचाप आकर हाथी सामने बैठ गए हैं ! पहाड़ों-जैसे अति विशाल आयतनोंवाले पाँच-सात हाथी सामने--बिल्कुल निकट जम गए हैं इनका परिमण्डल

वो गया वो गया बिल्कुल ही चला गया पहाड़ की ओट में लाल-लाल गोला सूरज का शायद सुबह-सुबह दीख जाए पूरब में शायद कोहरे में न भी दीखे ! फ़िलहाल वो डूबता-डूबता दीख गया ! दिनान्त का आरक्त भास्कर ज

सोनिया समन्दर सामने लहराता है जहाँ तक नज़र जाती है, सोनिया समन्दर ! बिछा है मैदान में सोन ही सोना सोना ही सोना सोना ही सोना गेहूँ की पकी फसलें तैयार हैं-- बुला रही हैं खेतिहरों को ..."

शोक विह्वल लालू साहू आपनी पत्नी की चिता में कूद गया लाख मना किया लोगों ने लाख-लाख मिन्नतें कीं अनुरोध किया लाख-लाख लालू ने एक न सुनी... 63 वर्षीय लालू 60 वर्षीया पत्नी की चिता में अपने को डालक

सुबह-सुबह तालाब के दो फेरे लगाए सुबह-सुबह रात्रि शेष की भीगी दूबों पर नंगे पाँव चहलकदमी की सुबह-सुबह हाथ-पैर ठिठुरे, सुन्न हुए माघ की कड़ी सर्दी के मारे सुबह-सुबह अधसूखी पतइयों का कौड़ा

कर गई चाक तिमिर का सीना जोत की फाँक यह तुम थीं सिकुड़ गई रग-रग झुलस गया अंग-अंग बनाकर ठूँठ छोड़ गया पतझार उलंग असगुन-सा खड़ा रहा कचनार अचानक उमगी डालों की सन्धि में छरहरी टहनी पोर-पोर में

कर गई चाक तिमिर का सीना जोत की फाँक यह तुम थीं सिकुड़ गई रग-रग झुलस गया अंग-अंग बनाकर ठूँठ छोड़ गया पतझार उलंग असगुन-सा खड़ा रहा कचनार अचानक उमगी डालों की सन्धि में छरहरी टहनी पोर-पोर में

झुकी पीठ को मिला किसी हथेली का स्पर्श तन गई रीढ़ महसूस हुई कन्धों को पीछे से, किसी नाक की सहज उष्ण निराकुल साँसें तन गई रीढ़ कौंधी कहीं चितवन रंग गए कहीं किसी के होठ निगाहों के ज़रिये जाद

कालिदास! सच-सच बतलाना इन्दुमती के मृत्युशोक से अज रोया या तुम रोये थे? कालिदास! सच-सच बतलाना! शिवजी की तीसरी आँख से निकली हुई महाज्वाला में घृत-मिश्रित सूखी समिधा-सम कामदेव जब भस्म हो गया रत

गोर्की मखीम! श्रमशील जागरूक जग के पक्षधर असीम! घुल चुकी है तुम्हारी आशीष एशियाई माहौल में दहक उठा है तभी तो इस तरह वियतनाम । अग्रज, तुम्हारी सौवीं वर्षगांठ पर करता है भारतीय जनकवि तुमको प्रणाम ।

अभी कल तक गालियॉं देती तुम्‍हें हताश खेतिहर, अभी कल तक धूल में नहाते थे गोरैयों के झुंड, अभी कल तक पथराई हुई थी धनहर खेतों की माटी, अभी कल तक धरती की कोख में दुबके पेड़ थे मेंढक, अभी कल तक

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