फिर नूतन अभिलाषा के अंगराग।
लेपित कर लूं तन पर, मन पर।
पथ पर चकित नहीं होऊँ, क्षणिक ।
आडंबर से, स्वभावगत जीवन के।
मन में मैं मुसकाऊँ, कोई गीत बनाऊँ।
पथ पर पथिक हूं, अभी दूर तक जाऊँ।।
अभिलाषा नव नूतन, अंगराग बन लिपटे।
चुनकर ले आऊँ सीपों से निर्मल मोती।
चमक छिपाये हो, कोटी प्रभा सी ज्योति।
तन-मन से श्रम कर लूं, गिरमल हार बनाऊँ।
जीवन पथ पर अनंत प्रभा, सिर से भार हटाऊँ।
बन कर पथ का पथिक, अपने कर्तव्य निभाऊँ।।
मन बिहंस उठे, हृदय कुंज में राग छेर दूं।
दूर-दूर तक निर्मल पथ, कंकर चुन-चुन फेंकूँ।
पथ पर पथिक, आते-जाते हुए काफिला देखूं।
धूमिल न हो भाव मेरे, प्रण हृदय कुंज में टेकूं।
अतिशय की आशा छोड़ूं, व्यर्थ न बात बढाऊँ।
अंधकार पथ के भेद दूं, आगे ही कदम बढाऊँ।।
क्षणिक भ्रम का साम्राज्य, भयभीत न होऊँ।
जीवन के लिखित नियमों से, धैर्य न अपने खोऊँ।
पथ पर सपने भी है, सचेत हूं कहीं नहीं सोऊँ।
दुविधा की गठरी का भार अधिक, मैं नहीं ढोऊँ।
मन-मानव हूं, मानव के पथ का पुनीत धर्म निभाऊँ।
पथ पर संशय भी है, अपने अर्जित ज्ञान बचाऊँ।।
यह नवीन अभिलाषा, जीवन के उपबंधो को मानूँ।
पथ पर हूं पथिक, जीवन के निर्धारित नियम भी जानूं।
अधिक की आशाओं को त्यागित कर भी दूं।
मानव हूं कर सकता हूं, जो अभिजित हृदय में ठानूं।
गर्वित होकर भी अहंकार से कहीं दूर हो जाऊँ।
पथ का नियम है लिखित लेख, मैं पन्ने पलटाऊँ।।