" तुम एक ही हफ्ते भर में चार दिन भूखी रह जाओगी, तो शरीर में ना मांस बचेगी ना खून " ,
हमेशा की तरह फिर से पिता जी ने भृकुटि को सिकोड़कर अपने पौरुषेय शैली में मां पर गुस्सा निकालना शुरु किया.
"अगर दिन रात मैं खट कर तुम लोगों को मन पसंद खाना खिला सकती हूं, घर का सारा काम खुशी खुशी कर सकती हूं. तो व्रत रखने भर से मैं कमज़ोर नहीं हो जाऊंगी"
अब ये वाला कथन आर्त्त भाव से सदैव अभिनव व्रत विधियों के प्रति समर्पित और सप्ताह का कोई नया दिन किसी ईष्ट देव को अर्पित करने में तत्पर मेरी माता जी के थे.
दोनो में एक लम्बी नोकझोंक चल रही थी.
उधर से एक चिकित्सक सदृश परामर्श देते रहे कि व्रत अधिक रहोगी तो रक्तचाप इधर उधर हो जाएगा.
कमजोरी आ सकती है, चकरा के गिर सकती हो आदि आदि, और दूजी भक्ति की महिमा बतातीं...
पर हां, जितना सहज ये सुनने में लग रहा उतना है नहीं.
जब ये दोनो आपस में झगड़ते हैं तो मेरी स्थिति एक खरगोश सी हो जाती है.
यद्यपि मैं खरगोश जैसा सुंदर और आकर्षक नहीं, पर मेरा व्यवहार उसके जैसा हो जाता.
मैं टुकुर टुकुर इन दोनो को देखता हूं, एक दो बार हस्तक्षेप करना चाहा.
पर इतने में दोनो हाथ उठाकर फिल्मी अंदाज़ में बोल पड़ते, " बच्चे हो बच्चे रहो " .
मैं चुप भी रहा, शायद अपनी इसी कहानी की पृष्ठभूमि तैयार कर रहा था. इस बार दोनो की लड़ाई हुई थी पूर्णिमा के दिन.. महीना था ज्येष्ठ का.
चूंकि ज्येष्ठ महीने में गला ज्यादा सूखता है , और शरीर में जल की पर्याप्त मात्रा बनाए रखने हेतु जल का सेवन अधिक करना एक जानी मानी सलाह होती है.
पर मां ज्येष्ठ में पूरे दिन पानी की एक बूंद बिना रह गई थी. ना तो हमारा निवास स्थान किसी मरुस्थलीय पारिस्थितिकीय तंत्र में है, ना ही जल की शुद्धता का पैमाना गिरा हुआ है.
तो फिर ऐसा क्या था कि पानी पिए बिना पूरा दिन रह गई ? असल में माता जी ने नया व्रत ढूंढ निकाला था : पूर्णिमा व्रत.
जब एक बार मैं सातवीं में था और किसी पूर्वजन्म के कर्मों और मेरे प्रारब्ध के कारण मैं बीमार हुआ.
तो मेरी हालत दिन दिन गलते पौधे सी हो गई थी .
( ध्यान रहे मैं यहां किसी पारलौकिक शक्ति के प्रभाव से हुए चमत्कार का प्रदर्शन नहीं करना चाहता, यह महज मेरा अनुभव है)
मैं केवल बीमार थोड़े ही था मैंने घर की धन दौलत, जमा पूंजी, पिता जी का परिश्रम सबको चूस लेना चाहा था.
फैजाबाद में स्थित कोई चिकित्सक नहीं बचा जहां पिता जी मुझे लेकर भागे ना हों, मैंने और मेरी बीमारी ने मानो मन बना लिया था कि अभी और दौड़ाना है...
यह याद करके आज भी कलेजा भर आता है, जब खड़ी दोपहरिया में बजाज स्कूटर पर मैं दोनो के साथ पूरा शहर घूम आता था. कितने चिकित्सकों ने तो यहां तक कह दिया कि ये नाटक करता है....
जब ई सी जी, अल्ट्रासाउंड, और खून की ना जाने कितनी जांच होने के बाद भी मर्ज निकले ही ना, तो यह कहना इतना अस्वाभाविक भी नहीं था. अब बात चल पड़ी थी कि लखनऊ और इलाहाबाद के बड़े डाॅक्टर्स से परामर्श लिया जाए.
इलाहाबाद मेडिकल काॅलेज के बड़े पद पर तैनात डाॅ चौहान से नाना श्री ने सम्पर्क साधा, तो एक डेट तय हुई.
मैं वहां भी पहुंच गया...मुझे लेकर पिता जी ही इलाहाबाद आए थे , वहां श्रीमान डाॅ. ने सी टी स्कैन करने को बोला...
पहली बार मैं इस नई मुसीबत से भी दो चार होने जा रहा था.अब तक मुझे इतनी सुई लग चुकी थी कि मुझे आदत सी हो गई थी.
मैं भले ही सातवीं में था पर पहले सुई लगने भर से रो देता था, अब तो सुई भी मुझे नहीं डराती थी.
बस अगर माता जी बगल खड़ी रहतीं तो उनकी नम आंखें देखकर मैं भी रोने लगता... पर क्यों ?
ये मुझे भी नहीं पता.
जब मैं सी टी स्कैन कराने पहुंचा तो मेरे हाथ में एक सुई लगाई गई, फिर उसमें एक लम्बी पाइप सा कुछ लटक रहा था..
मेरे हाथ और पैर कुछ रबड़ सा पट्टा लपेट कर स्थिर कर दिया, और सर के पास गद्दे सा लगाकर मुंडी भी ऐसी कर दी गई कि हिल नहीं सकती थी.
फिर सामने सफेद सुरंग सी बड़ी सी आकृति थी, उसमें बटन दबाते ही मैं घुसने लगा..
माता जी तो घर पर थीं, उनकी बहुत याद आ रही थी...
मैंने रोने लगा तो डाॅक्टर ने कहा ,कुछ नहीं होगा.
जब वहां से सबकुछ निपट कर रिपोर्ट आई तो मैं बिल्कुल ठीक था, डाॅक्टर ने कहा ये तो बिल्कुल चंगा है.
फिर भी मैं अभी भी सही नहीं हुआ था, जब सारी कसर पूरी कर ली गई तो मैं वापस घर आया.
अब एक अस्त्र बाकी था जो चल सकता था...
वह था मां का ' भक्ति अस्त्र ' .
एक रोज जब मैंने पूरे दिन आंख नहीं खोली, कुछ नहीं खाया था. तो मां ने घर के मंदिर की सभी प्रतिमाओं से मुंह मोड़ने की ठान ली.
कह दिया कि ठीक करना है या नहीं, सब तुम जानो... मंदिर की ओर देखकर , भरी आंखों के साथ ये सब बोला.
( आपको ये बड़ा फिल्मी या ड्रामैटिक लग सकता है, सही भी है... पर यह बहुत सामान्य था)
मां ने उस दिन मंदिर पर पर्दा डाल दिया, तो शाम तक खुला नहीं. किसी ने कहा दवा के साथ दुआ करके देखो..
ये अंतिम विकल्प था ही, मां की व्रत में रुचि और नवोन्मेषी सोच ने एक नये व्रत को तलाश लिया था...
वही : पूर्णिमा व्रत,
मां ने प्रतिज्ञा की कि तबियत सामान्य हो जाए तो मैं यह निर्जला व्रत करूंगी.... और करती रहुंगी.
इसी बीच कुछ आयुर्वेद और होम्योपैथी दवाएं भी प्रयोग की गई , ग्रह दशा शांत कराने के कई यज्ञ कराए..
श्री महामृत्यंजय मंत्र जाप, रुद्राभिषेक भी कराया गया... मन्नतों की बौछार हो गई .
कई रिश्तेदारों ने बाला जी , वैष्णों देवी की यात्रा का संकल्प करा दिया...
कुछ ने अलग अलग मंदिरों में चढ़ावा चढ़ाने, दर्शन कराने का संकल्प किया.
मां का पूर्णिमा संकल्प था ही...
मैं अब ठीक हो रहा था.. मां ने संकल्प यह भी लिया था कि हर महीने की पूर्णिमा पर श्री सत्यनारायण भगवान की कथा भी होगी..
शुरु हुआ एक नये व्रत का सिलसिला , हर महीने पंडित जी आते, मां एक दिन पहले से समान मंगवाती और हर पूर्णिमा को
इति श्री स्कंदपुराणे रेवाखंडे सत्यनारायणव्रत कथायां .....
पूरे एक साल तक 12 कथा हुई, फिर अंतिम बार बारह आचार्यों को विधिवत् भोजन करा कर पूर्णाहुति दी गई.
पर पुर्णिमा व्रत रुका नहीं..
जब एक साल पूरे हो गए तो घर पर अब पंडित जी की जगह मैंने कथा कराना शुरु किया...
पूरी पोथी, नियम के साथ ,
कुछ त्रुटियां हुई पर सीख गया.
फिर पूरे तीन साल तक मैंने घर पर माता जी को कथा सुनाया हर महीने...
आज भी मां का व्रत चल रहा है, करीब नौ साल हो गए..
मां के व्रत ने मुझे जीवनदान दिया या नहीं ये तो नहीं जानता.
पर सकारात्मकता का पुंज दिया है,
ना बुझने वाली आशा की लौ दी है, बहुत कठोर विश्वास दिया है.
बहुत कुछ दिया है..
मेरी कहानी " मां का व्रत " का यह दूसरा अंश है, आप सभी की प्रतिक्रियाओं, टिप्पणियों, त्रुटि सुधार, आलोचनाओं का स्वागत है. सब मेरे लिए पुट निवेश का कार्य करती हैं)
आपका #बड़का_लेखक