" मैं कवि हूँ सरयू तट का"
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मैं
कवि हूँ
सरयू तट का
समय
चक्र के उलट पलट का
मानव
मर्यादा की खातिर
सिर्फ अयोध्या खडी हुई ।
चक्र -कुचक्र चला कुछ ऐसा
विश्व की ऑखें गडी हुई।
जबकि सच है मेरी अयोध्या
जाने हाल ;हर घट पनघट का।।
पला-
बढ़ा
श्रीराम चरण मैं
प्रतिपल मैं भी राहता रण में
भीतर – बाहर किसके क्या है
जान लेता हूँ क्षण मेँ
झटका खा लेता हूँ लेकिन
किसी को नहीं देता झटका
समय
चक्र के उलट पलट का
मैं
कवि हूँ
सरयू तट का ||
संत ऋषियों की हत्या ने
अंत लिख दिया था रावण का
समझा के शिव, उस पर कुपित हुए
जग गया भाग्य, विभीषण का
उसी की जीत सदा होती है
जो है धैर्य और जीवट का
समय
चक्र के उलट पलट का
मैं
कवि हूँ
सरयू तट का ||
राम : लक्ष्मण – भरत-शत्रुघ्न
सदा से पूजित रहे हमारे
इन्हीं के यश से चमक रहे हैं
गृह – नक्षत्र औ नभ के तारे
श्र्द्धा और समर्पण मेँ बस
करता नमन मैं केवट का
समय
चक्र के उलट पलट का
मैं
कवि हूँ
सरयू तट का ||
रावण,
राज्य विभीषण चला
श्रीराम
जी, चरण गहा
राम
राज कैकेई रहकर
वह
निज स्वभाव में पली
खल कर
राजा दसरथ से
श्रीराम
को जंगल मढी।
समय
चक्र के उलट पलट का
मैं
कवि हूँ
सरयू तट का ||
माना
सच हर घट-घट का
शंका
में खुला अट-पट था
खोट
आ पडी रिस्ते में
दावानल
दहका निज का।
चक्र
चला चर्चा परिचर्चा
जल -
जंगल कुचक्र बढा
संतों
का नव सत्र चला
रावण
का था अंत लिखा
समय
चक्र के उलट पलट का
मैं
कवि हूँ
सरयू तट का |
सुखमंगल सिंह ,वाराणसी