व्यक्ति के सर्वागीण विकास का जरिया : मातृभाषा
बहुभाषिक वाले इंद्रधनुषी भारत में अपनी मिट्टी की महक होती हैं भाषा जो समाज का दर्पण होती हैं। सभ्यता व संस्कृति की वाहक भाषा जीवन के गूढ़ रहस्यों को समेटे समय के साथ रंग बदलती,जिसकी उत्पत्ति जमीन से ही होती हैं और पनपती भी अपनी ही धरती से ही।
विभिन्न क्षेत्रीय मान्यवेत्तर प्राणियों की अपनी-अपनी भाषा होती हैं जो बच्चें की समझ को विकसित करने का सर्वोत्तम माध्यम होता हैं। जिसे संस्कारित करने वाली प्रथम पाठशाला परिवार होती हैं। परिवार की देखरेख करने वाली महिलाएं जो अपनी प्यार की घुट्टी से, तो कभी मीठी-मीठी लोरियों के जरिए शब्दों को पहुंचाकर से जोड़े रखती हैं। माँ के सानिध्य में सीखने के कारण मातृभाषा कहलाती हैं।जड़ों से आजीवन जुड़ाव रखती सहज रूप से प्रवाहित भाषा में केवल शब्द ही नहीं पिरोये जाते बल्कि सभ्यता, संस्कृति, इतिहास, परंपराएं, धर्म स्वतः ही आचरण में आत्मसात हो जाते हैं।
बहुभाषी देश में विभिन्न क्षेत्रों में विविध बोलियां बोली जाती हैं जिनका अपना व्याकरण होने के कारण भाषा का दर्जा दिया जाता हैं लेकिन आधुनिकता से प्रभावित होने कारण पतन की ओर अग्रसर हैं, कुछ तो विलुप्त हो चुकी हैं। मातृभाषा, राष्ट्र भाषा के प्रति भ्रामक स्थति बनी हुई हैं। हिन्दी भाषी क्षेत्रों में राजकाज की भाषा राष्ट्र भाषा हिन्दी हैं पर अहिन्दी क्षेत्रों में द्वंद्वात्मक स्थिति हैं। हालांकि अंग्रेजियत के चलते इन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा हैं जिसकी अवांछित घुसपैठ का पहिया अपने प्रभुत्व से भारतीय भाषाओं को कुचलता हुआ और तीव्र गति से रफ्तार पकड़ने में जुट जाता हैं। केवल इसलिए कि जीविकोपार्जन का दारोमदार अंग्रेजी के बल पर मानने के कारण उसे हाशिए पर रख दिया। हीन भावनाग्रस्त होकर मातृभाषा के प्रति अगाध श्रद्धा की हवा की दिशा उसी ओर मुड़कर घुटने टेक देती हैं। अंग्रेजी स्कूलों की जगह-जगह सजी दुकानों का आकर्षण और उसका प्रभुत्व भाषाओं के लिए घातक बनता जा रहा हैं और बढ़ते रूझान से अपनी पालनहार भाषा के प्रति विषाद घुल रहा हैं।यह उपेक्षित नजरिया संकुचित मानसिकता को उजागर करता हैं।
रंग-बिरंगे फूलों रूपी विविध भाषाओं से सजा उपवन रूपी भारत देश जिसको भावनाओं, संवेदनाओं,श्रद्धा के सिंचन से विकसित कर महक को प्रसारित करने वाले हम भारतवासी हैं। इसलिए किसी भी भाषा के दरवाजे बंद न करके उसके झरोखे बनाकर भाषाओं को फलीभूत करना होगा।पाठशाला आजीविका कमाने की शिक्षा प्रदत्त करती हैं जबकि मातृभाषा समग्र विकास करती हैं। वर्तमान में पाश्चात्य संस्कृति के दबाव में अवचेतन हुई मातृभाषा के प्रति जागरूकता लाने के लिए ,उसके प्रति रूझान बढ़ाने के लिए उसकी अहमियत बताते हुये उपयोगिता को प्राथमिकता देकर ही जीवंत रखने का कारगर उपाय हैं। मातृभाषा की बगिया को रोजमर्रा में मातृभाषा को सर्वोपरि कर मुरझाने से बचाने का प्रयत्न किया जा सकता हैं।
साथ ही राष्ट्र भाषा और क्षेत्रीय भाषा के द्वंद में व्यक्ति की मौलिक चेतना क्षीण होती जा रही हैं। भौगोलिक विस्तार से विविध भाषाई वाला भारत देश बच्चे के सर्वांगीण विकास के लिए आम भाषा के साथ शैक्षणिक व्यवस्था में पुरजोर तरीके से मातृभाषा को ही रेखांकित करना होगा। तभी उसे यथोस्थान प्राप्त होगा।इसके प्रति अवसरवादिता को दरकिनार करते हुये मंथन करना चाहिए कि मातृभाषा को लादना नहीं बल्कि राष्ट्रहित में तर्कसम्मत आत्मसात करना होगा और दस्तावेजीकरण करना होगा।हालांकि इसके संवर्धन व संरक्षण के लिए प्रासंगिक कदम उठाये जा रहे हैं। क्योंकि जीवन की संजीवनी व अपने में समेटे अमूल ज्ञानसंपदा का भंडार से आधुनिक जीवन को बेहतर बनाया जा सकता हैं। ऐसे में परिवार को विशेषकर महिलाओं की जिम्मेदारी बन जाती हैं कि मातृभाषा की ज्योति प्रतिपल प्रज्ज्वलित करती रहे।
बबीता गुप्ता