भावनाओं का चक्रव्यूह तोड़
स्मृतियों के मकड़जाल से निकल
कच्ची छोड़,पक्की डगर पकड़
लालसाओं के खुवाओं से घिरा
भ्रमित मन का रचित संसार लिए.....
रेगिस्तान में कड़ी धूप की
जलधारा की भांति सपनें पूरे करने......
चल पड़ा एक ऐसी डगर.......
अनजानी राहें,नए- लोग
चकाचौंध की मायावी दुनियां
ऊँची-ऊँची इमारतों जैसे ख्वाब
हकीकत को बदलनें,सड़कें नापता रहा
बनना चाहता,मैं जिंदगी में कुछ
घिसे-पिटे जीवन को संबारने की उम्मीद को
लुभावनी लगी मन को,सिलसिला शुरू हुआ
और अच्छा ,और अच्छा की चाहत बढ़ती गई
ओहदे पर ओहदे बदलें
अपनी ही छाया को पकड़ने लगा....
छलावी दुनियां में छलता गया.....
माना,अपार भौतिक सम्पदा बनाम मानसिक सुख
सम्पन्नता तो मिली पर संतुष्टि नही......
और मृगतृष्णा की भीड़ में खो सा गया.......