‘सा विद्या
विमुक्ते’
समाज की प्रगति के लिए
उसकी बुनियादी रचना करनी होगी।समाज में मानवीय मूल्यों को स्थापित करना होगा,तभी समाज प्रगति कर आगे बढ़ सकेगा। शिक्षा ही व्यक्ति के सम्पूर्ण संभावित
विकास का साधन, माध्यम और प्रक्रिया हैं।इसका सर्वप्रथम
लक्ष्य प्रकृति वैषम्य अर्थात उसके स्वभावों की विकृतियों को दूर करने के साथ
चरित्र निर्माण करना क्योकि समन्वित विकास करने वाली शिक्षा व्यक्ति के विचारों और
उसकी कर्मठता, आचरणों को इस प्रकार प्रभावित,परिमार्जित तथा संगठित करती हैं कि जिससे वो मानव कल्याण में योगदान दे
सके।
शिक्षा से हम समाजीकरण और
भविष्य का समाज बुनते हैं। विषय को सीखने-बुनने का भाव हैं शिक्षा। आने वाले
स्वस्थ समाज का निर्माण करने में और बच्चों को सामाजिक बनाने में शिक्षक की अहम
भूमिका होती हैं। गुरु के बिना मंजिल नहीं मिलती। ज्ञानवर्धक बागवान की पाठशाला के
शिष्य रूपी पौधों को सींचने वाले मालीरूपी शिक्षक होते हैं जो अपने ज्ञान,अनुभवों,पारखी नजर रूपी खाद-पानी से करके ऐसे फलदायी
वृक्ष तैयार कराते हैं कि वे पढ़कर, गुनकर, चिंतन कर चुनौतियों का सामना करे।
जीवन को संवारने वाले
ज्ञान,स्नेह, संबल की मंजूषा सौपने वाले शिक्षक हमारे जीवन
के अभिन्न अंग होते हैं। गुरु-शिष्य परंपरा की गाथा आदर्श स्थापित करने में
अतुल्यनीय हैं। बच्चों कि कमजोरियों को ताकत बनाकर उनकी गलतियों पर पर्दा नहीं
डालते बल्कि क्षमा करके सुधार के आगे बढ़ाने की हौंसलाफजाई करता हैं तथा शिखर तक
पहुंचाने में सशक्त मार्ग प्रशस्त करता हैं। बच्चों के कोमल मन की भावनाओं को भाँप
लेता हैं। जीवन की सीख देने वाले शिक्षक का औपचारिक ही नहीं सामाजिक रिश्ता भी
होता हैं।
सोच को बंधनों से मुक्त कर
पहले से मौजूद आदर्श को बाहर निकाल अपने व्यवहारिक ज्ञान, मानवता के गुण और तर्कसम्मत बातें सिखाता हैं। कलाम जी ने कहा भी हैं कि
शिक्षण वह महान व्यवसाय हैं जो किसी के चरित्र, सामर्थ्य और
भविष्य को आकार देता हैं। अर्थात गुरु कुम्हार शिष्य कुम्भ हैं, गढ़ि-गढ़ि कारे खोट।’ पाठशाला और बच्चों की धुरी
शिक्षक होते हैं जो शाला प्रांगण व कक्ष की दीवारों पर लिखे शिक्षाप्रद जीवन
मूल्यों, वाक्यों, श्यामपट्ट पर लिखी
वर्णमाला से बने शब्दों को बच्चों के जीवन में गढ़कर उन्हे जीवंत बनाने में अहम
भूमिका का निर्माण करता हैं।अक्षरों से जीवन जीने की काला ज़िंदादिली का महत्व
समझाता हैं। हर अक्षर की विस्तारिता जीवन की पाठशाला होती हैं। जीवन के स्वर
कामयाबी के सूत्र इन्ही अक्षरों में छिपे होते हैं। ‘अंधकार
निरोधात्वाद गुरु दिव्यनिधीयते’ अर्थात जो जीवन से अंधकार का
निरोध करे, वही गुरु कहलाता हैं।
माता-पिता से मिले जीवन को
जीने की कला सिखाने वाला शिक्षक होता हैं। इसलिए व्यक्ति को अपनी प्रतिभा और
परिश्रम से पाई सफलता का श्रेय सर्वप्रथम गुरु,फिर माता-पिता
तत्पश्चात अपने भाग्य को देना चाहिए क्योकि तुम्हारा भाग्य बनाने वाला गुरु होता
हैं क्योकि ज्ञानवर्धक बागवान में अन्तःकरण को उज्ज्वल करता हैं। शिक्षा मनुष्य की
दिव्यता को प्रकट करने का सशक्त माध्यम हैं वह अपनी दूरदर्शिता से शैक्षणिक
व्यवस्था में व्याप्त विसंगतियों को दूर करता हैं।
इस ज़िम्मेदारी के अनुरूप
स्वयं को ढालना शिक्षक के लिए गंभीर चुनौती हैं। शिक्षक बनना एक सामाजिक-राष्ट्रीय
ज़िम्मेदारी हैं।सबक,सीखे सीखने में डांट-प्यार से उस
इमारत की नींव के पत्थर होते हैं,आधार होते हैं जिस पर हमारी
जीवन संघर्ष की दास्तान की इमारत कुशलता से खड़ी रखने मेब सक्षम होती हैं। डांट में
छिपी सीखें अपने कर्तव्यपरायण से ना हटाने वाला जीवन का अहम पाठ होता हैं।
अनुशासनवद्ध कडक आवाज में उदारता,ममता का पुट छिपा होता हैं,उनकी सरपरस्ती में मार्गदर्शित में मार्गदर्शित प्रयासों से लक्ष्य भेदने
के मार्ग होते हैं।
यद्यपि शिक्षा की पाठशाला
में शिक्षा प्रदान करने वाले शिक्षक होते हैं तथापि जिंदगी के टेढ़े-मेढ़े रास्ते पर
सीख देने वाले कई शिक्षक मिल जाते हैं। जो सीखने की ही नही सिखाने की क्षमता
उत्पन्न करे। साधारण से दिखने वाले शिक्षक में उत्थान-पतन के गुण अंतर्निहित होते
हैं। इसलिए ‘पकी फसल देखि के,गरव किया
किसान,हजबू झोला बहुत हैं,घर आ जाय तब
जान’ अर्थात सफलता प्राप्त होने तक हमें लक्ष्य के पीछे नही
हटना चाहिए,निरंतर सतर्क रहना चाहिए इस बात को जीवन में
आत्मसात कराए वाले शिक्षक ही होते हैं।
लेकिन जिन प्रेरणास्त्रोत
की जयजयकार करते हैं उनके विचारों को आत्मसात नहीं करते हैं। धनसुविधापद उपलब्धि
का पैमाना माना जाने लगा हैं। ऐसे में गुरु-शिष्य सम्बन्धों में बदलाव आया हैं।
जीवन का आत्मबोध कराने शिक्षक के प्रति सम्मान में बदलाव आया हैं। एक हाथ ले दूसरे हाथ ले की भावना के कारण
प्रचलित आधुनिक परिपाटी में उद्धेश्यपरक शिक्षा के सामने बहुत बड़ी चुनौती मुंह
बाएँ खड़ी हैं।बदलते दौर में शिक्षा और शिक्षण की संकुचित परिभाषाओं के कारण दोनों की
स्थिति अंधकारमय होती जा रही हैं जैसा कि कालजयी चिंतक कबीरदास जी ने सामाजिक विकृतियों
के प्रति चोट करते हुये कहा हैं-
‘जाकर गुरु की अंधड़ा
चेला खरा निखंत, अंधहि अंधा ढेलिया दोनों कूप पड़न्त।’ जीवन के अंधकार का निरोध करने वाले गुरु की सामाजिक-राष्ट्रीय ज़िम्मेदारी
होती हैं कि समर्पित भाव से अपने कर्तव्य पथ पर भविष्य की पीढ़ी को गढ़ने का कार्य करे।कलाम
जी ने इस संबंध में कहा हैं कि हमें यह सोचना चाहिए कि आने वाली पीढ़ियों के लिए हम
कैसा देश आर समाज छोड़कर जाना चाहते हैं?इस प्रश्न का सर्वोत्तम
समाधान एक शिक्षक ही दे सकता हैं। शिक्षा उत्पाद मुक्त रचनात्मक होनी चाहिए। प्रेरणा
सूचना देने वाले,सत्य बताने वाले,मार्गदर्शक
करने वाले,शिष्यों को सही-गलत का बोध कराने वाले ये सब गुरू होते
हैं।सीखने वाले विद्यार्थियों की आँखों में इनके प्रति झलकता सम्मान प्रत्येक शिक्षक
की उसके जीवन भर की कमाई होती हैं,बहुमूल्य उपहार होता हैं...उनके
लिए सबसे बड़ा तोहफा आत्मसंतुष्टि यही होती हैं विद्यार्थी के मन में उनके प्रति आदरभाव
की भावना होनी चाहिए क्योकि.....
गुरु बिन ज्ञान कहां से पाऊँ..ईश्वर
तुल्य महिमा अपरंपार
बदलते परिवेश बदलते उद्धेश्य..रेखांकित
करना पेचीदा काम।