बहुत देख ली आडंबरी दुनिया के झरोखों से
बहुत उकेर लिए मुझे कहानी क़िस्सागोई में
लद गए वो दिन, कैद थी परम्पराओं के पिंजरे में
भटकती थी अपने आपको तलाशने में
उलझती थी, अपने सवालों के जबाव ढूँढने में
तमन्ना थी बंद मुट्ठी के सपनों को पूरा करने की
उतावली,आतुर हकीकत की दुनिया जीने की
दासता की जंजीरों को तोड़
,लालायित हूँ मुक्त आकाश में उड़ने को
लेकिन अब उठ गए इन्क्लाबी कदम
बेखौफ हूँ,कोइ भी बंदिशे रोक ना पाएगी
अड़चनों के आगे हौसले पस्त होंगे नहीं
किताब के पन्ने बदल एक नई इबारत लिखूँगी
जीने का मकसद मिला,खुशियां दामन में होगी
बदलेगा आलम,चाहते मुखर हो परवान चढ़ेगी
आस है तो ,आसमान हैं
इरादे नेक हैं तो मंजिले तय हैं.