नया साल सबके लिए कुछ ना कुछ अलग लेकर आता है। नया साल का पहला दिन और उस दिन के लिए बने सारे टोटके। साल का लगभग भविष्य इस दिन पर टिका होता है। सब अपने हिसाब से इसे शुभ, लक्की, खुशहाल बनाने में लगे रहते है। मैं भी इस साल के लिए तैयार थी। मैं संतुलन बनाए रखना चाहती हूँ अपने काम और मन दुविधाओं के बीच । लेकिन हाल ही में एक नया बदलाव पढ़ने को मिला। लड़कियों के लिए शादी की नई उम्र सीमा का उल्लेख था उसमें बहुत तरह की बातें सामने आई। कुछ प्रधानमंत्री के नेतृत्व में हुए इस क़दम को ऐतिहासिक बता कर पार्टी और इसके राजनीतिक व्यवस्था को श्रेय दे रहे थे तो कोई भारत के अंदर उन सारे मौजूदा हालातों को खोद रहा था जहां आजादी के इतने सालों बाद भी बाल विवाह और दहेज जैसे शब्द सुर्खियों में बने हुए थे। इस स्थिति को देखते हुए कुछ लोगों ने अपनी राय, समाज के पढ़ा-लिखा होने पर भी दी और वस्तु यानी लड़की की सुरक्षा को भी कारण बताया। ये तो हुई बात उन लोगों की जिन्हें हम जैसे समझदार शहरी लोग, अनपढ़ कहते है। पर क्या लड़कियों की स्थिति समाज के पढ़ा-लिखा होने ही निर्भर करती है? मैंने अपने घर की औरतों को भी समाजिक सरोकार बनाये रखने के लिए समझौता करते देखा है और बहुत संपन्न परिवारों में भी औरतों को किसी बेशकीमती नगीना की तरह छुपा छुपाकर रखा जाता हैं। इन दो भागों के इतर एक दुनिया है जो गरीब और औसत से भी नीचे स्तर पर रहकर भी लड़कियों को लड़के के बराबर या उससे ज्यादा जिम्मेदार समझती है। मसला सोच और इस सोच से जन्म होते परंपराओं का है और बेशक़ ऐसी परंपराओं का उद्धार किसी भी नये कानून से नहीं होगा। नया साल लड़कियों के घर बहुत अलग तरीके से मनता है, या शायद मेरे घर में अलग होता है। साल और मेरे उम्र में एक अंक बढ़ जाता है और मेरे आज़ादी में से सांसे घटने लगती है। मैं बाहर खुली हवा में अपने पुराने दिनों को याद करने लगती हूँ जब उम्र और साल के अंक में अंकुर नहीं हुआ था। अब इन अंकों में नये पत्ते निकल आए हैं और जैसे ही इनकी नई शाखाएं बनेंगी या इससे पहले ही इनको काट छाटकर एक संतुलित रूप दे दिया जाएगा। पीपल की तरह विशाल अपनी भुजाओं को फैलाने वाला वो वृक्ष, कहीं किसी आँगन की तुलसी बनकर रह जाएगा। क्या इन्हीं मूल्यों पर हम लड़कियों को एक सुरक्षा देते हैं? क्या यही आधार है इज्ज़त और हैसियत समझने का ? ये कायदा हुआ लड़कियों
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