एक राजा था। वह दयालु और धर्म की राह पर चलने वाला, जनता के कष्टों को दूर करने का सदैव प्रयत्न करता रहता। लेकिन राजकुमार का स्वभाव राजा से बिलकुल विपरीत था। उसे निरपराध नागरिकों को यातना देने में आनंद आता था। स्वभाव से दुष्ट और निर्दयी और बोलने में भी कर्कश। राजकुमार को बार-बार क्रोध आ जाता था।
राजा, राजकुमार की इन हरकतों से काफी खिन्न था। राजा ने अपने पुत्र को सुधारने के लिए जितने प्रयत्न संभव थे, किए लेकिन राजकुमार अपने कुमार्ग से नहीं हटा। उसकी हरकतों से राज्य की जनता में विरोध बढ़ता जा रहा था। जैसे जैसे राजकुमार की उम्र बढ़ती जा रही थी वैसे-वैसे उत्पात भी बढ रहे थे।
सभी परिजन उससे किसी न किसी तरह मुक्त होना चाहते थे। धीरे-धीरे इसकी जानकारी पड़ोस के नगर में रहने वाले एक संत को पड़ी। संत ने सोचा यह तो एक दिन तानाशाह बनकर नगरवासियों को काफी परेशान करेगा। संत ने उस राजकुमार को भले मार्ग पर लाने का निश्चय किया। संत ने राजकुमार को अपने पास नहीं बुलाया बल्कि स्वयं उसके पास गए।
संत उसे एक छोटे नीम के वृक्ष के पास ले गए और उससे कहा, “राजकुमार! जरा इस वृक्ष का पत्ता तो तोड़कर देखो, इसका स्वाद कैसा है?”
राजकुमार ने झट से पत्ते तोड़े और एक पत्ते को मुंह में चबा डाला तो राजकुमार का मुंह कड़वाहट से भर गया। इतनी सी बात से राजकुमार आपे से बाहर हो गया। इसके लिए उसने संत से तो कुछ नहीं कहा परंतु उस पेड़ को अपने नौकरों को आदेश देकर उखड़वा दिया।
संत राजकुमार से बोला, “अरे राजकुमार यह आपने क्या किया।” राजकुमार बोला, “इस पौधे के लिए तो यही किया जाना चाहिए था क्योंकि जब अभी से ही इतना कड़वा है तो और बढ़ने पर तो विष ही बन जाएगा। संत जी, जो कुछ मैंने किया है वह ठीक ही किया है।” संत राजकुमार से ऐसा ही कहलवाना चाहते थे।
संत जी, बड़े ही गंभीर स्वर में बोले, “राजकुमार! तुम्हारे दुर्व्यवहार और अत्याचारों से परेशान होकर यदि जनता तुम्हारे से वही व्यवहार करने को तैयार हो जाए जो तुमने नीम के पौधे के साथ किया, तो इसका तुम्हारे पास क्या उपाय है?”
इससे राजकुमार को काफी झटका लगा और संत जी द्वारा दिखाई राह पर चलने का निश्चय किया और फिर कभी बुराई की राह पर नही गया।