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नरगिस

8 नवम्बर 2016

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पता नहीं नरगिस नाम क्यों रखा गया था उसका। सांवली सूरत, कटीले नक्श और बड़ी अधखुली आंखों के कारण ही नरगिस नाम रखा गया होगा। नरगिस बानो। बिना बानो के जैसे नाम में कोई जान पैदा न होती हो। नाम कितना भी अच्छा क्यों न हो तक़दीर भी अच्छी हो ये ज़रूरी नहीं। नरगिस अपने नाम के मिठास और खुश्बू से तो वाकिफ़ थी लेकिन उसके जीवन में सुख-चैन केे पल बहुत कम ही रहे। निर्धनता के आभूषणों से सजी गृहस्थी। अल्लाह रसूल, पीर-फकीर से दुआ मांगते हाथ और पैबंद लगे आंचल फैलाए उम्मीदों से लबरेज़ दोशीज़ाएं। मुसलमान अमीर हों या गरीब, अशराफ़ हों या पसमांदा, अपने बाल-बच्चों के नाम रखने में बड़े चूज़ी होतो हैं, खासकर लड़कियांे के नाम। पहले ज़माने में जहां जैबुन्निसा, सरफुन्निसा, नूरून्निसा जैसे नाम रखे जाते थे और अबके दौर में फूल-पौधे, कुदरती चीज़ों से लड़कियों के नाम रखे जाते हैं। ज्यादातर नाम तो बाॅलीवुड की फ़िल्मों से पे्ररित होते हैं। सायरा, सुरैया, मुमताज़, यूसुफ, सलमान, शाहरूख, आमिर जैसे नाम और कभी-कभी आतंकवादियों या साम्राज्यवादियों के नामों से भी प्रेरणा लेकर सद्दाम, लादेन जैसे नाम भी रखने लगे हैं। टीन की संदूक-पेटियां बनाने और पुराने संदूक रिपेयर करने वाले मुस्लिम परिवार का अंग थी नरगिस। ढेर सारे बाल-बच्चों के परिवार में घर की बाहरी परछी पर ठक्-ठक् की गूंज जीवित रहती। दिन-भर टीन-पत्तर को ठांेक-दुरस्त कर विभिन्न आकार के संदूकों में बदला जाता। नरगिस के अब्बा का हुनर कस्बे में मशहूर था। वे नियामतखाना बहुत डिज़ाइनदार बनाया करते थे। आजकल जब आम घरों में फ्रिज आ गया है, तब नियामतखाना के बारे में कौन जानेगा। यह टीन का एक छोटा सा जालीदार दरवाजे़ वाला आलमारी होता है और अंदर के खानों में दूध, दही या अन्य खाद्य पदार्थ रखा जाता ताकि बिल्लियां या चूहे सामान को बरबाद न करें। नरगिस समझ नहीं पाती है कि उसका नाम उस नरगिस से प्रभावित होकर रखा गया था जो मदर-इंडिया की हीरोईन थी या बगीचे के उस खूबसूरत फूल के कारण जिसकी तुलना स्त्रियों की आंख से की जाती है--‘नरगिसी आंखें’ जिन आंखों के सिवा दुनिया में कुछ भी नहीं रक्खा होता है? गरीबी और गरीबी से मारा परिवार। लिखने-पढ़ने में ज़हीन थी नरगिस, उर्दू अरबी के साथ-साथ उसने पांचवीं तक की स्कूली पढ़ाई भी बहुत रूचि से की, लेकिन छठवीं क्लास में नाम नहीं लिखा पाया तो फिर आगे जाने का सवाल ही पैदा नहीं होता था। सिलाई-बुनाई-कढ़ाई सीखी, खानादारी सीखी और तड़ाक से रिश्ता आ गया। उसका शौहर रईस भी तो उसे ‘ऐ नरगिसे मस्ताना’ कहा करता था...और अब वही नरगिस कैसे उसके जीवन में नागिन बन गई? काना अगरवाल सेठ कैसे गुर्रा रहा था--‘इसीलिए मुनीमजी मैं इन मुसल्लों को काम पर नहीं रखता...आए दिन बवाल करते हैं। सोचा था कि गरीब है मजबूर है...इज्जत से जी-खा लेगी, लेकिन इनके समाज पे ‘थू’ है। बड़े उज्जड होते हैं ये।’ नरगिस का बदन शर्म से गड़ा जा रहा था और रूह जैसे जिस्म से आज़ाद होना चाह रही थी। रईस बैसाखी लगाए अगरवाल सेठ से पैसे मांग रहा था--‘इसका अब तक का तनखाह दे दे सेठ...अब ये तेरी दुकान में काम नहीं करेगी।’ नरगिस जानती है कि रईस बिन पैसे लिए जाएगा नहीं और सेठ को पैसे देने ही होंगे। नौकरी छूटेगी सो अलग...खुदा जाने कैसे चलेगी जिन्दगी! अगरवाल सेठ का कपड़े का बड़ा शो-रूम है। अलग-अलग कम्पार्टमेंट्स हैं इसमें। नरगिस रेडीमेड शलवार-सूट वाला सेक्शन देखती। लड़कियांे और औरतों को बड़ी कामियाबी से टेकल करती थी नरगिस। किस स्त्री को उम्र के मुताबिक कैसी डिजाईन आकर्षक लगेगी वह जान जाती थी। ग्राहकों की पसंद-प्रकृति और फिर अपनी सलाह के अनुसार भी कुछ डिजाईन उनके सामने पटक देती थी। स्थिति ये होती कि न लेने वाला कस्टमर भी उसकी बातों में आ जाता ढेर सारे कपड़े खरीद कर ले जाता। अगली बार जब कस्टमर आता तो काउण्टर में नरगिस को खोजता। काना अगरवाल सेठ इसीलिए नरगिस को मानता था कि उसके भरती होने के बाद शलवार-सूट की बिक्री बढ़ी थी और नई डिज़ाइन लाने में नरगिस की सलाह भी वह लिया करता। सेठ के तीन बेटे पारा-पारी काउण्टर सम्भालते और नरगिस की कार्यकुशलता और व्यवहारिकता के कारण उसकी इज्जत करते थे। चार लड़कियां और छः आदमियों का स्टाफ है दुकान में। सुबह नौ बजे से रात नौ-दस बजे तक का कार्यकाल। दुपहर में लंच-टाईम, जिसमें सभी घर से बना टिफिन खाते और ये मनाया करते कि इस समय ग्राहक न आएं। फिर भी इक्का-दुक्का ग्राहक आ जाने पर काउण्टर सम्भालना पड़ता। नरगिस के अलावा एक लड़की रांची की है और दो छत्तीसगढ़िया। उनमें आपस में खूब बनती। लेडीज़ विंग सम्भालतीं हैं लड़कियां जिनका हेड है प्रमोद। प्रमोद पढ़ा लिखा लड़का है और कम्प्यूटर भी चला लेता है। प्रमोद लेडीज़ विंग की बिलिंग भी करता है। नरगिस के आ जाने से शलवार-सूट की सेल बढ़ी है। नरगिस की कार्यकुशलता और ग्राहक की रूचि के अनुसार डीलिंग से काना अगरवाल को बहुत लाभ हुआ है। नरगिस अपने काम में सदैव चैतन्य रहती। ग्राहक के हाव-भाव भांपते धड़ाधड़ माल पटकती जाती इस तरह कि ग्राहक अपनी रूचि और दिखलाए गए माल के बीच से अपनी पसंद से मिलता-जुलता प्रोडक्ट पा ही जाता। एक ग्राहक निपटाकर नरगिस फटाफट बिखरे कपड़े पुनः तह करके यथास्थान सजा देती। कोई काम बाद के लिए नहीं टालती। ऐसे कामगारों को कोई कभी काम से निकालता है? नरगिस के शौहर की बदतमीजियों से सारा स्टाफ ख़पा दिखलाई दे रहा था। मियां-बीवी का मामला है, कोई क्या कर सकता है? काना सेठ अपने बड़े बेेटे से कहता है--‘देख लो इसका हिसाब-किताब और फाईनल कर दो अभी के अभी।’ नरगिस नज़रें ज़मीन पर गड़ाए खड़ी रही चुपचाप। न्न् नरगिस का शौहर था। रईस सिर्फ नाम का रईस था, करम और धरम से एकदम कंजड़ और दारूबाज़। शादी से पहले यह बात सभी जानते थे फिर भी उसका निकाह रईस के साथ हुआ। कोई विकल्प ही नहीं था इसके अलावा। एक लड़की तो निपटे किसी तरह। कोई तो आया रिश्ता लेकर, वरना लड़कियां कुंवारी बैठी रह जाएं टीना-टप्पर वाले घर में। समय भी कितना खराब है। वैसे भी गरीब की लड़की समय से पहले जवान हो जाती है और समय से पहले बूढ़ी। अपने आपको सल्लू भाईजान समझता था रईस। जाने कितने लौंडे-लफाड़ियों से उसकी दोस्ती थी। अक्सर अपनी बिरयानी की दुकान से पैसे चोरी कर वह बिना बताए फरार हो जाता। उसके पास एक खटारा मोटर-साईकिल थी। कहते हैं कि रईस उस बाईक पर स्टंट भी किया करता। शादी के पहले साल रईस अपनी बीवी नरगिस पर दिलो-जान से निछावर था। नरगिस के साथ-संगत और सुरूर में या भावुक प्यार-व्यार जैसी किसी शै के कारण उसने दारू न पीने की कसम भी खा ली थी। ऐसा नशा था नरगिस का रईस पर कि बाईक पर दोनों दूर-दूर घूमा करते। लोक-लाज की परवाह किए बिना रईस नरगिस के साथ अपनी बाईक पर ही लुतरा शरीफ़ दरगाह की ज़ियारत कर डाली। बिलासपुर के बस-स्टेंड के पास एक लाॅज में दोनों रूके रहे कई दिन और कानन-पेंडारी का चिड़ियाघर और खूंटा-घाट भी घूम आए थे। लौटते समय अचानकमार के अभयारण्य में उनके प्यार ने कई नई चढ़ाईयां फतह की थीं। नरगिस की ज़िन्दगी के वे ही दिन बड़े हसीन थे। उसके बाद घर-गिरस्ती के चक्कर में नरगिस फंस गई। रईस का दिल भी इस प्यार-रोमांस से भर गया और रईस पुनः सल्लू भाईजान बन गया। उसने चोरी-छिपे दारू पीनी शुरू की और टोका-टाकी के बाद धड़ल्ले से पीने लगा। ‘जिसको जोे बिगाड़ना हो बिगाड़ ले...किसी के बाप का गुलाम नहीं है रईस...भाड़ में गई तौबा-कसम!’ वाकई क्या कर सकती थी नरगिस। नरगिस को पढ़ने का बड़ा चाव था। घर में अखबार से लिपटा कोई सामान आता तो वह उसे सम्भाल कर रखती और फुर्सत होने पर अखबार की कतरन पढ़ा करती। एक बार उसने अखबार के पन्ने पर एक हेडिंग पढ़ी थी, जिसकी दूसरी लाईन अखबार में नहीं थी और उस लाईन के होने न होने से नरगिस की ज़िन्दगी में कोई बदलाव भी नहीं आने वाला था। वह हेडिंग इस तरह थी--‘हज़ारों साल नरगिस अपनी बेनूरी पे रोती है...’ शायद स्वतंत्रता-दिवस से सम्बंधित कोई आ लेख का शीर्षक था वह। नरगिस को अपनी ज़िन्दगी बेनूर लगती। थी भी उसकी ज़िन्दगी एकदम बेनूर। वह अक्सर गुनगुनाती--‘न कोई उमंग है, न कोई तरंग है मेेरी जिन्दगी है क्या, कटी-पतंग है...’ कटी-पतंग का हश्र क्या होता है? या तो गिरते-गिरते किसी पेड़ की शाख पर लटक जाती है, या बिजली के तार में फंस जाती है और अगर इसके बाद भी गिरी तो पतंग के पीछे भागते बच्चों के हाथ आकर चिंदी-चिंदी हो जाती है। नरगिस को अपनी जिन्दगी उस पतंग की तरह लगती है...और उसे अपनी इस नियति पर यकीन नहीं होता है। वह नहीं चाहती कि उसका हश्र उस कटी-पतंग की तरह हो...लेकिन उसके चाहने, न चाहने से क्या होगा? शादी के बाद दो बेटियां जनी उसने। इस बात पर ससुराल के लोग ख़फ़ा रहते। रईस पर इसका कोई असर नहीं होता। उसने रईस से कहा कि दो बेटियां हो गई हैं, अब और बच्चे नहीं होने चाहिए। रईस उसकी बात हंसी में उड़ा देता। तंग आकर नरगिस ने एक बड़ा क़दम उठाया। वह अपने मैके गई और चुपचाप आपरेशन करवा लिया। ससुराल वालों को भनक न लगने दी। ये पहला क़दम था बगावती जिसमें वह सफल हुई थी। लेकिन इतना आसान नहीं था उसका जीवन। रईस की लापरवाहियां और उद्दण्डता बढ़ती जा रही थीं। एक दिन दारू पीकर मोटर-साईकिल चलाने में उसका एक्सीडेंट हुआ। कम्पाउण्ड फ्रेक्चर था और शरीर से बहुत सारा खून बह गया था। डाॅक्टरों ने मेहनत की और हड्डियों को जोड़ कर पलस्तर चढ़ा दिया। हास्पीटल से घर आया रईस तो चिड़चिड़ा हो गया था इतना कि बिस्तर पर पड़े-पड़े दारू की डिमांड करता। उसके दोस्त-यार आते और उसे चोेरी-छिपे दारू पिला जाते। दवा के पैसे हों न हांे, दारू ज़रूरी हो गया। दारू के नशे में एक दिन वह इतना ताव में आया कि बिस्तर से उतरने लगा और गिर पड़ा। दर्द बहुत बढ़ा तो पुनः हास्पीटल में भरती कराना पड़ा। डाॅक्टर ने बताया कि उसके पैर का ज़ख्म सूख नहीं रहा है, सड़ जाएगा पैर...इसलिए अब टखने के नीचे से पैर ही काटना होगा। आनन-फानन में एक पैर टखने से नीचे काटना पड़ गया। इस इलाज के चक्कर में नरगिस ने बिरयानी की दुकान रईस के एक दोस्त को बेच दी। बड़े मौके की दुकान थी वह। जितनी बिरयानी बनती पूरी बिक जाती थी। ग्राहकोें को रईस की बिरयानी पसंद थी। इस तरह परिवार में आमदनी का आखिरी आसरा खत्म हो गया। न्न् नरगिस पढ़ी-लिखी तो ज्यादा न थी लेकिन उसकी समझ ज़रूर ऐसी थी कि वह खांटी मुसलमान औरत जैसी दिखलाई नहीं देती थी। वह सुंदर नहीं थी लेकिन आकर्षक थी। वह अविवाहित नहीं थी लेकिन पति शराबी था। नरगिस बांझ न थी क्योंकि उसके दो बेटियां थीं। तो नरगिस के साथ कुछ-कुछ ठीक था तो बहुत कुछ खराब भी था। जैसे को तैसे खानदान वाले मिलते हैं। जैसा नरगिस का खानदान था बहुरंगी उसी तरह रईस का खानदान था। नरगिस का बाप टीन-टप्पर का काम करते-करते पराई औरत के चक्कर में भरा-पूरा घर-परिवार छोड़कर भाग गया। ऐसा गया कि फिर कभी वापस लौट कर नहीं आया। नरगिस की मां ने इस बाबत कोई कानूनी लड़ाई इसलिए नहीं लड़ी कि नरगिस के बाप ने अपने चार बच्चों पर कोई हक नहीं जताया था। वह स्वच्छंद था...जहां उसका दिल लगा चला गया और फिर दुबारा उनके जीवन में लौटकर नहीं आया। बात इतनी रहती तो कोई बात नहीं थी। हुआ ये कि नरगिस के बाप के जाने के कुछ साल बाद नरगिस की मां ने एक गैर-आदमी से नाता जोड़ लिया और ये नाता गैर-शरई यानी रीति-रिवाज़ों से हट कर था। बिना किसी तरह के वैवाहिक वैधानिकता के वह आदमी मां से मिलने आता और साधिकार रहता और फिर गायब भी हो जाता। नरगिस के भाई जो अब बड़े हो रहे थे मां की इस हरकत के लिए कुछ न कहते क्योंकि उस आदमी के आते रहने से और कोई दूसरा टपोरी उनके घर की तरफ गलत निगाह नहीं रखता था। नरगिस भी अपने भाईयों के साथ मिलकर अब्बा की टीन-संदूक को जिन्दा रखे हुए थे। पुराने संदूक रिपेयर होने आते और नए संदूकों का आर्डर भी मिल जाता था। नरगिस संदूकों की रंगीन पेंटिंग करने लगी, बिलासपुर में उसने पेटियों पर फूल-पत्तियां बनाने वाले कारीगर के काम को गौर से देखा था गोल-बाज़ार में। अब्बा का दोस्त हुआ करता था वह कारीगर जिसके पास अब्बा रूककर गांजा पिए थे। वे लोग लुतरा-शरीफ चादर चढ़ाने गए थे तब अब्बा अम्मी के अलावा एक औरत को अपने साथ घुमाने लाए थे। बाद में पता चला कि उस औरत ने अब्बा पर जादू-टोना किया था। अम्मा बताती थी कि उन्होंने देखा था कि अब्बा के सिर से बालों को एक गुच्छा कैंची से काट ले गई थी वो औरत। छत्तीसगढ़ में औरतें पुरूषों पर इसी तरह टोना करके अपने बस में कर लेती हैं। नरगिस के अब्बा इसीलिए लोकलाज त्याग भरा-पूरा परिवार उस औरत के चक्कर में छोड़-छाड़ कर भाग गए थे। अब्बा की अनुपस्थिति में अम्मा से मिलने एक आदमी घर आने लगा। वह रात-बिरात घर में रूकने भी लगा। उस आदमी के आने के बाद अम्मा के चेहरे पर चमक बढ़ गई थी। वह आदमी सभी बच्चों की तरफ आंख उठाकर देखता भी न था। लगता कि उसे सिर्फ अम्मा से मतलब था। वह आता और चुपचाप अम्मा के कमरे में घुस जाता। अम्मा भी उसकी खिदमत में जुट जाती। कभी वह मटन लेकर आता, कभी अण्डे तो कभी मछलियां। बच्चों को मटन, अण्डे मछलियां प्रिय थे सो वह आदमी भी प्रिय लगने लगा था। वरना अपने बाप की मौजूदगी में कहां इस तरह अण्डे-मुर्गी या मछलियां खाने को मिलती थीं। नरगिस जवान क्या हुई कि वह आदमी जो घर में बाप की हैसियत से अक्सर आता था, उसने नरगिस की शादी के लिए चर्चा शुरू की। अंधे को क्या चाहिए सो उस आदमी के बताए रिश्ते पर घर में गौर होने लगा। नगर के बाहर जिधर शराब की दुकानें हैं उधर बस-स्टेंड के पीछे रईस की बिरयानी की एक छोटी सी दुकान थी। रईस के मरहूम अब्बा ने एक हिन्दू-केवटिन को रक्खा हुआ था। ये केवटिन भी रईस के अब्बा की मौत के बाद ज्यादा दिन जी नहीं। केवटिन ने अपना धरम बदलना स्वीकार नहीं किया था। इसलिए उन लोगों का निकाह भी नहीं हुआ था। वे आपसी रज़ामंदी में साथ रहते थे। रईस के परिवार को इसीलिए सामाजिक मान्यता नहीं थी। वे मुसलमानों के धार्मिक आयोजनों में आमंत्रित नहीं किए जाते थे। स्थानीय मुस्लिम समाज से बहिस्कृत था रईस का परिवार। ऐसी ही सामाजिक बायकाॅट का शिकार था नरगिस का परिवार। एक अन्धा एक कोढ़ी। तो इस तरह मिली दोनों परिवारों की जोड़ी। दोनों परिवारों मंे ज़बरदस्त साम्य था। दोनों परिवार सामाजिक रूप से बहिस्कृत थे और इसी आधार पर नरगिस और रईस का निकाह हुआ। न्न् नरगिस के पड़ोस में किराए की खोली में रहती थी विमला। रांची की रहने वाली विमला आदिवासी थी। उसका आदमी सिनेमा हाॅल में नौकरी करता था और विमला काना अगरवाल सेठ के शो-रूम में सेल्स-गल्र्स थी। दोनों की मिली-जुली कमाई से घर-गृहस्थी ठीक-ठाक चल रही थी। विमला ने एक दिन नरगिस के हालात देख उसे सलाह दी कि एक बार सेठजी की दुकान में नौकरी मांगने की कोशिश करे। बारह-चैदह घण्टे का काम तो है लेकिन तनख्वाह मिलती रहेगी तो परिवार की गाड़ी चलती रहेगी। जब रईस ठीक हो जाएगा तब जो होगा सो देखा जाएगा। रईस अब बैसाखी के सहारे चलने-फिरने लगा था। दोनों लड़कियां समझदार हो रही थीं। नरगिस ने एक दिन रईस से नौकरी के बारे में बात की और रईस किचिर-किचिर करने लगा। रईस नौकरी करने वाली औरतों का हेय दृष्टि से देखता था। लेकिन हालात के आगे उसे झुकना पड़ा। विमला ने कोशिश की और नरगिस को काम मिल गया। उसके पास अच्छे कपड़े न थे। काना सेठ ने अपने शो-रूम से पुराने स्टाक के कपड़े दे दिये। काना है तो क्या हुआ, दिल का बहुत अच्छा है अगरवाल सेठ। शाम चार बजे के बाद जैसे उसके शो-रूम में ग्राहक टूट पड़ते हैं। ये आवा-जाही रात आठ बजे तक जारी रहती है। धड़ाधड़ कपड़े बिकते हैं। सेठ और उसके लड़के बहुत व्यवहारिक हैं। शो-रूम में ही कोल्ड-ड्रिंक्स रखते हैं, काफी बनाने की मशीन भी है। ग्राहकों की अच्छी खातिरदारी करते हैं वे...जिसका असर उनकी सेल पर पड़ता है। कभी-कभी रात ज्यादा हो जाती है तब नरगिस को अकेले घर लौटना पड़ता है। विमला को लेने उसका आदमी आ जाता है। ऐसे ही एक दिन प्रमोद ने नरगिस को अपनी बाईक से घर छोड़ दिया। रईस ने नरगिस को प्रमोद के साथ क्या देखा कि उसी दिन से वह आग-बबूला रहने लगा। वह अब काम से लौटी थकी-हारी नरगिस को गरियाता। बात-बेबात नरगिस की बच्चियों को पीटने लगता। नरगिस किसी तरह खून का घूंट पीकर दिन काट रही थी कि चलो भला है बुरा है जैसा भी है रईस नाम का व्यक्ति उसका शौहर तो है। बिना पति की स्त्री की समाज में कितनी दुर्दशा होती है! नरगिस की इस कातरता का लाभ लंगड़ा रईस खूब उठाता था। शो-रूम में रईस की नंगई की पराकाष्ठा थी उस दिन... काना सेठ का बड़ा बेटा प्रमोद को साथ लेकर एक कापी के पन्ने पलट रहा था और कलम से कुछ नोट करता जाता था। नरगिस नज़रें झुकाए खड़ी थी। शराब के नशे में रईस बैसीखी लगाए बड़बड़ा रहा था। नरगिस को अचानक जाने क्या हुआ। उसने रईस के हाथों से बैसाखी छीन ली और तड़ातड़ उस बैसाखी से उस पर प्रहार करने लगी। रईस इस स्थिति के लिए तैयार नहीं था और वह गिर पड़ा। आसपास मजमा जुटने लगा। नरगिस ने काना सेठ के सामने हाथ जोड़कर कहा--‘अब से ये आदमी मेरा शौहर नहीं है सेठजी। ये आए तो इसे मेरी मेहनत में से फूटी कौड़ी भी न देें। आज से मैं इसे तलाक देती हूं। इससे मेरा कोई रिश्ता नहीं और मैं अपनी दोनों बेटियों के साथ इसका साथ छोड़ रही हूं।’ एक मिनट मेें स्थिति बदल गई। लंगड़ा रईस अपनी बैसाखी वापस पा गया था। शराब का नशा मार खाकर कम हुआ था। वह काना सेठ के सामने गिड़गिड़ाकर अपने व्यवहार के लिए माफी मांगने लगा। नरगिस फिर उठ खड़ी हुई और उसने बैसाखी पकड़कर रईस को दुकान से बाहर कर दिया। नरगिस चीख़ रही थी--‘खबरदार जो अब कभी मुझपर अपना हक़ बताया।’ रईस खिसियाया खड़ा नरगिस के स्वाभिमानी स्वरूप को अपलक निहार रहा था और उसका चेहरा स्याह हुआ जा रहा था। नरगिस ने सेठ के सामने हाथ जोड़कर कहा--‘मुझ दुखियारी पर आप किरपा करें सेठजी, मेरा हिसाब-किताब न करें। मैं काम पर आऊंगी और पूरे लगन से नमक का हक अदा करूंगी। इस दरूए की ऐसी-तैसी...बहुत सह लिया इसे। जमीन पर सेठजी आप साथ दें और ऊपर से अल्ला-ताला, तो मैं अपनी बेटियों को भी अपने संग जिला लूंगी।’ लंगड़ा रईस फिर दुकान के अंदर चला आया। उसे देख, नरगिस की आंखों से चिंगारियां निकलने लगीं--‘तुम हमेशा मुझे तलाक के चाबुक से मारने की धमकी देते थे। आज तक मरद औरत को तलाक देता आया है और आज इतने लोगों के सामने मैं नरगिस पूरे होशो-हवास से तुम्हें तलाक देती हूं....तलाक, तलाक, तलाक। मैं नहीं जानती कि ये कुरान के हिसाब से सही है या गलत लेकिन मेरे हिसाब से ये एकदम सही है। मैं तुमसे किसी तरह की मदद नहीं मागूंगी। तुम्हारे घर से राई-रत्ती सामान न ले जाऊंगी, सिवाए अपनी दोनों बेटियों के।’ पता नहीं इन तीन तलाकों की गूंज से आसमान थर्राया या नहीं, ज़मीन कांपी या नहीं, लेकिन नरगिस ने अपने हिसाब से रईस जैसे मर्द से हमेशा के लिए छुटकारा पा लिया था।

रवीन्द्र  सिंह  यादव

रवीन्द्र सिंह यादव

एक यथार्थपरक कहानी जो कहानी कम हक़ीक़त ज़्यादा लगती है. वंचित वर्ग के सामाजिक ताने-बाने को कहानीकार ने बड़ी ख़ूबसूरती के साथ पेश किया है. भाषा में गज़ब का प्रवाह है. अंग्रेजी, उर्दू और हिंदी के शब्दों का समायोजन कहानी को रोचकता प्रदान करता है. लंबे अंतराल के बाद किसी कहानी को आद्योपांत पढ़कर सुकून महसूस हुआ.

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