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पहचान : उपन्यास अंश

9 नवम्बर 2016

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यहकोतमा और उस जैसे नगर-कस्बों में यह प्रथा जाने कब से चली आ रही है कि जैसे ही किसी लड़के के पर उगे नहीं कि वह नगर के गली-कूचों को ‘टा-टा’ कहके ‘परदेस’ उड़ जाता है। कहते हैं कि ‘परदेस’ मे सैकड़ों ऐसे ठिकाने हैं जहां नौजवानों की बेहद ज़रूरत है। जहां हिन्दुस्तान के सभी प्रान्त के युवक काम की तलाश में आते हैं। ठीक उसी तरह, जिस तरह महानगरों के युवक अच्छे भविष्य की तलाश में विदेश जाने को लालायित रहते हैं। सुरसा के मुख से हैं ये औद्योगिक-मकड़जाल। बेहतर जिंदगी की खोज में भटकते जाने कितने युवकों को निगलने के बाद भी सुरसा का पेट नहीं भरता। कभी उसका जी नहीं अघाता। उसकी डकार कभी किसी को सुनाई नहीं देती। तभी तो हिन्दुस्तान के सुदूर इलाकों से अनगिनत युवक अपनी फूटी किस्मत जगाने महानगरों की ओर भागे चले आते हैं। अपनी जन्मभूमि, गांव-घर, मां-बाप, भाई-बहन, संगी-साथी और कमसिन प्रेमिकाओं को छोड़कर। उन युवकों को दिखलाई देता है पैसा, खूब सारा पैसा। इतना पैसा कि जब वे अपने गांव लौटें तो उनके ठाट देखकर गांव वाले हक्के-बक्के रह जाएं। आलोचक लोग दांतों तले उंगलियां दबाकर कहें कि बिटवा, निकम्मा-आवारा नहीं बल्कि कितना हुशियार निकला! लेकिन क्या उनके ख़्वाब पूरे हो पाते हैं। हक़ीकतन उनके तमाम मंसूबे धरे के धरे रह जाते हैं। रूपया कमाना कितना कठिन होता है, उन्हें जब पता चलता तब तक वे शहर के पेट की आग बुझाने वाली भट्टी के लिए ईंधन बन चुके होते हैं। शुरू में उन्हें शहर से मुहब्बत होती है। फिर उन्हें पता चलता है कि उनकी जवानी का मधुर रस चूसने वाली धनाढ्य बुढ़िया की तरह है ये शहर। जो हर दिन नए-नए तरीके से सज-संवरकर उन पर डोरे डालती है। उन्हें करारे-करारे नोट दिखाकर अपनी तरफ बुलाती है। सदियों के अभाव और असुविधाओं से त्रस्त ये युवक उस बुढ़िया के इशारे पर नाचते चले जाते हैं। बुढ़िया के रंग-रोगन वाले जिस्म से उन्हें घृणा हो उठती है, लेकिन उससे नफ़रत का इज़हार कितना आत्मघाती होगा उन्हें इसका अंदाज़ रहता है। उन्हें पता है कि देश में भूखे-बेरोजगार युवकों की कमी नहीं। बुढ़िया तत्काल दूसरे नौजवान तलाश लेगी। शहर में रहते-रहते वे युवक गांव में प्रतीक्षारत अपनी प्रियतमा को कब बिसर जाते हैं, उन्हें पता ही नहीं चल पाता है। उनकी सम्वेदनाएं शहर की आग में जल कर स्वाहा हो जाती हैं। वे जेब में एक डायरी रखते हैं। जिसमें मतलब भर के कई पते, टेलीफोन नम्बर वगैरा दर्ज रहते हैं, सिर्फ उसे एक पते को छोड़कर, जहां उनका जन्म हुआ था। जिस जगह की मिट्टी और पानी से उनके जिस्म को आकार मिला था। जहां उनका बचपन बीता था। जहां उनके वृद्ध माता-पिता हैं, जहां खट्ठे-मीठे प्रेम का ‘ढाई आखर’ वाला पाठ पढ़ा गया था। जहां की यादें उनके जीवन का सरमाया बन सकती थीं। हां, वे इतना ज़रूर महसूस करते कि अब इस शहर के अलावा उनका कोई ठिकाना नहीं। पता नहीं, शहर उन्हें पकड़ लेता है या कि वे शहर को जकड़ लेते हैं। एक भ्रम उन्हें सारी ज़िन्दगी शहर में जीने का आसरा दिए रहता है कि यही है वह मंज़िल, जहां उनकी पुरानी पहचान गुम हो सकती है। यही है वह संसार जहां उनकी नई पहचान बन पाई है। यही है वह जगह, जहां उन्हें ‘फलनवा के बेटा’ या कि ‘अरे-अबे-तबे’ आदि सम्बोधनों से पुकारा नहीं जाएगा। जहां उनका एक नाम होगा जैसे- सलीम, श्याम, मोहन, सोहन....... यही है वह दुनिया, जहां चमड़ी की रंगत पर कोई ध्यान नहीं देगा। आप गोरे हों या काले, लम्बे हों या नाटे। महानगरीय-सभ्यता में इसका कोई महत्व नहीं है। यही है वह स्थल, जहां वे होटल में, बस-रेल में, नाई की दुकान की दुकान में, सभी के बराबर की हैसियत से बैठ-उठ सकेगे। यहीं है वह मंज़िल, जहां उनकी जात-बिरादरी और सामाजिक हैसियत पर कोई टिप्पणी नहीं होगी, जहां उनके सोने-जागने, खाने-पीने और इठलाने का हिसाब-किताब रखने में कोई दिलचस्पी न लेगा। जहां वे एकदम स्वतंत्र होंगे। अपने दिन और रात के पूरे-पूरे मालिक। लेकिन क्या यह एक भ्रम की स्थिति है? क्या वाकई ऐसा होता है? फिर भी यदि यह एक भ्रम है तो भी ‘दिल लगाने को ग़ालिब ये ख़याल अच्छा है।’। इसी भ्रम के सहारे वे अन्जान शहरों में जिन्दगी गुज़ारते हैं। आजीवन अपनी छोटी-छोटी, तुच्छ इच्छाओं की पूर्ति के लिए संघर्षरत रहते हैं। कितने मामूली होते हैं ख़्वाब उनके! एक-डेढ़ घण्टे की लोकल बस या रेल- यात्रा दूरी पर मिले अस्थाई काम। एक छोटी सी खोली। करिश्मा कपूर सा भ्रम देती पत्नी। अंग्रेजी स्कूल में पढ़ते बच्चे। टीवी, फ्रि़ज़, कूलर। छोटा सा बैंक बैलेंस कि हारी-बीमारी में किसी के आगे हाथ न पसारना पड़े। विडम्बना देखिए कि उन्हें पता भी नहीं चलता और एक दिन यथार्थ वाली दुनिया बिखर जाती । उस स्वप्न-नगरी के वे एक कलपुर्जे बन जाते। गांव-गिरांव से उन्हें खोजती-भटकती खबरें आकर दस्तक देतीं कि बच्चों के लौट आने की आस लिए मर गए बूढ़े मां-बाप। खबरें बतातीं कि छोटे भाई लोग ज़मींदार की बेकारी खटते हैं और फिर सांझ ढले गांजा-शराब में खुद को गर्क कर लेते हैं। खबरें बतातीं कि उनकी जवान बहनें अपनी तन-मन की ज़रूरतें पूरी न होने के कारण सामन्तों की हवस का सामान बन चुकी हैं। खबरें बतातीं कि उनकी मासूम महबूबाओं की इंतज़ार में डूबी रातों का अमावस कभी खत्म नहीं हुआ। इस तरह एक दिन उनका सब-कुछ बिखर जाता। ये बिखरना क्या किसी नव-निर्माण का संकेत तो नहीं

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घेराबंदी को धता बताकर

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नरगिस

8 नवम्बर 2016
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पता नहीं नरगिस नाम क्यों रखा गया था उसका। सांवली सूरत, कटीले नक्श और बड़ी अधखुली आंखों के कारण ही नरगिस नाम रखा गया होगा। नरगिस बानो। बिना बानो के जैसे नाम में कोई जान पैदा न होती हो। नाम कितना भी अच्छा क्यों न हो तक़दीर भी अच्छी हो ये ज़रूरी नहीं। नरगिस अपने नाम के मिठास और खुश्बू से तो वाकिफ़ थी लेकि

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खदानों के जीवन पर हिंदी में पहले भी संजीव के उपन्यास आए हैं किंतु अनवर सुहैल का ‘पहचान’ इस कथ्य पर एक नर्इ कथा-भूमि का उत्खनन करता है। सिंगरौली क्षेत्र कथानक के केंद्र में है। उपन्यास का दूसरा सबल पक्ष इस देश के अल्पसंख्यक समुदाय-मुसलमानों के निम्नवर्ग की सामाजिक-आर्थिक स्थितियों का ऐसा आलेखन है जो

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सबकुछ को बदलने की ज़िद में गैंती से खोदकर मनुष्यता की खदान से निकाली गई कविताएँ

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-----------------शहंशाह आलम मैं बेहतर ढंग से रच सकता था प्रेम-प्रसंग तुम्हारे लिए ज़्यादा फ़ायदा था इसमें और ज़्यादा मज़ा भी लेकिन मैंने तैयार किया अपने-आपको अपने ही गान का गला घोंट देने के लिए… # मायकोव्स्की मायकोव्स्की को ऐसा अतिशय भावुकता में अथवा अपने विचारों को अतिशयीक

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