आकंठ पानी में निमग्न महिंद्रा को मानो पुनर्जीवन मिला। काक के अमृत जैसे शीतल जल से तृप्त हुआ महिंद्रा पुनः किनारे पर लौट आया और उसने अस्तांचल की ओर अपनी दृष्टि डाली, सूर्यास्त का समय होने को है, और आगत शीतल रात्रि मानो उसे विश्राम रूपी स्नेहांचल देना चाहती है।
अपने लिए रात्रि विश्राम हेतु कोई आश्रय खोजने की ऊहापोह महिंद्रा को काक नदी से ऊपर की ओर खींच लाई और उसने अपनी ऊंटनी की लगाम पकड़ ली और चलने लगा। बहुत देर भटकने के बाद भी जब आश्रय न मिल सका तो वह पुनः नदी की धार के निकट चला आया और एक कैर (करील), पीलू, बेर, और कीकर के झुरमुट के निकट आज की रात अपना शिविर लगाने के विषय में सोच ही रहा था कि उसे, निकट ही कहीं मानवीय वार्तालाप तथा अपनी ओर आती पदचाप सुनाई दी जो निरंतर पास आने लगी। महिंद्रा का हाथ अपनी तलवार पर कसता चला गया। वह छुप गया और झुरमुट के पीछे से देखने लगा। उसने देखा, संध्या के धुंधलके ने कुछ स्पष्ट तो नहीं होने दिया किंतु दो मानवाकृतियां उसी ओर चली आ रही थी।
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सुरजन सिंह!
"आज तो हद हो गई कोई शिकार नहीं मिला अब तक"।
बात तो सांची है थारी भाटी सा, म्हें चिंकारा,गोडावण और चीतल की सोचे हा,अण मिलियो तीतर ई कोणी।" मूमल तो ज्यान ई काढ़ लेसी म्हांकी आज!!
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महिंद्रा ने देखा,दो हृष्ट पुष्ट राजपूत नवयुवक उसी की ओर चले आ रहे थे। लम्बा कद, रौबीली मूछें, सिर पर केसरिया पाग, हाथों में धनुष और कमर पर लटकी खड्ग उनका परिचय स्वयं ही दे रही थी। अवस्था यही कोई तीस साल, सिंह जैसी चाल, और माथे का तेज बता रहा था कि दोनों नवयुवक कुलीन हैं। किंतु यह "मूमल" कौन है?
अचानक रेगिस्तानी भेड़ियों की गुर्राहट ने महिंद्रा की विचार सरणी को विराम दे दिया। कम से कम आठ दस तो होंगे(महिंद्रा ने सोचा),महिंद्रा का हाथ अनायास ही अपनी तलवार पर और अधिक कस गया। वह सतर्क हो कर चारों ओर अपनी दृष्टि डालते हुए झुरमुट से बाहर आ गया।
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भाटी सा भेड़ियों की आवाज़ पास आती जा रही है, सावचेत रहना। सुरजन! ला ज़रा मेरी जैवंती तो दे,आज यह भेड़ियों के खून से नहाएगी (लखपत सिंह ने अपनी तलवार मांगी)।
अचानक भेड़ियों ने दोनों राजपूत नवयुवकों को चारों ओर से घेर लिया और फिर भेड़ियों की गुर्राहट दर्द भरी चीखों में बदल गई।
वाह! सुरजन वाह! क्या खूब खांडा चलाया तुम ने आज।
भाटी सा! थारी जैवन्ती रो पाणी (तलवार की धार) भी कम कोणी, कित्ता ई इण मां डूब ग्या।
जय भवानी ! का नारा उस नीरव मरुथल में गूंज उठा और दोनों नवयुवक वापस लौट पड़े।
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उनकी वीरता से प्रसन्न महिंद्रा उनकी अगवानी हेतु तत्पर खड़ा था। जब दोनों राजपूत नवयुवक उसके पास आ गए तो देखा कि, एक सुंदर सजीला युवक उन्हें स्नेहासिक्त दृष्टि से सिंचित किए जा रहा है। वे अवाक खड़े उसे देखने लगे, मानो कामदेव ही स्वयं देह धारण कर समक्ष हो।
कौन हो तुम? सुरजन ने पूछा।
राहगीर हूं और अमराणे(अमरकोट) जा रहा हूं। रात गुजारने की जुगत में था कि तुम दोनों मिल गए।
पहनावे से राजकुल के लगते हो! सच कहो कौन हो तुम?(लखपत सिंह ने कड़क आवाज़ में पूछा)
मेरा नाम महिंद्रा है, और मैं सोढ़ा कुल का कुलदीपक (राजकुमार) हूं और अमरकोट का भावी राणा (होने वाला राजा) हूं।
अचानक दोनों राजपूत नवयुवक उसके सम्मान में झुक गए और जोहार करने लगे। खम्मा घणी राणा सा! आप रा दर्शन मिलिया, धन धन भाग हमारे।
हम लोद्रवा (जैसलमेर, राजस्थान) की राजकुमारी मूमल के राजकिंकर हैं, और शिकार खेलने निकले थे। चालो राणा सा! आज री रात थे म्हारा मेहमान हो। आप री खातरदारी करणी म्हारो सौभाग्य होसी। पास में ही मूमल की मेढी है, जहां वह सखियों सहित रहती हैं। उन्हें भी प्रसन्नता होगी राणा सा।
अब समझा यह वही मूमल है, जिसके रूप की चर्चा सारे राजपुताने में है।(महिंद्रा सोचने में मग्न था)आप क्या सोचने लगे कुंवर सा? चलिए अब रात गहरा रही है।महिंद्रा अपनी ऊंटनी की लगाम थामे उनके पीछे हो लिया।
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