पश्चाताप् आज मुझे बड़ी ग्लानि महसूस हो रही थी जब अपने द्वारा लगाया गया पेड़, अपने द्वारा सींचा गया पेड़ मुझे अपने ही हाथों से काटना पड़ा । मैं तो उसका प्रायश्चित भी नही कर सकता । क्या करूं । जो पेड़ हमारे सगे भाई-बन्धु हैं उनको इस प्रकार से मैं निर्जीव करूं । ये मैंने सपने में भी नही सोचा था। मेरे साथ बीती घटना कुछ इस प्रकार से है । सड़क के पास मिले गतवाड़े में जहां हम या मेरी मौसी का ईंधन और कूड़ा-करकट आदि डालती है वहां पर कुछ साल पहले एक कीकर उगी थी, वह भी काबुली । मैंने स्वयं उस कीकर को पाला-पोसा बड़ा किया । मैंने तो कभी उस कीकर की लौरी तक को नही छुआ था , तोड़ने की बात तो दूर थी। फिर एक दिन ऐसा आया जब वह जवानी की देहलीज पर कदम रखती है और जवानी में भरपूर होकर झूमने लगी । वो सड़क पर गुजरते हर वाहन को झूमते हुए ऐसी प्रतीत होती हो जैसे कि उसे हाथ उठाकर नमस्कार कह रही हो । उस कीकर की जड़ों से और भी बहुत-सी शाखाएं फूट आई । अब वह पूरी तरह से जवानी की दहलीज पर अपने कदम रख चुकी थी । मगर.................. एक दिन ऐसा आया कि एक ब्राह्मण ने एक पैनी कुल्हाड़ी से उसके नीचे फूटी हुई शाखाएं काट डाली और अपने ईंधन की बाड़ लगाने लगा । वह उस कीकर को काटने लगा । इतने ही में मेरी मां वहां पहुंच गई और उस ब्राह्मण को सुनाने लगी खरी-खोटी । ब्राह्मण भी बड़ा दुष्ट प्रवृति का था । उसने कहा न तो मैं ईंधन दूंगा और साथ ही चेतावनी देते हुए कहा मैं इसको भी काटूंगा, छोडूंगा नही और गाली-गलौच करने लगा । तब मेरी मां बोली ईंधन तो रख ले पर इसको मत काटना । इसे हमने पाला है, पोसा है । इस तरह से समझाने बुझाने से वह मान गया । तब मेरी मां ने शाम को घर आने पर मुझे बताया तो बड़ा रोष मेरे अन्दर पैदा हुआ । जी तो करता था कि एक एप्लीकेशन वन विभाग को देकर इस ब्राह्मण का बुरा हाल करवाऊं, मगर घर वालों के मना करने पर मैं मान गया । दूसरे रोज देखा तो कुछ बच्चे कुल्हाड़ी लिए काटने लगे हुए थे । बेचारी कीकर चुपचाप अपने तने को कटते हुए और दर्द सहन करते हुए खड़ी अश्रु धारा बिखेरती हुई सी प्रतीत हो रही थी । उनको धमका कर दूर किया फिर एक दिन मां ने कहा - देख भाई कीकर तो वैसे भी कटनी है, क्योंकि दुनिया की घुरती नजर उस पर पड़ चुकी हैं । आज नही तो कल उसे कोई काट ही ले जाएगा । तु एक काम कर उसे काट ला । कम-से-कम ईंधन तो बच जाएगा । मैंने कहा-क्यों कटवाती है मां, रहने दे । तब मां बोली - आधी तो कटी हुई है । हम इसे रहने भी देंगे तो भी वह सूखेगी । इसलिए काट ला । मैं कुल्हाड़ी लेकर उसक कीकर की तरफ बढ चला । जाकर देखा तो मैं देख ही रहा था कि अचानक उस अर्द्ध निर्जीव सी कीकर में मुझको देखकर एक बार फिर से प्राणों का संचार हो गया था और वह मंद-मंद हिलने-डुलने लगी । मैं उसके पास जाकर देखने लगा तो देखा कि वास्तव में उसकी आधा तना तो उस ब्राह्मण ने ही काट दिया था । मैंने उसके इस नाजुक से तने पर कुल्हाड़ी के प्रहार को देखा तो सहसा आंखों से अश्रु छलक पडे़ फिर किसी तरह से दिल मजबूत कर मैंने मन-ही-मन में कहा-भई कीकर मुझे माफ करना । मैं भी तुझे काटने ही आया हूं । सहसा वह फिर से हंसी-खिली कीकर मुरझाने लगी। उसका शरीर निस्तेज सा होने लगा। मैंने रोते हुए उस पर अपनी कुल्हाड़ी का प्रहार किया । तीन-चार चोटें मारने पर ही एक ओर गिर पड़ी । वह ऐसी प्रतीत हो रही थी मानों मुझे देखते-देखते ही एकटकी लगाए हुए उसने अपने प्राण त्याग दिए हों और मैं भी जी भरके उसके पास खड़ा रो न सका । उस कीकर का यह बहुत बड़ा बलिदान था । मैं भी अपने आपको कोस रहा था । क्यों मैंने यह पेड़ लगाया, क्यों लगाकर इससे दिल लगाया और दिल लगाकर फिर इसे अपने ही हाथों से क्यों काटा । मुझे बड़ी ग्लानि सी महसूस हो रही थी । सारा दिन पश्चाताप् की आग में जलता रहा मैं । -:-०-:-