बीती बातें बहुत दिनों के बाद आज गांव की याद आने लगी हैं। काम की व्यस्तता के कारण मैंने पन्द्रह साल शहर में गुजार दिए। शहर में सारी मूलभूत सुविधाऐं मेरे पास उपलब्ध हैं। मां-बाप, भाई-बहन आदि सभी को अपनी सुविधा के लिए अपने पास ही बुला लिया था। पन्द्रह साल मैंने शहर में कड़ी मेहनत की। मां-बाप का कभी मन होता तो वो मेरे गांव में घूम आते। गांव में हमारा पुश्तैनी मकान हैं। इस बहाने वहां के लोंगो से भी संपर्क बना रहता और घर की भी देखभाल होती रहती। मगर ना जाने क्यों आज पन्द्रह साल बाद मेरे दिमाग में न जाने कौन सा कीड़ा जाग गया जो आज गांव चलने के लिए मुझे उत्साहित करने लगा हैं। आज तो मुझे रह रहकर गांव की याद आने लगी हैं। ऑफिस में भी मेरा मन नही लग रहा था। सोचता हूँ कि अभी निकल कर गांव रवाना हो जाऊँ। पर सोचता हूँ कि आज का पूरा दिन ऑफिस में लगा रहूँ। पर अभी तो प्रातः के दस ही बजे हैं पूरा दिन कैसे गुजरेगा। साहब भी आने वाला हैं। चलो आज आने पर उसे चार दिन का अवकाश लिख कर दे देता हूँ, बाकि शनिवार और रविवार छुट्ठी का दिन होता हैं। इस प्रकार से गांव में 5-6 दिन मौज मस्ती करुंगा। वहां के शुद्ध वातावरण में रहूंगा। पुराने दोस्तों से मिलकर उनके साथ गप्पे मारुंगा। इन 5-6 दिनों में मैं अपने पुराने दिनों हर याद को ताजा करुंगा। गांव के जोहड़ (तालाब) पर जाऊंगा, जहां पर खूब नहाते थे। फिर स्कूल में जाऊंगा, जहां पढ़ाई के साथ-2 खूब मौज-मस्ती करते थे। मुझे आज भी याद हैं, जब हम स्कूल में कट्ठे बिछाकर उस कट्ठे पर बैठकर पढ़ते थे। यहां शहर में जिसे हमारे बच्चे टीचर कहते हैं। उसे हम मास्टर जी और मैडम को बहनजी कह कर संबोधित करते थे। यहां शहर में क्लास रुम कहते हैं। उसे हम कक्षा या कमरा कहते थे। बड़े मस्त दिन थे। मैं जब गांव पहुँचुगा तो मेरे सभी दोस्त जो कि गांव में ही रहते हैं। एक दम से मेरे पास आयेंगे और मुझ से लिप्ट जायेंगे वो दृश्य बड़ा ही मनमोहक होगा ऐसा लगेगा। जैसे चौदह वर्ष बाद श्रीराम वनगमन से लौटकर आया तो उसके भ्राता भरत उससे लिप्ट गये हो फिर हम सभी गांव से बाहर खेतों में घूमने जायेंगे। वो सारी जगह जायेंगे जहां- जहां हम बचपन में जाते और खेलते थे। बचपन में जो मौज-मस्ती हमने की थी वो सारी की सारी फिर से याद आ जायेंगी। मैंने अपने मेज की दराज से कलम और कागज निकाल लिया और पांच चार दिन का आकस्मिक अवकाश लिखने लगा। तब तक साहब भी कार्यालय में पहुँच चुका था। साहब के पास पहुँच कर उससे वह अवकाश पत्र दिया। साहब ने आज तक बहुत कम अवकाश लेने की वजह से आज चार दिन का अवकाश देने में कोई आनाकानी नहीं की। चुपचाप से उन्होंने मेरे अवकाश पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए। मुझे बहुत खुशी हुई। वह अवकाश पत्र रजिस्ट्रार के पास ले जाकर जमा करा दिया। मेरी छुट्ठी स्वीकार होने पर मैं अपनी कुर्सी पर बैठकर अपना कार्यालय का काम निपटाने लगा। काम की व्यवस्तता के कारण समय का पता ही नहीं चला जाने कब शाम के पांच बज गये। और छुट्ठी का समय हो गया। मैं और मेरे सभी कार्यालय के सहकर्मी कार्यालय से बाहर आ गये। मैंने उन्हें छुट्ठी के बारे में बताया और गांव जाने वाली बात भी उन्हें बताई। मैं जल्दी ही अपने घर पहुँच गया और घरवालों को बताया कि कल हम सभी अपने गांव जा रहे हैं। सभी को खुशी हुई। मगर मेरी लड़की वनिता और बेटा प्रिंस कहने लगे कि हमारी अगले महीने से वार्षिक परीक्षा शुरु होने वाली हैं। इसलिए हम तो किसी भी हालत में आपके साथ चलने में असमर्थ हैं। मां-पिताजी से कहा तो उन्होंने भी बात टालमटोल दी। उसके बाद अपनी पत्नी रेणुका से कहा तो वो कहने लगी - रेणुका - देखो जी। आपने ये अचानक गांव जाने की क्या सोची हैं। पहले हमसे पूछ तो लिया होता। सभी एक साथ- साथ विचार-विमर्श करके गांव चलने की तैयारी करते। माफ करना बच्चों की वार्षिक परीक्षा आने वाली हैं सो इनका ख्याल रखना भी जरुरी हैं। यदि मैं भी आपके साथ गांव चली तो इनके खाने-पीने व पढ़ने का ख्याल कौन रखेगा। हां वार्षिक परीक्षा पूरी हो जायेगी तो उसके बाद हम सभी गांव चलेंगे। और खूब मौज-मस्ती करेंगें। मैने कहा - मुझे तो कल सुबह ही गांव जाना हैं। गांव की बहुत याद आ रही हैं। मेरे पुराने दोस्तों से मिलना। पुराने स्कूल में जाना हैं। पुराने उस गांव के जोहड़ और पुरानी इमारतों व गांव की कर पुरानी चीज जिनके साथ मेरा बचपन बीता था उन्हें देखना हैं। तुम चलो या न चलो पन्द्रह साल तो यहां काम की व्यवस्तता के कारण गुजर गए। मगर आज सुबह ही मेरे मन ने मुझे गांव जाने के लिए प्रेरित किया। गांव की हर याद को एक बार फिर अंकुरित कर दिया। यकायक हर याद जीवंत होकर चलचित्र की भांति मस्तिष्क पटल पर प्रसारित होने लगी। पूरा दिन आज कार्यालय का कार्य करने में गुजरा। आज पूरा काम निपटा दिया। सो बस मुझे गांव जाना हैं तो बस जाना हैं। रेणुका - वहां पर आपका मन लग जायेगा अकेले का।मैने कहा - क्यों नही लगेगा मेरी जन्म स्थली जो हैं। वहां पर मेरे बचपन की सारी यादें जुड़ी हैं। रेणुका - वहां पर खाने से संबंधित बाधा होगी मैंने कहा - वो गांव हैं। यहां शहर की तरह से नहीं कि आस-पास में रहने वालों को भी नहीं जानते। वहां पर तो किसी का रिश्तेदार आने पर भी लोग उसे गांव का ही रिश्तेदार मानते हैं, चाहे वह किसी भी घर चला जाए, उसे पूरी इज्जत मिलती हैं। यहां पर तो कोई किसी को जानता ही नही। और गांव में तो अंजान को भी अपना बना लेते हैं। रही बात खाने की तो चाहे जिस घर चला जाऊँ। खाना तो खिलाकर ही भेजेंगे। मुझे खाने की चिन्ता तो हैं ही नहीं। रेणुका - तो अब तो आपने गांव जाने की ठान ली हैं। मैंने कहा-हां तो-जाऊंगा गांव, गांव में हरियाली हैं। प्रदूषण रहित वातावरण हैं। एक दम साफ-स्वच्छ वायु हैं। शोर भी कम हैं। 5-6 दिन आराम से गुजरेंगे। रेणुका - चलो ठीक हैं जाओ और अपना ख्याल रखना। खाना समय पर खा लेना। मेरा भी मन तो बहुत कर रहा हैं, गांव जाने का मगर क्या करुं। मेरा ऐसा सौभाग्य कहां जो गांव जाऊं। पर आप जा रहे हैं तो मुझे लगता हैं कि गांव में मैं भी आपके साथ ही जा रही हूँ। ही किसी को मेरी तरफ से नमस्कार कहना और कहना का दो महीने बाद हमारा पूरा परिवार गांव घूमने आयेगा। मैंने कहा - ठीक हैं अब खाना तैयार कर लो। खाकर सोते हैं। सुबह जल्दी उठना हैं। रात के ग्यारह बज चुके हैं। गांवों में तो शाम को 7-8 बजे तक ही सो जाते हैं। और सुबह जल्दी उठ जाते हैं, शहरों में तो 8-9 बजे तक सोते रहते हैं। सुबह जल्दी उठने कारण ही तो गांव के लोग कम बीमार पड़ते हैं। गांव के लोग कहते हैं कि सूर्योदय से पहले उठना चाहिए तभी तो शरीर स्वस्थ रहता हैं। जल्दी सोने का दूसरा कारण यह भी हैं कि वहां पर शहरों की तरह से हर घर में बिजली नहीं हैं जिसके कारण जल्दी अंधेरा छा जाता हैं और लोंगो को लगता हैं कि रात हो गई और जल्दी खाना खाकर सो जाते हैं। रेणुका - ठीक हैं अब खाना तैयार हैं खाकर सो जाओ। सुबह गांव भी जाना हैं। और हां जाते ही फोन जरुर कर देना। मैंने कहा - अभी गांव इतने विकसित थोड़े ही हुए हैं, जहां पर कोई नेटवर्क टॉवर थोड़े ही ना होंगे। वहां पर मोबाइल में नेटवर्क ही नहीं होगा तो फोन कैसे करुंगा। रेणुका - फिर भी फोन तो लेकर चले जाना। हो सकता हैं नेटवर्क मिल जाए। मैंने कहा - ठीक हैं मैं ले जाऊंगा और हां खाना खाकर मेरे लिए जो-2 आवश्यकता की चीजें हैं वो बैग में जरुर डाल देना और हां दंत मंजन मत डालना क्योंकि मैं गांव जा रहा हूँ और वहां पर नीम और बबूल के लंबे-2 पेड़ होते हैं। उन्हीं का दातुन तोड़ कर दांत साफ कर लूंगा। बस कपड़े और कुछ जरुरी सामान डाल देना। यदि घर पर कुछ रख कर या पड़ोस में कुछ देना हो तो वो भी बैग में डाल देना। खाना-खाने के कुछ देर बाद सारा सामान बैग में डालने के बाद देर रात तक सभी आपस में बातें करते रहे फिर सो गये सुबह पांच बजे मैंने अपनी पत्नी रेणुका को जगाया ओर कहा - मैंने कहा - उठो यार, मुझे जाना हैं छः बजे की रेलगाड़ी हैं। यदि छूट गई तो फिर एक घंटे बाद ही हैं। उस रेलगाड़ी से शाम को दो-ढ़ाई बजे गांव पहुँचा देगी। जल्दी से खाना बना दो और बैग में डाल दो। रास्ते में खा लूंगा। तब तक मैं नहा कर आता हैं। रेणुका - मुझे सोने भी नहीं देते अभी तो उठने के तीन घंटे पड़े हैं। गांव जा रहा हैं ये और परेशान पूरा घर कर रखा हैं इन्होने। आंख मलते हुए रेणुका बड़बड़ाती हुई उठने की नाकामयाब सी कौशिश करती हैं। कुछ देर सोच-विचार कर पलंग से नीचे उतर कर रसोई की तरफ चल देती हैं। रसोई पहुँचकर मेरे लिए खाना तैयार करती हैं। तब तक मैं भी नहा-धोकर तैयार होकर रसोई में पहुँच गया। और रेणुका से कहा -- मैने कहा - हां तो खाना तैयार हो गया। रेणुका - हां हो गया और आपका खाना बांधकर मैंने तुम्हारे बैग मे रख दिया हैं। बस अभी चाय बन रही हैं। कुछ देर में छानकर कप में डालकर मुझे रेणुका ने चाय दे दी। तब तक साढ़े पांच का समय हो गया। मैंने जल्दी से चाय खत्म की और बैग उठाकर मां-पिताजी के कमरे में गया, वे उस समय सो रहे थे, उनके पांव छुए और जल्दी से कमरे से बाहर आ गया फिर अपने बच्चों के कमरे में गया उनके सिर पर हाथ रखा और रेणुका से बोलकर घर से निकल कर रेलवे स्टेशन के लिए रवाना हो लिया। स्टेशन पर पहुँचकर अपने गांव का टिकट लिया। बाहर आया तब तक स्टेशन पर रेल भी आ चुकी थी। रेल में चढ़ा और एक खिड़की वाली सीट पर बैठ गया। मन में गांव जाने का एक अजीब सा रोमांच रह- रह कर आ रहा था और पूरा शरीर झूम उठता था। रोएं- रोएं में एक हर्ष की लहर दौड़ जाती। मैंने अपने बैग से एक पत्रिका निकाली समय गुजारने के लिए यात्रा के दौरान पुस्तकें अच्छी साथी साबित होती हैं इसलिए लंबी यात्रा में मैं अपने पास कुछ प्रसिद्ध लेखकों की अच्छी पुस्तकें अपने पास जरुर रखता हूँ। जोकि ज्ञानवर्द्धक के साथ- साथ मनोरंजन भी कराती हो। पुस्तक पढ़ते- पढ़ते ही मुझे नींद आ गई। डेढ़-दो घंटे बाद आंखे खुली तो देख की रेल अपनी रफ्तार पकड़े हुए थी। धड़ाधड-धड़ाधड की आवाज आ रही थी। बीच- बीच में कभी- कभी सीटी बजा रही थी। लंबी दूरी की रेलगाडि़यां छोटे- छोटे स्टेशनों पर नहीं रुकती। लगभग डेढ़-दो घंटे एक ही रफ्तार से चलती रही फिर एक बड़ा स्टेशन आया वहां पर मात्र दो मिनट तक रुकी फिर चल पड़ी। मैं रेल में बैठा अपने गांव के बारे में सोच रहा था कि गांव पहुँचूगा तो ये करुंगा वो करुंगा। गांव में पता नहीं वो हरिया काका वाला वो आम का पेड़ होगा भी या नहीं होगा जिस पर हम स्कूल से आते-जाते समय पत्थर उठाकर मारते रहते थे। उस आम का एक भाग गली की तरफ था सो जब भी उस पर पत्थर मारते कच्चे आम या पक जाने पर जिस आम पर पत्थर लगा नीचे गिरता पत्थर की आवाज सुनकर हरिया काका बाहर आता और गाली देता हुआ हमारे पीछे दौड़ता। कभी-कभी तो वह उलाहना देने घर पहुँच जाया करता था। हरिया काका की पत्नी हमेशा हरिया को डांटते हुए कहती बच्चे हैं। पती नहीं इनके भाग्य से ही हमारे आम पर इतना फल आता हो। इतने फल तो किसी के बाग में भी नहीं लगते जितने हमारे आम पर लगते हैं। खाने दो इन्हें वैसे भी ये कौनसा ये सारे फल तोड़ कर ले जाते हैं। एक या दो आम। बस चलते हुए ही तोड़ लेते हैं। और अगले ही पल जहन में आया कि पता नहीं मातु नाई वाली दुकान भी होगी या नहीं। पन्द्रह साल पहले ही वह बूढ़ा लगता था अब तक तो बेचारा स्वर्ग सिधार गया होगा। बेचारे के पास बड़े बिना पैसे के बाल कटाये और वो पारों ताई जब भी अपनी भैंसों को जोहड़ ले जाती उन्हें बिधका कर जोहड़ के बीच ले जाते उनकी पूंछ पकड़ कर पूरे जोहड़ में चक्कर कटाते। कभी-कभी तो जोहड़ में ही उसके ऊपर बैठ जाते। बेचारी बहुत कहती गाली देती पर हम भी हठीले थे, भागती तो हम हाथ ना आते। घर जाती तो मां के सामने हम मासूम बन जाते, मां भी उसके आगे हमें दो-चार तमाचे मार देती। हम कुछ देर रोते, फिर वही छेड़-छाड़, होथों पर हंसी आ गई। वह घटना सोचकर जब दिवाली के दिन मटरु काका की धोती में चकरी घुसी थी। हुआ कुछ यूं था मैं गली में पटाखे चला रहा था तभी मटरु काका आये और कहने लगा यहां पटाखे मत चलाओ बाहर खेतों में जाओ। मैं हाथ में चकरी जला रहा था। तभी उसमें आग लग गई और मैंने उसे एक तरफ फेंक दिया। मटरु काका मुझे समझा ही रहे थे कि वह चकरी उछल कर घूमती हुई उसकी धोती में घुस गई, अब मटरु काका उछलने लगे ये शुक्र हैं कि उनकी धोती में आग ना लगी पर उनका पांव ऊपर तक जल गया। उस समय मुझे हंसी आई। दूसरे रोज जब सुबह उनके घर उसका हाल जानने गया तो वह खाट में लेटा हुआ था। मैं उनके पास गया और वह मेरे पीछे बेंत लेकर भागा और दो-चार गालियां भी दी। यह देखकर सभी हंसने मैं वहां भाग गया। मैं हंस रहा था तभी एक सज्जन ने मुझे देखकर कहा क्या बात हैं भाई साहब किस बात की हंसी आ रही हैं। मैंने कहा कुछ नहीं भाई साहब। बस यूंही कोई बात याद आ गई थी। उस सज्जन रे कहा भाई ये याद भी जहां कहीं आ जाती हैं। और उसके भाव चेहरे पर छलक ही जाते हैं। मैंने कहा ये तो आपने ठीक ही कहा हैं। वो बचपन की यादें ताजा हो गई थी। यह सुन सज्जन ने फिर कहा ये बचपन भी बड़ा ही निराला होता हैं भगवान का दिया हुआ अनोखा उपहार होता हैं। जिसमें ना किसी बात की चिन्ता, ना किसी बात का भय, हर कोई अपना, ना किसी से शत्रुता। यही तो बचपन होता हैं। मैं उसकी बात सुनकर चुपचाप बैठ गया फिर मन में विचार आने लगे। वो गंाव से बाहर चने के खेतों में जाना, चने के पौधों पर हाथ फिराना और उन्हें चांटना। हां वह बात तो सबसे अलग थी जब हम अर्थात मैं और वे मेरे दोस्त हरिया के बाग में घुसे थे। सभी दोस्तों के कहने पर मैं आम की ऊंची शाखा पर पर चढ़ गया था। बाग का माली आ गया और सभी दोस्त नीची वाली शाखाओं पर थे। जो कूद-कूद कर भाग गये। मैं ऊंची शाखा पर था। उतरने में काफी समय लगा। जब नीचे उतरा तो माली ने मुझे पकड़ लिया और मेरी खूब पिटाई की। उस दिन के बाद मैंने कभी उस बाग की तरफ देखा तक नही। वो बचपन वाले दिन भी क्या दिन थे। बड़े ही मस्त सुहाने दिन थे। उन दिनों की बात भी क्या थी। आज एकाएक चलचित्र की भांति मेरे मस्तिष्क पटल पर घूमने लगे। एक लंबी सांस लेते हुए मैंने अपनी आंखे मूंद ली और एक बार फिर से पुरानी यादों में घूमने लगा। अबकी बार मैं स्कूल के दिनों में पहुँच गया था। स्कूल मेरे गांव में पांचवी कक्षा तक ही था सो आगे की पढ़ाई के लिए दूसरे गांव में जाना होता था। दूसरे गांव में मैं और मेरे गांव के दोस्त साईकिलों पर जाते थे। साईकिल को हम खूब तेज लेकर जाते थे। एक दूसरे से आगे निकालने की होड़ में हमारी साईकिल सौ की स्पीड से चलती थी। एक दिन तो मेरी साईकिल ऐसी घुमी कि मैंने एक पड़ोस के गांव की लड़की झुनिया जो कि मेरी ही सहपाठी थी उसमें मार दी। बेचारी को बहुत चोट आई थी। वह मुझ पर गुस्सा करने लगी। झुनिया बड़े घर की लडकी थी। उसने अपने पिताजी को स्कूल में बुला लिया। उसके पिताजी ने मुझसे पूछा तो मैंने सारी बातें उसे बता दी और बताया कि यह सब मैंने जानबूझ कर नहीं किया। मुझे डांटने की बजाया उसके पिताजी ने झुनिया को ही डांटा और कहा कि एक तो तुमने इस लड़के के साथ ज्यादती की और इसे पीटा। यह बेचारा तो कुछ नहीं बोला इसने गलती मान ली। फिर भी तुम मुझे बुलाकर लाई। सारी गलती तो तुम्हारी हैं झुनिया। तुम से माफी मांगी। अभी मेरे सामने ही इससे माफी मांगो। बहुत कहने पर झुनिया ने मुझसे माफी मांगी। बस इस तरह से हमारा फैसला हो गया। मैं झुनिया से नजर नही मिला पा रहा था। मेरे कारण झुनिया को अपने पिताजी से इतना कुछ सुनना पड़ा। झुनिया भी मुझसे नफरत करने लगी थी। एक दिन की बात हैं कि कुछ शरारती लड़के झुनिया को छेड़ रहे थे। मैं उनके बीच में बोला तो उन लड़कों ने मुझे झमकर पीटा। मेरा सिर भी फोड़ दिया और हाथ तोड़ दिया। मैं हस्पताल में भर्ती हो गया। झुनिया को पता चला तो वह अपने पिताजी को लेकर मुझसे मिलने हस्पताल पहुँचे। वहां पर पहुँच कर झुनिया ने मेरा हाल पूछा और कहा - तुमने मेरे लिए ऐसा क्यों किया। मुझे तो ऐसी जाने कितनी मुसीबतों का रोज सामना करना पड़ता हैं फिर मेरे लिए अपने आपको तकलीफ क्यों दी । मैंने कहा - तो मेरा फर्ज था। ये तो आप थी। यदि इसकी जगह कोई ओर लड़की भी होती तो मैं उसको भी बचाने की कौशिश करता। अब वो सभी लड़के कहां हैं। झुनिया ने कहा कि - उन सभी को पुलिस पकड़ कर ले गई हैं। यह कहकर झुनिया वहां से चली गई। उसके बाद एक दिन झुनिया ने स्कूल में पीछे की तरफ मैदान में बुलाकर कहा कि - मैं तुमसे प्रेम करती हूँ। यह मेरे लिए एक अलग ही अनुभूति थी। हम दोनों एक-दूसरे से प्रेम करने लगे थे। एक दिन ऐसा भी आया कि जब उसके पिता हमारे पास के गांव को छोड़कर पती नहीं कहां चले गये। मैं झुनिया को ढूंढता फिरा। बहुत दिन ढूंढा परन्तु झुनिया का कहीं पता नहीं चला। यह सोच-सोचकर कर मेरी आंखों से आंसू बह निकले। तभी साथ बैठे सज्जन ने कहा अब क्या हुआ, भाई साहब अब कैसी याद आ गई जो आंखों से पानी छलक आया। मैंने कहा - कुछ नहीं भाई साहब बस यूं ही कोई ऐसी याद आई हैं जिसे भूल पानी बहुत ही मुश्किल हैं। पहला प्यार जीवन के गुजर जाने पर भी नही भुलाया जा सकता हैं। प्यार पता नहीं कैसा ऐहसास होता हैं। जो भूलाये नही भूला जा सकता हैं। कुछ ही समय बाद मेरे गांव का स्टेशन आ गया। स्टेशन पर उतर कर मैंने स्टेशन की भूमि को चूमा। फिर स्टेशन से निकलकर बाहर आ गया बाहर आने पर देखा कि यहां पर भी वही शहरों वाली भीड़ थी। बाहर रिक्शा लगी हुई थी। वही शहर वाले लोंगो सा पहनावा यहां भी देखने को मिल रहा था मगर अगले पल सोचा कि हो सकता हैं कि - यहां पर बाहर से आने वाले लोंगो के कारण ये शहर जैसा माहौल लग रहा हैं, हो सकता हैं गांव में वैसा ही माहौल होगा, जैसा मैं गांव का माहौल छोड़ कर गया था। अब वहां से पैदल पथ पन्द्रह-बीस मिनट का था। पहले जो रास्ता कच्चा था वहां अब उस पर सड़क बन चुकी थी। सड़क के दोनों किनारों पर कम्पनियां बन चुकी थी। जहाँ पर खेत थे वहां कंपनियां देख कर विस्मय हो रहा था। चलो मेरा गांव भी तरक्की कर रहा हैं। चलो अब गांव में पहुँच कर देखा जाए, कितनी तरक्की कर रहा हैं। गांव पहुँचने पर देखा कि जो मेरे दोस्त थे बचपन के वहीं सबसे पहले मिले। उनसे राम-राम हुई। मगर मुझसे मिल उन्हें वो खुशी नहीं हुई जो पहले हुआ करती थी। शाम को घर मिलने के लिए बोल मैं घर चला गया। घर बोल कर घर की सफाई करने लगा। घर पर एक पड़ोसी आया और उसने मेरा साथ दिया सफाई करने में। मैंने दो-तीन घंटे में ही पूरा घर साफ कर दिया। अब शाम होने को थी, सभी दोस्त भी आ गये। सभी आपस में अपने-अपने कार्य के बारे में बात करने लगे। सभी के देर बातचीत करने पर एक दोस्त से मैंने कहा क्या करें भाई, आज खाना कहां से मंगवायें और खाने में क्या पसंद करेंगें। मैं सोच रहा था कि शायद कोई दोस्त ये ही बोल दे कि मैं अपने घर में आपको खाना खिलाऊंगा। मगर उनमें से एक दोस्त कहने लगा यहां पास में ही एक होटल हैं। वह बड़ा प्रसिद्ध होटल हैं। बहुत दिन हो गये वहां का खाना खाये हुए। यदि तुम कहो तो वहीं से खाना ले आता हूँ। मैंने कहा - ये तो अच्छी बात हैं ले आओ। मैं भी वहां का खाना खाऊंगा। फिर वह कहने लगा ठीक हैं। पर पैसे तो दो। वहां थोड़ा महंगा खाना हैं। मैंने पांच सौ रुपये निकालकर दे दिए। वह दोस्त कहने लगा क्या यार इतने रुपये में तो खाना ही आयेगा, बाकि पीने का सामान भी तो लाना हैं। आज तो पूरी तरह से मजा लेना हैं। और रात को यहीं पर सोयेंगें अपने घर। मैंने पांच सौ रुपये पीने का सामान लाने के लिए और दे दिए। वह सामान लेने चला गया। और फिर से हम सभी दोस्त आपस में बात करने लगे। आधे घंटे में सामान आ गया। हम सभी आपस में खाने और पीने लगे और बारी-बारी से पुराने दिनों की याद करने लगे। उनके साथ मजा आ रहा था। हर पुरानी बात पर मैं बहुत खुश हो रहा था। साथ ही मैं ये भी सोच रहा था कि जिस गांव में अंजान लोंगो का भी आदर सत्कार होता था वहीं आज ये मुझे जानते हुए भी मुझ से पैसे लेकर मेरा ही खा रहे हैं, चलो कोई बात नहीं। ये भी अपने दोस्त ही तो हैं। इनको खिलाना कौन सी गलत बात हैं। हम सभी शाम को अंधेरा होने तक खाते रहे। फिर शाम को मैंने देखा कि पूरा गांव शहरों की भांति जगमग- जगमग करने लगा। वहां पर मैंने अपने पड़ोसी रामू काका से कहा कि - काका मैं यहां पर दो-चार दिन रुकने के लिए आया हूँ। आप मुझे घर में रोशनी करने के लिए एक बल्ब जलाने के लिए तार मेरे घर में भी डाल दो। पड़ोसी रामू काका कहने लगा देखो भाई आप तो ये जानते ही हैं कि बिजली का खर्चा कितना आता हैं आप चार-पांच दिन यहां रुकेंगें। एक दिन का पचास रुपया लूंगा। चाहे आप कुछ भी चला लेना। मैंने सोचा यहां तो शहर से भी बेकार काम हैं। चलो ये भी सही हैं जो इसने पहले ही बता दिया। इतना खर्चा लगेगा यदि बाद में बताता तो बुरा लगता मुझे। ठीक हैं काका, आप तार लगा दीजिए और ये लो तीन सौ रुपए बाकि बाद में जाते वक्त देख लूंगा। यह कह कर उनसे बिजली ले ली। अब रात को देखा कि हमारे समय में तो रात को जल्दी ही सो जाते थे। मगर अब तो यहां गांव में शहरों से भी बुरा हाल हो गया था। देर रात करीब 12 बजे तक मैं और मेरे दोस्त जागते रहे गली में देखा तो गली में भी सभी घूमते नजर आ रहे थे। गलियों में लाईट लगी हुई थी। रोशनी का काफी प्रबंध हो चुका था। चारों तरफ रोशनी ही रोशनी। मुझे अब भी नही लग रहा था कि मैं अपने गांव में आया हुआ हूँ ऐसा आभास हो रहा था कि अब भी मैं शहर में ही हूँ। मैंने सोचा अब तक तो जो कुछ हुआ सो तो ठीक हैं बाकि कल सुबह देखेंगे। रात को पूरी रात इसी फिक्र में नींद नहीं आई कि ये क्या हो गया, वो शहरों वाली हवा आज गांव में भी आ गई हैं। कोई किंसी को नहीं पहचानता। सभी अपनी मस्ती में हैं। बस पैसा ही यहां पर सब कुछ हो गया हैं। पैसे मांगते समय कोई नहीं हिचकता। अपने हो या पराये सभी को बस पैसा चाहिए। यहां भी इंसान को कम पहचानते हैं। पैसा ही सब कुछ हो गया है यहां भी । आदमी तो बदल गये हैं यहां । अब और क्या-क्या बदला है ये सुबह देखना है । यही सोचते-सोचते पता नही कब मुझे नींद आ गई । सुबह करीब नौ बजे मेरी आंखें खुली, मेरे सारे दोस्त अभी भी सो रहे थे । मैंने उठकर चाय बनाई, चाय बनाकर उन सभी को जगाया और उन्हें भी चाय पिलाई फिर मैंने उन्हें घुमने के लिए कहा- तो हम सभी खेतों में घुमने के लिए चल पड़े । गांव के दूसरे छोर पर जिधर कंपनियां नही थी वहां की जमीन भी बड़े-बड़े ठेकेदारों ने खरीद ली थी । इसलिए वो अभी भी खाली पड़ी थी वहां पर बिल्डिंग बनने वाली थी । वह ना बोने की वजह से बंजर भूमि की भांति लग रही थी । सदा हरियाली रहने वाली भूमि को बंजर देखकर मेरी आंखों में पानी आ गया । वहां पर घुमकर हम वापिस आ गये । घर आकर मैं नहाया फिर गांव का दौरा करने को निकला । इन पन्द्रह सालों में मेरा गांव पूरी तरह से बदल चुका था । शहरों में तब्दील होने जा रहा था मेरा यह गांव । जहां पर हम जोहड़ में नहाते थे वहां आज पार्क बन गया था । हर घर जो कच्चे और सुंदर लगते थे । वे अब पक्के हो चुके हैं । मैं फिर उस रास्ते पर गया, जिस रास्ते से स्कूल जाता और आता था । वह रास्ता पहले कच्चा होता था । अब पक्का हो चुका है । और वह रास्ते का घर जिसमें आम का पेड़ होता था वह घर अब बिल्कुल ही बदल चुका है उस घर में अब घर नही कोठी बन चुकी है । और आम के पेड़ की जगह पर शौकिन के पेड़ लगे हुए हैं । उसी रास्ते से मैं स्कूल पंहुचा। स्कूल में पहुंचकर देखा कि वहां पर हम नीचे बैठते थे और बालू रेत बिछा होता था । अब पूरे स्कूल में पक्का फर्श था। कमरों में बैठने के लिए लकड़ी के डेस्क लगे हुए हैं । यहां पर भी वही शहरों वाली आबो-हवा आई हुई थी फिर स्कूल के बच्चों से मिला मैं । जिस प्रकार से शहरों के बच्चें जींस-टीशर्ट में स्कूल आते हैं उसी प्रकार से यहां भी सभी बच्चे जींस और टीशर्ट में आए हुए थे । मैंने सिर में हाथ मारा और कहा- मेरा गांव, अब गांव नही रहा है । ये तो अब पूरी तरह से बदल चुका है । यहां पर ये कैसा गांव है । यहां भी आज शहरी आबो-हवा है । -:-०-:-