हुण्डी एक बार एक सेठ था । सेठ बूढ़ा हो चला था । एक दिन उसने अपनी पत्नी सेठानी से कहा- अब हमारी जिन्दगी न जाने कितने दिन की शेष रह गई है । अतः अब हमें अपने लड़के किरोड़ीमल की शादी किसी सुन्दर सी लड़की के साथ कर देनी चाहिए ताकि जीते-जी हम अपने पुत्र का घर बसाकर आराम से मर सकें और पित्तर ऋण से ऊऋणी हो जाएं । उसकी बात सुनकर शान्ति देवी ने कहा- ये तो आपने अच्छी बात सोची जी । मैं भी यही चाहती हूं । आप कल ही हमारे दूर के रिश्तेदार सेठ घीसाराम से मिल लो उसकी बेटी ल़क्ष्मी भी अब तो जवान हो गई होगी, वो इस रिश्ते से कतई इंकार नही करेगा । दूसरे ही दिन सेठ दुर्गाप्रसाद अपने दूर के रिश्तेदार घीसाराम के घर गया और अपने लड़के किरोड़ीमल के लिए घीसाराम की लड़की लक्ष्मी का हाथ मांग लिया । घीसाराम अपनी लड़की लक्ष्मी का हाथ किरोड़ीमल के हाथ में देने के लिए तैयार हो गया । विधि -विधान के साथ सेठ घीसाराम ने अपनी लड़की की शादी किरोड़ीमल के साथ कर दी । सेठ घीसाराम की लड़की का जैसा नाम था वह वास्तव में लक्ष्मी नाम के अनुरूप ही थी । वह सुन्दर, सुशील, सर्वगुण सम्पन्न थी । शादी के बाद लक्ष्मी कुछ दिन ससुराल रहकर वापिस अपने पिता के घर चली गई । कुछ दिन बाद सेठ दुर्गाप्रसाद ने अपने बेटे से किरोड़ीमल से कहा- देखो बेटा किरोड़ी अब हमारा कुछ नही पता कि हम कब स्वर्ग सिधार जाएं । हम चाहते हैं कि मरने से पूर्व अपनी पुत्रवधु को देख लें । यह सुनकर किरोड़ीमल अपनी पत्नी लक्ष्मी देवी को लेने के लिए चल देता है। उसके दो-तीन दिन बीतने पर उसके पिता दुर्गाप्रसाद स्वर्ग सिधार गया । उसके जाने के गम में उसकी पत्नी शान्ति भी स्वर्ग सिधार गई । अब दोनों का दाह-संस्कार कर दिया गया । किरोड़ीमल के पास इसकी कोई खर नही पहुंचाई गई । उनकी सारी जायदाद के वारिश सेठ दुर्गाप्रसाद के छोटे भाई जो कि दो थे (हजारी और हंसी) बन बैठे । ऊधर किरोड़ीमल भी पन्द्रह-बीस दिन में अपनी ससुराल पहुंचा । प्राचीन काल में पैदल चलने का मार्ग था इसलिए समय ज्यादा लग जाता था । अपनी ससुराल में वो चार-पांच दिन तक रूका और आराम किया । उसने अपने ससुर सेठ घीसाराम से एक दिन कहा- देखिए पिताजी, मेरे माता-पिता की हालत नाजुक है अतः मेरा आप से हाथ जोड़कर निवेदन है कि आप अपनी लड़की लक्ष्मी को जल्दी से तैयार कर दें मैं कल सुबह जल्द ही यहां से रवाना हो जाऊंगा । मुझे घर पहुंचने में फिर से पन्द्रह-बीस दिन लगेंगे । जब आया था तो अकेला था सो जल्दी ही पहुंच गया था । सेठ घीसाराम बोला-जैसी आपकी इच्छा, बेटे । मैं तो चाहता था कि आप मेरे घर एक-दो महीने रूकते, मगर अब जाने की जल्दी है तो मैं रोकूंगा भी नही । मैं आज ही आपके जाने का बंदोबस्त करता हूं । सेठ घीसाराम ने अपनी पत्नी निर्मला देवी से कहा - सूनती हो निर्मला, दामाद जी कह रहे हैं कि वो कल सुबह ही अपने घर रवाना होंगे । अपने मां-बाप अर्थात समधी और समधन की हालत नाजुक बता रहा है । अतः तुम लक्ष्मी बेटी को तैयार कर देना । कल सुबह ही चले जायेंगे । किरोड़ीमल जो अपनी बैलगाड़ी लेकर आया है वो पैदल आदमी की चाल से चलता है । अतः इन्हें पहुँचने में महीना भर लगेगा । निर्मला बोली- अजी ये तो बड़ी जल्दी हुई मैं तो सोचती थी कि दामाद जी हमारे यहां कम-से-कम महीना भर तो रूकेगा ही । चलो जैसी उनकी मर्जी । वह यह कहकर अन्दर चली गई । जिधर लक्ष्मी का कमरा था । लक्ष्मी अपनी सहेली सुनैना से बातें कर रही थी । निर्मला ने लक्ष्मी से कहा - लक्ष्मी चल अपने गहने और कपड़े संभाल ले कल सुबह ही तुझे अपनी ससुराल जाना है । यह सुन सुनैना बोली- अरी ताई, अभी जीजाजी को आए हुए चार-पांच दिन ही तो हुए हैं और अभी वह जाना चाहता है । ऐसी भी क्या जल्दी है । वैसे भी अब उसे दर्शन जाने कब होंगे, और पन्द्रह-बीस रोज रूक जाते तो क्या हो जाता । यह सुनकर निर्मला बोली-नही-री हमारी लक्ष्मी के सास-ससुर की हालत खराब है । उन्होनें ही लक्ष्मी से मिलने की इच्छा जाहिर की है । इसलिए इसकी तैयारी करने में तुम इसका हाथ बंटा दो । ठीक है ताई, सुनैना ने कहा । ओर एक कमरे की तरफ बढ़ गई । सुनैना अपनी सहेली लक्ष्मी से कहा -देखो बहन कल सुबह हम दोनों अलग-अलग हो जायेंगी चलो मैं तुम्हारा श्रृंगार कर देती हूं और उसकी आंखों में अश्रु आ गए मगर आंसू छिपाने के लिए सुनैना ने गहने उठाने के लिए मुंह फेर लिया । परन्तु उसके अश्रुओं को लक्ष्मी ने भांप लिये । लक्ष्मी का भी यही हाल हो रहा था । अश्रुओं को रोकने की कोशिश नाकामयाब रही । सुनैना ने उस तरफ मुड़कर देखा तो लक्ष्मी के गले जा लगी और बुरी तरह लिपट गई ऐसा लग रहा था मानो आज दोनों सहेलियां पूरी पृथ्वी को ही पानी से तर-बतर कर देंगी । बड़ी देर के बाद दोनों अलग-अलग हुई । अब सुनैना उसके साथ बातें करने लगी । दोनों रात को सोई तक नही । सुबह के चार पता ही नही कब बज गये । अब भी लक्ष्मी का कुछ श्रृंगार बाकी था । निर्मला ने बाहर से आवाज लगाई तो सुनैना ने कहा - बस कुछ देर और, अभी लेकर आई । जब लक्ष्मी कमरे से बाहर निकलकर आई तो ऐसा लग रहा था मानो सारा शौंदर्य उसके अन्दर समाहित हो गया हो । आज वह साक्षात लक्ष्मी स्वरूपा ही लग रही थी । उसकी विदाई के लिए गांव मौहल्ले के सभी औरत-बच्चे पुरूष आए । सभी की आंखों से पानी बह रहा था । सभी ने गीली आंखों से उसे विदा किया । गांव से बाहर कच्चे रास्ते पर सेठ किरोड़ीमल का गढ़वाला अपनी बैलगाड़ी लिये खड़ा था । अब लक्ष़्मी को बैलगाड़ी में बैठाया गया तो सभी फफक-फफक रोने लगे । अब किरोड़ीमल सेठ घीसाराम के पास विदा लेने के लिए आया । उसने घीसाराम के चरणों में प्रणाम किया और पास खड़ी निर्मला के भी पैर छुए । निर्मला ने उसे आशीर्वाद देते हुए और आंखें पोंछते हुए कहा- बेटा हमने लक्ष्मी को बड़े ही लाड-प्यार से पाला है । इसके लिए हमने सदा फूल बिछाए है मगर यह तुम्हारे साथ कांटों पर भी सोने को तैयार है । अगर इससे कोई भी भूल हो जाए तो उसे माफ करना । बैलगाड़ी में बैठी लक्ष्मी के पास निर्मला ने जाकर कहा- बेटी आज से तेरा पति ही तेरा भगवान है । यह जिस तरह से कहें वैसा ही करना । जिसमें पति को खुशी हो पत्नी को वैसा ही करना चाहिए । एक पतिव्रता औरत सूरज तक को भी विचलित कर देती है । उसके मन में पर पुरूष का भान तक भी नही होता । चाहें पति कितना भी बीमार क्यों न हो जाए मगर पतिव्रता और को चाहिए कि वह उसकी तन-मन से सेवा करे और उसके चरणों में विरक्त रहे । केवल शारीरिक भोग ही एक औरत का लक्ष्य नही होना चाहिए । शारीरिक संबंध तो एक वेश्या के भी अनेक लोगों से होते हैं मगर उसे वह शांति नही मिलती जो एक पतिव्रता औरत अपने बिमार पति के चरणों में रहकर भी प्राप्त कर लेती है । यह तर्क संगत संदेश देते-देते उसकी आंखों से पानी बह निकला और लक्ष्मी उसके गले से लगने को अपने हाथों को रोक ही न पाई । कुछ समय पश्चात् सेठ घीसाराम, निर्मला देवी के पास जाकर रूंधे गले से बोला-चलो निर्मला अब इन्हें चलने दो । अब इनका समय हो गया है । निर्मला, लक्ष्मी को छोड़कर सेठ घीसाराम के गले से लिपटकर रोने लगी । घीसाराम ने उसका ढंढस बंधाया और गाड़ीवान को गाड़ी हांकने का आदेश दिया । जब गाड़ी चली तो गाड़ी के साथ-साथ भी कुछ लोग और औरतें चली गाड़ी धीरे-धीरे चल रही थी । सभी की आंखों से विदाई के आंसू निकल रहे थे। पेड़ भी चुपचाप खड़े थे । उनका पत्ता तक नही हिल रहा था । ऐसा लग रहा था जैसे कि गांव वालों की तरह आज ये भी लक्ष्मी को विदा कर रहे हों, मगर तभी हवा का एक झोंका आया और रास्ते के दोनों और खड़े वृक्षों को बुरी तरह से हिलाया । उन्होंने अपने पत्तों की वर्षा कर दी । ऐसा लग रहा था वे उसे उपहार दे रहे हों । पत्तों के सिवाय उनके पास था भी क्या ? वे तो उसे केवल पत्ते ही दे सकते थे । करीब एक महीने के सफर के बाद ही वे अपने घर पहुंचे । सेठ किरोड़ीमल के आने-जाने में दो-सवा दो महीने में अपने घर पहुंचे थे । इस सारी जमीन-जायदाद पर उसके चाचाओं ने अधिकार कर लिया । किरोड़ीमल के पूछने पर पता चला कि उसके मां-बाप मर चुके हैं । यह सुन कर किरोड़ीमल पागलों की भांति रोने लगा । उसके साथ लक्ष्मी भी रो रही थी । गांव वाले उनको देख लेते मगर उनको सांत्वना देने कोई नही आया । तब लक्ष्मी ने देखा कि कोई भी नही आ रहा है तो वह खुद ही अपने आंसूओ को पोंछते हुए बोली- सूनिए जी, यह कैसा गांव है जो किसी को सांत्वना तक नही दे सकता। रहने को जगह कौन देगा । ये मेरे कुछ रूपये है जो मेरी मां ने विदा करते समय दिए थे । ये लो इनसे आप भोजन का प्रबंध करो । दोनों गांव से बाहर आ गए । वहीं पर जमीन से झाड़-झंखाड को उखाड़ कर उस जगह की सफाई की । वहां पर रहने के लिए एक छप्पर डाला, और दोनों वही पर रहने लगे । एक दिन लक्ष्मी ने अपने पति किरोड़ीमल को एक कागज देते हुए कहा - देखो जी, यह हुण्डी है अब आप इस हुण्डी को बाजार में लेकर जाएं और बेच देना, पर एक बात और इसे सौ रूपये से कम मत बेचना । और हां शाम तक आप इसे जरूर से जरूर बेचकर आना । सुबह होते ही सेठ किरोड़ीमल उस हुण्डी को लेकर बाजार में बेचने निकल गया । वह पूरे बाजार में घुसा । घुमते-घुमते शाम हो गई । अन्त में वह एक दुकान पर गया । जहां उस समय उस दुकान का मालिक घर गया हुआ था । और दुकान में सेठ का लड़का हजारी बैठा था । तब किरोड़ीमल ने उससे कहा- भाई मेरी ये हुण्डी खरीद लो । कितने रूपये की है, मैं खरीदूंगा तेरी ये हुण्डी । सौ रूपये की है । खुशी से किरोड़ीमल बोला । हजारी ने सौ गले से निकाल कर किरोड़ीमल को दे दिए और उसकी वह हुण्डी खरीद ली । किरोड़ीमल ने हुण्डी उसको दी और खुशी-खुशी घर लौट आया । घर आकर उसने वो सौ रूपये लक्ष्मी के हाथ में थमा दिए । लक्ष्मी खुशी से उछल पड़ी । पहले सौ रूपये काफी होते थे । उसने छान-छप्पर को हटाकर उसकी जगह एक मकान बनवाया और किरोड़ीमल के लिए दुकान बनवाई । इस हुण्डी से उनका घर तो संवर गया मगर सेठ हजारी प्रसाद का क्या हुआ । सेठ हजारी प्रसाद की कहानी हुण्डी के खरीदने से शुरू होती है । हुण्डी खरीदने के बाद हजारी प्रसाद ने उसे खोलकर देखा । उसमें लिखा था - 1. मां ममता की 2. पिता दाम का लोभी, 3. होत की बहन, 4. अनहोत का भाई, 5. गांठ का पैसा 6. पास की लुगाई, 7. उज्जैन शहर में विषयाबाई 8. सोवेगा वो खोवेगा, 9. जागेगा वो पावेगा । यह पढ़कर उसने हुण्डी को अपने पास ही रख लिया । शाम को जब उसके पिता सेठ लखपति दास दुकान में आया तो अपने गल्ले के सारे पैसे संभालने लगा । बार-बार संभालने पर भी उसने गल्ले में सौ रूपये कम पाए। घर आकर उसने हजारी प्रसाद से पूछा तो हजारी प्रसाद ने कहा - वो सौ रूपये तो मैनें ही लिये थे । उनकी मैंने हुण्डी खरीद ली है । यह सुनकर सेठ लाल-पिला हो गया । उसने हजारी प्रसाद को घर से निकल जाने को कहा। हजारी प्रसाद की मां मिश्री देवी ने सेठ लखपति दास को से कहा- क्या हुआ, जब बच्चे ने ये हुण्डी खरीद ली । वैसे भी हमारे पास धन की क्या कमी है । तुमने ही तो इसको सिर चढ़ा रखा है । आज की इस दुनिया चाहें जितने भी पैसे हों । सब कम हैं । मैं तो अब इसको इस घर में रखूंगा ही नही। यह सुनकर फिर मिश्री देवी कहने लगी-इसके सौ रूपये मैं आपको दे दूंगी । पर इसको घर से ना निकालिए । हमारे पास यही तो इकलौता लड़का है । यह भी घर से निकल गया तो हमारे पास क्या रह जायेगा । इसकी गलती को माफ कर दीजिए । आगे से ऐसा नही करेगा । घर के दरवाजे की दहलीज पर खडे हजारी प्रसाद के दिमाग में बार-बार हुण्डी वाली पहली दो बातें आ रही थी-मां तो वास्तव में ममता की ही मूर्त होती है पुत्र चाहे जैसा भी हो उसके लिए वही प्रिय होता है । दूसरी बात पिता के पास चाहे जितना भी धन हो कम है । वह एक दमड़ी तक फिजूल खर्च नही कर सकता । जान चली जाए पर दमड़ी न जाए । इसको अपने बेटे से प्यारा अपना रूपया होता है । यह सोचकर उसने घर छोड़ने का निश्चय कर लिया । वह अपने माता-पिता से बोला- मां औप पिताजी मैं अब इस घर में ही नही रहूंगा । मैं जा रहा हूं । और कभी इस घर में नही आऊंगा । यह सूनकर यह सूनकर उसकी मां कलेजा मुंह को आया । उसकी मां बोली-बेटा इस घर को छोड़कर मत जा । मगर उसका पिता बार-बार यही कह रहा था -जा निकल जा मेरी आंखों के आगे से दूर हो जा । जा अभी निकल जा और कभी मत आ जाना । यह सुनकर हजारी प्रसाद घर छोड़कर चल पड़ा । अब उसके दिमाग में तीसरी बात आई । वो थी होत की बहन वाली । वह अपनी बहन के घर जाने की सोचने लगा । वह अपनी बहन की ससुराल चला गया । गांव में पहुंच कर वह गांव से बाहर एक कुंए पर जा बैठा । गांव की पनिहारियों ने उससे पूछा तो उसने बताया कि-मैं राधा का भाई हूं । मेरा घर वालों से झगड़ा हो गया है । पनिहारियों ने घर जाकर राधा से बताया तो वो पांच-छः बासी रोटी और दो प्याज लेकर अपने भाई से मिलने आई । अपने भाई का हालचाल पूछा और कहने लगी - भाई ये खाना लेकर आई थी । इसे खा लेना । तेरे जीजाजी, गुस्सा करेंगे । इसलिए मैं तो चलती हूं । यह कह कर राधा वहां से अपने घर चली गई । अब हजारी प्रसाद सोचने लगा कि-हुण्डी में लिखी ये बात भी सत्य है कि बहन-भाई की तभी आवभगत करती है जब भाई के पास धन-दौलत होती है । निर्धन होने पर या घर से निकाले जाने पर बहन भी भाई की कोई इज्जत नही करती । यह सोचकर उसने उन रोटियों और प्याज को वहीं कुंए के पास गडढ़ा खोद कर दबा दिया । और चल पड़ा । उसने सोचा कि अब अनहोत के भाई अर्थात अपने दोस्त के पास जाकर देखता हूं । वो कैसी दोस्ती निभाता है । अब हजारी प्रसाद अपने दोस्त लीलमणी के पास गया । जब वह वह दोस्त के घर पहुंचा तो वह उस समय उनका दरवाजा बन्द था ं उसने बाहर से दरवाजे पर दस्तक दी । घर में उस समय लीलमणी की पत्नी कमला थी । उसने दरवाजा खोला तो वह हजारी प्रसार को देखकर बड़ी खुश हुई । उसे बड़े आदर के साथ घर के अन्दर ले गई । उसे खाना खिलाया और आराम से बिठाया । इतने में बाहर से लीलमणी भी आ गया । लीलमणी भी आ गया । लीलमणी ने जब अपने दोस्त हजारी प्रसाद को देखा तो उसके गले से लिपट गया । ऐसा लग रहा था मानो श्रीकृष्ण और सुदामा आपस में मिल रहे हों । गले से बिछुड़कर आपस में हालचाल पूछा । तब हजारी प्रसाद कहने लगा -मुझे तो मेरे माता-पिता ने मुझे घर से निकाल दिया है । और शुरू से लेकर आखिर तक की सारी कहानी बता दी । यह सुनकर उसके दोस्त लीलमणी ने कहा- कोई बात नही तुम्हारे पिता ने तुम्हें निकाल दिया तो क्या है ? मेरे साथ रहो । कल सुबह ही मैं अपने गांव में कोई अच्छी सी दुकान देखकर उसमें तुम्हारा सामान रखवा दूंगा । यदि कोई इच्छा हो तो कहो, तुम्हारी हर इच्छा पूरा करना मेरा फर्ज है । काम तो कोई जरूरी भी नही है । यदि चाहो तो करो । नही तो चाहे जितने दिन भी रहो घर तुम्हारा ही है । भगवान की दया से बहुत धन है हमारे पास । तुम्हारी भाभी तुम्हारी हर प्रकार से सेवा करेगी । इससे कोई गलती हो जाए तो मुझसे कहना । कमला बोली-देखिए जी, मेरी तरफ से इनको कोई शिकायत नही होगी । मैं अपने छोटे देवर को अपने जी से भी ज्यादा प्यार करूंगी । बहुत दिनों में ये आए हैं । मैं अपने देवर को कोई दुख नही होने दूंगी । अभी तो ये आएं हैं । और अभी आप दुकान के लिए कह रहे हैं । मेरा फूल के जैसा देवर काम करेगा । नही जी मैं इन्हें दुकान पर नही जाने दूंगी । यह तो मेरे पास ही रहेगा । और फिर अभी इसकी उम्र भी क्या हुई है । मैं ना करने दूंगी इन्हें दुकान-बुकान । यह सुनकर लीलमणी ने कहा-चलो जैसी तुम्हारी मर्जी । अपने देवर को चाहे जैसे रखो । मैं तुम्हारे बीच नही आने वाला । बहुत देर उनकी बातें सुनने के बाद हजारी प्रसाद ने कहा -तुम मुझ पर बहुत प्रेम दिखा रहे हो । इससे मैं बड़ा खुश हूं, मगर मैं तुम्हारे पास कितने दिन रहूंगा । मैं चाहता हूं कि कल सुबह ही मैं चला जाऊं । मैं अपनी ससुराल चन्दनपुर जाऊगां । कुछ दिन वहां ठहर कर कोई कारोबार करूंगा । और हां वहां से आते समय मैं आपके पास जरूर आऊंगा । यह सुनकर कमला ने कहा - अब आए हो तो दो-चार रोज हमारे पास रूक जाते तो हमारा मन भी तुम्हारे साथ-साथ बहल जाता और आज तक भी कभी तुम दो-चार घंटे से ज्यादा नही रूके । अब आए हो तो रूकना ही पड़ेगा । हारकर हजारी प्रसाद ने कहा - ठीक है भाभी । जैसी आपकी इच्छा, मगर चार दिन से ज्यादा नही रूकूंगा । चार दिन उनके पास ऐसे बीते कि पता ही नही चला । पता भी कैसे चलता, सभी सदा हंसते-खिलते रहते । चौथे दिन हजारी प्रसाद ने कहा- अच्छा भाभी, आज आप मुझे जाने की आज्ञा दें । आंखों में आंसू भरते हुए कमला ने कहा-देखिए देवरजी, आप यहां थे तो हमारा मन भी खूब लगा । अब आप चले जायेंगे तो घर सूना-सूना हो जाएगा । यह सूनकर हजारी प्रसार कहने लगा कि -जो प्यार मुझे यहां पर आपने दिया । उसका मैं ऐहसान जीवन भर नही भुलूंगा । पर अब तो मुझे जाना ही पड़ेगा । अतः अब आपसे विदा चाहता हूं । लीलमणी ने कहा- अभी ठहर जा, तेरी भाभी तेरे सफर के लिए खाना बना रही है । अब उसकी भाभी कमला ने उसके सफर के लिए चूरमें के चार पिंड बनाए, और चारों में नौ-नौ करोड़ के चार लाल रख दिए, ताकि उन्हें बेचकर कोई कारोबार कर सके, परन्तु उसने अपने देवर हजारी प्रसाद को इस बारे में बताया नही क्योंकि यदि बता देती तो वो लाल लेने से मना कर देता । उसके अर्थात हजारी प्रसाद के हाथ में चूरमे का थैला देते हुए कमला ने कहा- ले देवर, यह आपके रास्ते का खाना है और हां संभल कर ससुराल जाना । हमसे जो बना हमने किया । यदि हमसे कोई भूल हुई हो तो माफ कर देना । अपने हाथ में चूरमें को थैला लेते हुए हजारी प्रसाद ने कहा- लीलमणी, आप मेरे दोस्त ही नही अपितु आप तो मेरे बड़े भाई के समान के समान है आपने जो व्यवहार मेरे साथ किया । वह तो एक भाई भी अपने भाई के साथ नही करता । आपका ये ऐहसान मैं जीवन भर नही भुलूंगा। यह कहकर सेठ हजारी प्रसाद वहां से चल पड़ा और अपनी ससुराल चन्दनपुर जाने के लिए चल पड़ा । सेठ हजारी प्रसाद शाम होते-होते चन्दनपुर पहंुच गया । भूख लगी थी सो उसने सोचा कि गांव से बाहर खाना खा लिया जाए । वह गांव से बाहर एक पेड़ के नीचे बैठा और खाना खाने लगा । जैसे ही उसने चूरमे का एक पिंड फोड़ा उसके अन्दर एक लाल निकला । जिसकी कीमत उस समय नौ करोड़ रूपये थी । फिर दूसरा खाने के लिए फोड़ा उसमें भी एक लाल था । उसने बारी-बारी से सभी पिंड खाए और चारों में चार लाल निकले । यह देखकर वह बार-बार यही सोच रहा था कि-वास्तव में दोस्त हो तो ऐसा हो । खा-पीकर उसने चारों लाल अपनी जेब में रखे और गांव की ओर बढ़ चला । गांव में पहुंचने से पहले उसने एक लड़की को एक लडके से छुपकर बातें करते देखा । उस लड़की ने जब हजारी प्रसाद को देखा तो वह उसे पहचान नही पाई, मगर हजारी प्रसाद ने उसे जरूर पहचान लिया । जब तक वह उससे बातें करती रही । सेठ हजारी प्रसाद उनकी बातें छिपकर सूनता रहा। वह लड़की उसे रात को पास वाले खाली मकान में बुलाने के लिए कह रही थी । इतना कहकर वह जैसे ही मुड़ी, हजारी प्रसाद ने कहा- तुम लाजवन्ती होना । सेठ धर्मचन्द की पुत्री । लाजवन्ती ने सोचा-यह पुरूष कौन है जो मुझे इतना जानता है गौर से देखने पर उसे पता चला कि यह तो उसका पति हजारी प्रसाद है । और यह उसे मरवाने के साथ-साथ उसके घरवालों की बड़ी बदनामी करेगा । यह सोचकर और खुद को बचाने की चक्कर में वह जोर-जोर से चिल्लाने लगी- बचाओ-बचाओ बचाओ । रात के अन्धेरे में यह अजनबी मुझे छेड़ रहा है । गांव के सभी लोग इकट्ठा हुए । सभी ने उसको पकड़े हुए देखा । उसी समय सिपाही बुलाकर हजारी प्रसाद को जेल में बंद कर दिया गया । सेठ हजारी प्रसाद ने एक भले युवक को बुलाकर पूछा कि-ये बताओ, ये लड़की कौन है और किसकी पुत्री है । तब उस भले आदमी ने कहा कि-ये सेठ धर्मचन्द की पुत्री है लाजवन्ती । बड़ी शरीफ है, परन्तु आज तुमने तो सारी सीमाएं तोड़ दी । क्या इज्जत रहेगी । हमारे गांव में इसकी । जब इसके ससुराल वालों को ये खबर पता चलेगी, तो पता नही । ये हमारे गांव की इस लड़की को ले भी जायेगें या नही । दूसरे दिन हजारी प्रसाद को राजा के पास ले जाया गया । एक तरफ लाजवन्ती तो दूसरी तरफ हजारी प्रसाद था । राजा ने लाजवन्ती से पूछा तो उसने वही शाम वाली बातें बताई और पूरी सभा में कहा - इस विषय में मेरे मां-बाप को कोई न बताए । अन्यथा उनके दिल पर क्या बीतेगी । राजा ने हजारी प्रसाद से पूछा- तुम्हें इस विषय में कुछ कहना है । हजारी प्रसाद ने ना में सिर हिलाया । अब राजा ने कहा-इस युवक ने हमारे राज्य के गांव में हमारी प्रजा, हमारी बेटी और हमारी इज्जत की तरफ आंख उठाई है । हम इसे सूली तोड़ने अर्थात फांसी की सजा सुनाते हैं । इसे आज शाम को जल्लाद फांसी पर लटका दें । ये हमारा हुकम है । अब हजारी प्रसाद को जल्लादों के सुपूर्द कर दिया गया । जल्लाद उसे फांसी वाले कमरे में लेकर गये । अब चार जल्लादों को देखकर वह सोचने लगा-ये तो मुझे सचमुच ही मार देंगे । यदि ये मुझे छोड़ दे तो इसके बदले मैं इन्हें चार लाल भी दे सकता हूं । धन तो आने-जाने वाली चीज है । आज मेरे पास है कल किसी ओर के पास होगी, मगर जिन्दगी तो केवल एक बार ही मिलती है । यह सोचकर उसने जल्लादों को पास बुलाया और पूछा कि आप जल्लाद है । इसलिए आप मेरे सवाल का जवाब दे । मुझे मारकर आपको क्या मिलेगा । जल्लादों ने कहा-हमें कुछ नही मिलेगा, मगर ये राजाज्ञा है इसे तो मानना ही पडे़गा । यदि तुम मुझे छोड़ तो मैं तुम्हें नौ-नौ करोड़ के चार लाल दे सकता हूं । जिन्हें तुम आपस में बांट लेना और इस जल्लाद वाले घृणित काम को छोड़कर कोई अच्छा सा काम करना । एक जल्लाद ने पूछा-हमारा राजा यदि पूछेगा कि क्या हमने उस आदमी को मार दिया तो हम क्या जवाब देंगे । तो राजा से कहना कि हमने उसे मारकर कुंए में डाल दिया है , और राजा की नौकरी छोड़कर आराम की जिन्दगी बसर करना, हजारी प्रसाद ने कहा । जल्लादों ने उसकी बात मान ली और एक-एक लाल लेकर उसे छोड़ दिया । वह उसी रात को वहां से अर्थात चन्दनपुर गांव को छोड़कर उज्जैन नगर जाने के लिए रवाना हो लिया । परन्तु उसके मन में बार-बार यही सवाल आ रहा था कि -यदि पास में पैसा हो तो वह कहीं भी काम आ सकता है । जैसे आज इस धन ने मेरी जान बचाई है और दूसरी बात यह कि -औरत चाहे कैसी भी हो सर्वगुण सम्पन्न या सभी लक्षणों से युक्त , वह यदि अपने से दूर रखी जाए तो इन्हीं गुणों के आड में वह कुल्टा स्त्र.ी बन जाती है ओर समय आने पर वह अपने पति तक को नही छोड़ती । वह नागिन बन जाती है और अपने सगे-संबंधियों या मां-बाप को भी डस लेती है । औरत जब तक ही औरत रहती है तब तक वह अपने पति के साथ रहती है । पति से दूर रहने पर वह चरित्रवान होने पर भी दुश्चरित्र या कुल्टा स्त्री बन जाती है । सात-आठ दिन के सफर के बाद ही वह उज्जैन नगरी में पहुंच गया । वहां के राजा प्रताप सिंह की एक बेटी थी । जिसका नाम था विषयाबाई । राजा ने शहर के बीचोंबीच अपनी बेटी विषयाबाई के लिए एक महल बनवाया था । विषयाबाई उसी महल में रहती थी । वह रोज एक आदमी की बलि मांगती थी । हजारी प्रसाद जैसे ही उस नगर में दाखिल हुआ तो उसे किसी स्त्री के रूदन की आवाज सुनाई दी । वह उस आवाज को सुनकर उस आवाज की दिशा की तरफ बढ़ चला । कुछ ही देर में वह उस घर के सामने था जहां से वह रोने की आवाज आ रही थी । उस घर में कमरे के नाम के पर एक छप्पर बना हुआ था । छप्पर पर कहीं फूंस था तो कहीं पर बिना फूस के ही था । आंगन के नाम पर एक चौड़ा सा आंगन था । आंगन के बीच में एक जगह पर एक बुढिया अपने सोलह-सत्रह साल के पौते को नहला रही थी और जोर-जोर से रो रही थी । साथ-साथ कह रही थी आज आखिरी दिन मैं तुझे नहला रही हूं । आज शाम को ही तु विषयाबाई की भेंट चढ़ जायेगा । वह लड़की बेवा तो मुझे पहले ही कर चुकी थी आज तुम्हारे जाने के बाद मैं निपूती भी हो जाऊंगी । आपको कोई निपूती नही कर सकता है मां । आपके बेटे की जगह आज मैं वहां जाऊंगा । आपका पुत्र आपके पास ही रहेगा । आज उस विषयाबाई के बारे जरा विस्तार से बताएं मां । बुढिया कहने लगी -आप कौन हैं बेटा । रूंदे गले से आवाज आई । बेटा तो मेरा ही जायेगा । आप जाएं या ये मेरा बेटा गौतम । तुमने भी तो मुझे मां ही कहा है । अतः तुम भी मेरे बेटे ही हो । हजारी प्रसाद ने कहा -मां मेरा नाम हजारी प्रसाद है । मैं गौतम का बड़ा भाई हूं । अतः गौतम से पहले मैं वहां जाऊंगा । बड़े का कर्तव्य है कि वह अपने छोटे भाई की रक्षा करे और फिर जिसकी मौत आई है उसे कौन बचा सकता है और जिसकी मौत नही उसे कौन मार सकता है । अतः अब आप गौतम को छोडि़ए और मुझे नहलाकर तैयार कीजिए । अब तो बुढिया जोर-जोर से रोने लगी । नही बेटा मैं तुझे वहां नही भेज सकती । अच्छा ठीक है मुझे वहां मत भेजना पर मुझे नहला सकती हैं ना आप । और कुछ उस विषयाबाई के बारे में भी बतला दें । हजारी प्रसाद ने बुढिया से बड़े प्यार से कहा । बुढिया बोली- चल आजा तुझे भी नहला दूं । तू भी तो मेरा ही बेटा है । बुढिया ने आंसू पौंछे और उसे नहलाने लगी । नहला कर वह हजारी प्रसाद से विषयाबाई के बारे में कहने लगी - यहां के राजा प्रताप सिंह की एक पुत्री थी जिसका नाम मृगनयनी था । बारह-तेरह साल की उम्र में उसके अन्दर एक शैतान आत्मा घुस गई । और उस दिन से वह रोज एक नरबलि मांगती है । राजा ने उसके लिए अलग से एक महल बनवा दिया है । वह लड़की वही पर अचेत मुद्रा में पड़ी रहती है । राजा उसके लिए रोज एक नरबलि भेजता है । वह हर आदमी को अपने विष से मारती है । इसलिए उसका नाम विषयाबाई पड़ा है । आज गौतम की बारी है । यह कह कर फिर से बुढिया फफक पड़ी । आप रोईये मत मां । आपके पुत्र को कुछ नही होगा । मैं जाऊंगा, इसकी जगह । भगवान से प्रार्थना कीजिए कि मैं सही सलामत बाहर आऊं । अब संध्या हो गई है अतः मां मुझे चलने की आज्ञा दीजिए । बुढिया ने रोते-रोते उसे विदा किया । आप मत रोईये मां । कल सुबह मैं जिंदा वापिस लौटूंगा । जब हजारी प्रसाद विषयाबाई के महल की तरफ चला तो वहां का राजा प्रताप सिंह उसे रास्ते में मिला । प्रताप सिंह ने पूछा कि - आप कौन हैं ? आज तो बुढिया के बेटे गौतम की बारी थी । तुम तो गौतम नही लगते । बताओ अजनबी तुम कौन हो । जी आपने ठीक पहचाना । मैं यहां का नही हूं । मेरा नाम हजारी प्रसाद है । गौतम की मां का रूदन मुझसे देखा नही गया । इसलिए मैं उसके बेटे गौतम की जगह खुद यहां आया हूं राजा ने कहा- कल फिर बुढिया के बेटे गौतम की बारी आयेगी । आज तो तुमने उसे बचा लिया । कल कौन उसे बचायेगा ? यह सुनकर हजारी प्रसाद बोला - ऐसी नौबत ही नही आयेगी । मैं इसकी तह तक जाकर उस शैतान का खात्मा करके ही लौटूंगा । आप भगवान से प्रार्थना करें कि मैं आपकी बेटी को भी उस शैतान के चंगुल से बचा सकूं । राजा ने कहा- यदि तुम उस शैतान को खत्म कर दोगे और मेरी बेटी को नींद से निजात दिला दोगे तो मैं शपथ खाता हूं कि मैं अपनी बेटी मृगनयनी की शादी तेरे साथ ही कर दूंगा और अपने राज्य का आधा भाग भी तुझे उपहार स्वरूप दे दूंगा । यह सुनकर हजारी प्रसाद ने अन्दर जाने की राजा से आज्ञा ली । जब हजारी प्रसाद अन्दर गया तो अन्दर घुप अंधेरा था । हजारी प्रसाद ने टटोलते हुए वहां पर एक मशाल ढूंढी पत्थरों को टकराकर मशाल जलाई। कुछ रोशनी हुई । उसमें विषयाबाई को देखा तो वह उस पर आसक्त हो गया । वह लड़की निद्रा में थी, मगर ऐसी लग रही थी कि जैसे उठकर वह अभी उससे बात करेंगी । वह बहुत ही सुन्दर थी । अप्सरा भी उसके आगे फीकी लगें । वाकई वह बहुत ही सुन्दर थी । हजारी प्रसाद उसके निकट जाकर सोने को हुआ तो उसके दिमाग में हुण्डी पर लिखे अंतिम शब्द घुमने लगे । जागेगा सो पायेगा और सोयेगा वो खोयेगा । यह सोचकर मशाल वाले कोने में जाकर बैठ गया । रात को ठीक बारह बजे के करीब उस लड़की विषयाबाई के मुंह से काला सर्प निकलने लगा-और हजारी प्रसाद की तरफ बढ़ने लगा । हजारी प्रसाद के पास एक डंडा पड़ा था । हजारी प्रसाद ने डंडा उठाया और उस सांप को दे मारा । वह सांप के फनप र लगा । जिसके लगते ही सांप मर गया । सांप की लम्बाई बीस से पच्चीस फीट के करीब होगी, रंग स्याह, वनज करीब बीस-पच्चीस किलोग्राम था । सारी रात हजारी प्रसाद सोया नही । उसे भय था कि-कहीं फिर से कोई ओर संाप न आ जाए । सुबह हुई, तब तक विषयाबाई की आंखें खुली । उसने हजारी प्रसाद को देखा ओर पूछा- आप कौन हैं ? यहां किसलिए आएं हैं ? हजारी प्रसाद ने कहा-जी मेरा नाम हजारी प्रसाद है । आपके अन्दर यह शैतान काला नाग था जो कि इंसानों की बलि मांगता था । उसी बलि के लिए मैं भी यहां आया था, मगर मैंनें आज उसे खत्म कर दिया है । आज के बाद यहां किसी की भी बलि नही चढ़ेगी । अब आप ठीक हैं राजकुमारी जी । चलिए राज महल चलते हैं । जब दोनों कोठरी से बाहर निकले तो सभी चकित थे आज यहां से यह युवक जिंदा कैसे निकला, और इसके साथ राजकुमारी जी भी जिंदा व स्वस्थ बाहर निकल आई । जब दोनों राजा प्रताप सिंह के सामने गये तो राजा को बड़ी प्रसन्नता हुई और राजा को विस्मय भी हुआ । राजा के पूछने पर हजारी प्रसाद ने सारी कहानी बतला दी । राजा बड़ा ही खुश हुआ । राजा ने कहा- तुमने अपना काम पूरा किया। अब मैं अपना काम पूरा करूंगा । तुम्हारे साथ अपनी बेटी मृगनयनी का विवाह करके । कोइ्र अच्छा सा मुहर्त देखकर मैं अपनी बेटी का विवाह तुम्हारे साथ अवश्य कर दंूगा । राजा से विदा लेकर हजारी प्रसाद बुढिया के घर गया । गौतम से मिला और गौतम उसे अपनी मां के पास लेकर गया । बुढिया ने हजारी प्रसाद को छाती से लगा लिया और रोने लगी । हजारी प्रसाद ने उसे चुप करते हुए कहा- देख मां मैं जिंदा वापिस लौट अया । आप फिर भी रो रही हो । अब तो आप चुप हो जाओ । देखिए मैं जिंदा हूं । अब गौतम को भी कोई खतरा नही है । वह भी जिंदा ही रहेगा तेरे पास । कुछ दिन वह बुढिया के पास रहा । एक दिन राजा ने राजकुमारी से विवाह का संदेशा बुढिया के पास भेजा तो बुढिया बड़ी खुश हुई । उसने हजारी प्रसाद का विवाह राजकुमारी से कर दिया । विवाह के बाद आधे राज्य का राजा गौतम को बना दिया और स्वयं मृगनयनी के साथ सुखपूर्वक रहने लगा । एक दिन मृगनयनी ने हजारी से कहा-क्या मेरी ससुराल भी है । इतना सुनकर हजारी प्रसाद ने कहा-हां हैं ना, तेरी ससुराल । तेरी सास है ससुर है । अर्थात मेरे मां-बाप हैं । सब हैं घर में । तो फिर मैं अपनी ससुराल जाना चाहती हूं । मुझे अपनी ससुराल जाना है । कृपया मुझे मेरी ससुराल ले चलिए । उसकी जिद्द पर हजारी प्रसाद ने कहा- आज-आज ठहर जाने दो हम कल सुबह ही अपने गांव जायेंगे । मैं आज ही तुम्हारे पिता से बातें कर लूंगा और तुम चलने की तैयारी करो । हजारी प्रसाद राजा के पास गया और बोला - महाराज मैं और मृगमयनी कल सुबह ही मेरे गांव अर्थात अपने माता-पिता के पास रवाना होंगे । राजा ने कहा - बड़ी अच्छी बात है । हम तुम्हारे जाने का इंतजाम करा देंगे मगर हमारी तो यही इच्छा थी कि अभी और कुछ दिन हमारे पास रूक जाते । दूसरे दिन सुबह ही हजारी प्रसाद के महल के आगे दो रथ खडे थे और विदा करने लिए स्वयं राजा प्रताप सिंह और उसकी रानी मायावती आई थी । राजा ने हजारी प्रसाद से कहा- अब तुम अपने गांव जा रहे हो मैं तो चाहता था कि कुछ दिन और ठहर जाते, मगर अब जा ही रहे हो तो हमारी तरफ से ये धन से भरे हुए दो रथ आप स्वीकार करें और हमारी तरफ से अपने माता-पिता को हमारा नमस्कार कहना । फिर मायावती बोली- बेटा हमारी ये फूल सी बच्ची अब आपको सौंप रहे हैं । हमने इसे जी भरकर देखा तक भी नही था । कि अब आप इसे लेकर जा रहें हैं । हमारी आपसे प्रार्थना है कि यदि इससे कोई भूल भी हो जाए तो माफ कर देना । अब उनसे विदा ले मृगनयनी और हजारी प्रसाद दोनों रथ में बैठ लिए । हजारी प्रसाद ने रथ चलाने वाले को आदेश दिया कि पहले हम चन्दनपुर चलेगें । यह सुनकर मृगनयनी बोली- हमारा छोटा रास्ता हो ईधर से है फिर चन्दनपुर क्यों ? हजारी प्रसाद बोला-वो मेरी पहली ससुराल है । वहां जाना बहुत जरूरी है । अब दोनों चन्दनपुर पहुंच गये । उन्होंने गांव से बाहर ही रूकने का प्रबंध किया । अब वह मृगमयनी से बोला- मृगनयनी तुम आओ । हम मेरी पहली पत्नी के मायके चलते हैं । दोनों सेठ धर्मचन्द के घर पहुंच गये । सेठ धर्मचन्द ने हजारी प्रसाद को देखते ही पहचान लिया और कहा- आपको तो मैनें पहचान लिया पर आपके साथ ये कौन हैं ? जी ये मेरी धर्मपत्नी है मृगनयनी है । आपने दूसरी शादी कर ली बेटा और हमें बताया तक नही । क्या हमारी बेटी सुन्दर नही अथवा कोई ओर कारण हो सो कहो । तब हजारी प्रसाद ने सम्पूर्ण कहानी बतला दी । धर्मचन्द को एक बार तो विश्वास ही नही हुआ । मगर जब उसने अपनी बेटी लाजवन्ती से पूछा तो उसने भी सारी बात स्वीकार कर ली । अब सच्चाई सामने आ गई । धर्मचन्द ने लाजवन्ती को डांटा, फटकारा । लाजवन्ती ने हजारी प्रसाद से कहा- स्वामी मैं तो तुम्हारे चरणों के धूल के बराबर भी नही हूं । और ना ही मैं आपके लायक हूं । मैंने आपको मरवाने की कोशिश की है । अपने यार को बचाया मगर उसने भी मुझे धोखा दे दिया । वह मुझे गर्भवती करके भाग गया । मैं सोच रही थी कि किसी तरह से आपसे मुलाकात हो और आपसे माफी मांग सकूं । मैंने ऐसी गलती की है जो माफी के लायक तो नही है मगर आप मुझे माफ कर दे ंतो मैं आराम से मर सकूंगी । हजारी प्रसाद ने कहा-मैं तुझे अपना तो नही सकता मगर माफ जरूर किए देता हूं और हां तुम्हारी इस गलती को किसी ओर से भी नही कहूंगा ताकि तुम्हारी इज्जत दुनिया की नजरों में ज्यों की त्यों बनी रहे । यह सुनकर लाजवन्ती ने हजारी प्रसाद के चरण छुए और एक तरफ चली गई । गांव से बाहर एक नदी बहती थी । उसकी तेज धार में लाजवन्ती गुम हो गई । हजारी प्रसाद उसे रोकना चाहा मगर वह तो पानी में ऐसे चली गई जैसे कोई मछली पानी से ऊपर उठकर फिर उसी में विलीन हो जाती है । हजारी प्रसाद कुछ दिन धर्मचन्द के यहां रूका फिर विदा ली । सेठ धर्मचन्द ने कहा-मेरी बेटी तो रही नही मगर मृगनयनी भी मेरी बेटी ही है । मृगनयनी तुम हमें भी याद कर लेना । विदा लेकर दोनों रथ में सवार हो गये । अब हजारी प्रसाद ने सारथी से कहा- अब आप रथ को मित्रापुर ले चलिए । मित्रापुर मेरे दोस्त का घर है । आपका दोस्त ? मृगनयनी बोली हां मेरा दोस्त लीलमणी । जिसने मुझे भाई से भी बढकर प्रेम किया । वाकई वो मेरा दोस्त ही नही, बड़ा भाई भी है । कुछ ही दिनों में वो मित्रापुर पहुंच गये । आज तेरह सालों में वह मित्रापुर आया था । मित्रापुर में सेठ लीलमणी को पता चला कि उसका दोस्त आ रहा है तो उसने अपनी पूरी गली को सजवा दिया । पूरे घर में इत्र का छिड़काव किया गया । उन दोनों के लिए अलग से एक कमरे का बंदोबस्त किया फिर स्वागत करने के लिए दोनों पति -पत्नी बच्चों संहित आ गये । सभी ने बड़े प्रेम से उनका स्वागत किया । कमला के पूछने पर हजारी प्रसाद ने अपनी सारी कहानी बता दी और चार लाल देने के लिए धन्यवाद भी दिया । वह वहां पर करीब बीस-पच्चीस दिन रूका । भाभी कमला ने देवर हजारी प्रसाद व देवरानी मृगनयनी की खूब खातिरदारी की फिर कुछ धन देकर हजारी प्रसाद ने भाभी कमला और भाई अर्थात लीलमणी से विदा ली । उनके बच्चों को भी आशीर्वाद दिया और वहां से चल पड़े फिर उसने गाड़ीवान को आदेश दिया कि अब रथ को मेरी बहन की ससुराल खडगपुर की ओर ले चलिए । कुछ ही दिनों में वे खडगपुर पहुंच गये और उसी कुंए पर रूके जहां पर हजारी प्रसाद जाते समय रूका था । कुएं की पनिहारियों ने पूछा तो उसने बताया कि -इस गांव में मेरी बहन राधा है । गांव की पनिहारियों ने राधा को बताया तो वह सजधज कर और आरती की थाली हाथ में लेकर अन्य औरतों को साथ लेकर मंगलगीत गाती हुई । पहले भाई की आरती उतारी फिर भाई के गले लगी और भाभी के गले लगी । फिर भाई से कहने लगी- चलो भाई अब घर चलो तुम्हारे जीजाजी तुम्हारा इंतजार कर रहा है । यह सुनकर हजारी प्रसाद वहां गया जहां उसने प्याज और रोटी धरती में दबाई थी । वहां धरती खोदी तो उसमें रोटी तो खराब हो चुकी थी और प्याज वहां उगी हुई थी उन्हें उखाड़कर अपनी बहन को दिखाते हुए कहने लगा- जब मेरे पास कुछ नही था तो आप मेरे लिए सूखी रोटी और ये प्याज लेकर आई थी और आज जब मेरे पास सबकुछ है तो आप मिठाई और पकवान लेकर आई हैं । मैं नही खाता आप इन्हें वापिस ले जाईये, मगर मृगनयनी ने कहा- स्वामि यदि इससे गलती हुई तो क्या हुआ ऐसा तो होता ही है गरीबी में कोई साथ नही देता । अब आप इन्हें माफ कर दें । देखिए आपकी बहन राधा कैसे अश्रु बिखेर कर पश्चाताप कर रही है । हजारी प्रसाद ने उसे माफ कर दिया । और उसके साथ उसके घर गया वहां कुछ दिन रहने के बाद अपने घर गांव की तरफ रवाना हुआ । पिछली बातों को सोच-सोच कर उसका मन बार-बार भर आता था । वह सोच रहा था कि आज वह तेरह वर्ष बाद अपने गांव जा रहा है । उसके मां-बाप कैसे होंगे । उसका गांव बदल गया होगा । ऊधर जब उसके मां-बाप को पता लगा कि उनका बेटा हजारी आ रहा है तो वो कहने लगे हमारा बेटा वास्तव में आ गया है । यदि वो हमारी आंखों पर हाथ रख देगा तो हमारी आंखों की रोशनी वापिस आ जाएगी । जब हजारी प्रसाद अपने घर पहुंचा तो उसके मां-बाप एक जगह अंधे हुए बैठे थे । जैसे ही मां के समीप पहुंचा तो उसके स्तनों में दूध ऊतर आया । उसने अपने बेटे को छाती से लगा लिया । हजारी प्रसाद ने अपने पिता लखपती दास के गले से लगकर खूब रोया फिर उसके पिता सेठ लखपती दास ने अपने बेटे हजारी प्रसाद से कहा- बेटा मुझे माफ कर दो । मैनें धन के लालच में आकर अपने बेटे को खो दिया था । तब हजारी प्रसाद ने मां मिश्री देवी और पिता की आंखों पर हाथ फेरा तो उनकी आंखों की रोशनी वापिस लौट आई फिर सेठ लखपती ने अपना सारा कारोबार हजारी प्रसाद को सौंप दिया और कामकाज से मुक्ति पा ली । अब सारा परिवार हंसी-खुशी से रहने लगा । एक हजारी प्रसाद ने अपने पिता सेठ लखपती को हुण्डी वाली सारी बात बताई तो सेठ लखपती अपने आंसू ना रोक सका । सौ रूपये की हुण्डी ने लखपती सिंह को करोड़़पति बना दिया । लेकिन उसे दौलत नही आज दौलत से प्यारा अपना बेटा और पुत्रवधु प्राप्त कर लिये । अब भी सेठ लखपती को हुण्डी की बात याद आते ही रो पड़ता और सोचता -दौलत से बढ़कर भी कुछ है, और वो है रिश्ते-नाते । मैं हमेशा दौलत के पिछे भागता रहा । कभी कोई अच्छा काम नही किया । मुझसे अच्छा तो मेरा बेटा रहा । जिसने सौदा भी किया और उसमें मुनाफा भी कमाया । ऐसा सौदा मैंने नही किया । मुझे तो घाटा ही घाटा रहा । -:-०-:-