अहा; कितनी सुहानी, अदभुत पूर्णिमा की चाँदनी, कितनी मनमोहक ।
टहलत-टहलतेमैंने चाँद को देखा, कितना सुंदर, निर्मल,शीतल।
मन में प्रसन्नता छा गई ।
मैनें चाँद से पूछाँ ?
तुम इतने सुन्दर क्यों हो ?चाँदी सी दूधिया सफेदी कहाँ से पाई ?
अपनीशीतल किरणों से सबको आल्हादित करना किसने सिखाया ?लगता है ईश्वर की बनाई प्रकृति की सबसेअनमोल वस्तु हो तुम ।तुम्हे स्वयं पर घमंड नही होता ।
मेरे प्रश्नो को सुन समा थम सा गया था।
थोडी देर में एक दर्द भरी आवाज को सुन मैं चौंक गई ।
कितना दर्द था उस आवाज में,क्या दूसरों को प्रसन्नता प्रदान करनें वाला इस कदर भी दुखी हो सकता है?
उसनें कहा --
"क्या तुममेरी अतंर्व्यथा सुनना चाहोगी ?
सौन्दर्य और दर्द एक साँथ !....
हाँ मैं जरूर जानना चाहूँगी तुम्हारा दर्द।
चाँद ने कहा .....
"यह रूप, यह रंग जिस पर तुम गर्व कर रही हो ,तिल तिल कर संजोंया है मैनें।यह साश्वत नही है।कतरा कतरा खुद को संजोया है मैनें,तब कहीं जाकर आज मैनें पूर्णता पाईहै।
किन्तु मुझे मालूम है कल से ही गल गलकर मैं पुनः विकृत हो जाऊगाँ ।
अमावस मेरे अस्तित्व को ही नकार देता है ।फिर जुडना फिर गलना ,यही क्रम चलता रहता है ।मैं थक गया हूँ इस बनने बिगडनें से ।
लेकिन मुझे चलते रहना है ,इसी क्रम में,आखिर यही तो मेरी जिन्दगी है।
उसका दर्द आसुओं में बह चला जो धरती पर.आकर ओस की बूदें बन गया। थोडा सम्हल कर उसनेफिर से कहना शुरू किया ।
तुम किस रंगकी बात कर रही हो। जिस पर जमानें भर की बुराईयों का धब्बा लगा हुआ है ।लोगों ने अपनें मन की कडवाहट मुझ पर निकाली फिर भी मैं चुप रहा।
और ये शीतल किरणें इन्हें तुम मेरा कैसे कह सकती हो ।
विग्यान कहता है कि ये प्रकाश सूरज का है ,मैनें उसे चुराया है।
हाँ की है मैनें चोरी ,क्या गलत किया?
वह लोगों को झुलसाता है,
थोडा सा प्रकाशप्रकाश लेकर उसे शीतल किया,फिर जले हुये हृदयों पर मरहम की तरह बिखेर दिया ।
यही है मेरा गुनाह।
(कुछ संतोष की साँसें भरकर ---)
"लेकिन कोई बात नहीं ,"मैं अकेला नहीं हूँ ,ईश्वर की कृतियों में मुझ समान दर्द झेलने वाला एक प्राणी और भी है।
कौन है वो? मैनें आश्चर्य से पूछाँ।
" नारी" कितनी समानता है मुझमें और नारी में।
बहुत ही सुंदर ,कोमल,अपने गुणों से सबको शीतल करती हुई ,ईश्वर की अद्वितीय कृति,पर कितनी दुखी ।
कितनें खुदगर्ज होतें हैं लोग ,उसके सौंन्दर्य का महज रसपान ही करना ही चाहते हैं उसे शाश्वत बनाना नही ।
मैं रात भर रोता हूँ तो उसे ओस की बूँदें बतातें हैं,जब नारीरोती है तो उसके आँसूओं को कोमलता ,कमजोरी, निर्बलता,और कायर की संज्ञा दी जाती है ।
जिस तरह मेरी किरणों को मेरा कहनें से लोग कतरातें हैं ,उसी तरह नारी अपनें गुणों में कितनी ही महान हो,पर उसके गुणों को दूसरों के सामनें उजागर करनें मेंलोग डरतें हैं ।इसीलिये दबातें हैं सेविका की निगाहों से देखतें हैं उसे।
मेरी ही तरह वह भी तिल तिल कर जुडती है, और एक झटके में तोड दी जाती है।फिर वह जुडती है नये सिरे से,फिर नया सृजन इसी उम्मीद के साँथ की शायद अब वह न तोडी जायेगी ।
पर बदकिस्मती यही हमारी जिन्दगी है ,जुडना फिर बिखरना ,तभी तो सृजन होगा।
नया और नये सिरे से ।
"वह जननी है इस दुनिया की "
उसके अस्तित्व से ही यह दुनियाँ है ,वरना कब की विलुप्त हो गई होती अंधकार के अनन्त समुद्र में ।
फिर भी समाज पितृसत्तात्मक ही है ।शक्ती शब्द की उत्पत्ती
तो नारी से ही हुई है ।
शायद वह अपनी शक्ती को भूल गयी है ।
नही वह कुछ भीनही भूली बल्की यह समाज उसे पहचाननें का अवसर ही नही देता ।
डरता है यह समाज यदि नारी नें खुद को पहचान लिया और अपनी शक्तीसे अवगत हो गई तो वह स्वतंत्र हो जायेगी,और आसमान की उचाइयोंछू लेगी।
उसके समक्ष यह समाज और इसकी बेंडियाँ बौनी प्रतीत होंगीं।
इस दुनियाँ में जिन नारियों नें अपनी शक्ती पहचानी,उनके आगे आज भी दुनियाँ नत मस्तक है।
भोर नें दस्तक दे दी थी ,अतः मुझे और चाँद को अपना अस्तित
व को छुपाना था,सो हम चल दिये,अगली रात के इन्तजार में जहाँ हमें फिर शीतलता फैलानी है,जलते हृदयों पर मरहम लगाना है।
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