कवि कहता है कि इन्हें देखकर मेरे हृदय में यह उत्साह हमेशा भरा रहता है कि मैं इस विशाल विस्तृत और महान सागर रूपी घर के कोने-कोने में जाऊँ और इसकी लहरों में बैठकर जी भर कर इसमें घूमूँ। निकल रहा है जलनिधि-तल पर दिनकर-बिंब अधूरा। कमला के कंचन-मंदिर का मानो कांत कँगूरा। लाने को निज पुण्य-भूमि पर लक्ष्मी की असवारी भाव यह है कि समुद्रतट से सूर्योदय के समय सोने के समान चमकता समुद्र देखने का अपना आनंद है। ऐसा लगता है मानो समुद्र ने एक सोने की सड़क लक्ष्मी देवी के लिए बना डाली हो। निर्भय, दृढ़, गंभीर भाव से गरज रहा सागर है। भाव यह है कि समुद्र की आवाज़ ऐसी लग रही है मानो वह बिना डर के, मजबूती तथा गंभीरता के भाव लिए गरजना कर रहा हो। भाषा-शैली त्रिपाठी जी की भाषा भावानुकूल, प्रवाहपूर्ण, सरल खड़ी बोली है। संस्कृत के तत्सम शब्दों एवंसामासिक पदों की भाषा में अधिकता है| शैली सरल, स्पष्ट एवं प्रवाहमयी है। मुख्य रूप से इन्होंने वर्णनात्मक और उपदेशात्मक शैली का प्रयोग किया है
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