अतुलनीय जिनके प्रताप का,
साक्षी है प्रत्यक्ष दिवाकर।
घूम घूम कर देख चुका है,
जिनकी निर्मल किर्ति निशाकर।
देख चुके है जिनका वैभव,
ये नभ के अनंत तारागण।
अगणित बार सुन चुका है नभ,
जिनका विजय-घोष रण-गर्जन।
शोभित है सर्वोच्च मुकुट से,
जिनके दिव्य देश का मस्तक।
गूँज रही हैं सकल दिशायें,
जिनके जय गीतों से अब तक।
जिनकी महिमा का है अविरल,
साक्षी सत्य-रूप हिमगिरिवर।
उतरा करते थे विमान-दल,
जिसके विसतृत वक्षस्थल पर।
सागर निज छाती पर जिनके,
अगणित अर्णव-पोत उठाकर।
पहुँचाया करता था प्रमुदित,
भूमंडल के सकल तटों पर।
नदियाँ जिनकी यश-धारा-सी,
बहती है अब भी निशि-वासर।
ढूँढो उनके चरण चिह्न भी,
पाओगे तुम इनके तट पर।
सच्चा प्रेम वही है जिसकी
तृप्ति आत्म-बलि पर हो निर्भर।
त्याग बिना निष्प्राण प्रेम है,
करो प्रेम पर प्राण निछावर।
देश-प्रेम वह पुण्य क्षेत्र है,
अमल असीम त्याग से विलसित।
आत्मा के विकास से जिसमें,
मनुष्यता होती है विकसित।
राम नरेश त्रिपाठी की अन्य किताबें
हिन्दी साहित्य के विख्यात कवि रामनरेश त्रिपाठी का जन्म 4 मार्च सन् 1889 ई० में उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले के कोइरीपुर ग्राम में एक साधारण कृषक परिवार में हुआ था। इनके पिता रामदत्त त्रिपाठी एक आस्तिक ब्राह्मण थे। सेना में सूबेदार पद पर रह चुके रामदत्त त्रिपाठी के परिवार से ही पुत्र रामनरेश त्रिपाठी को निर्भीकता, दृढ़ता और आत्मविश्वास के गुण प्राप्त थे। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा गाँव के एक प्राइमरी स्कूल में हुई। इन्होंने नवीं कक्षा तक स्कूल में पढाई की तथा बाद में स्वतन्त्र अध्ययन और देशाटन से असाधारण ज्ञान प्राप्त किया और साहित्य साधना को ही अपने जीवन का लक्ष्य बनाया। इन्हें केवल हिन्दी ही नहीं वरन् अंग्रेजी, संस्कृत, बंगला और गुजराती भाषाओं का भी अच्छा ज्ञान था। इनकी मुख्य काव्य कृतियाँ हैं- 'मिलन, 'पथिक, 'स्वप्न तथा 'मानसी। रामनरेश त्रिपाठी ने लोक-गीतों के चयन के लिए कश्मीर से कन्याकुमारी और सौराष्ट्र से गुवाहाटी तक सारे देश का भ्रमण किया। 'स्वप्न' पर इन्हें हिंदुस्तान अकादमी का पुरस्कार मिला।
भाषा-शैली त्रिपाठी जी की भाषा भावानुकूल, प्रवाहपूर्ण, सरल खड़ी बोली है। संस्कृत के तत्सम शब्दों एवंसामासिक पदों की भाषा में अधिकता है| शैली सरल, स्पष्ट एवं प्रवाहमयी है। मुख्य रूप से इन्होंने वर्णनात्मक और उपदेशात्मक शैली का प्रयोग किया है। त्रिपाठी जी एक बहुमुखी प्रतिभा वाले साहित्यकार माने जाते हैं। द्विवेदी युग के सभी प्रमुख प्रवृत्तियाँ उनकी कविताओं में मिलती हैं। फतेहपुर में पं॰ त्रिपाठी की साहित्य साधना की शुरुआत होने के बाद उन्होंने उन दिनों तमाम छोटे-बडे बालोपयोगी काव्य संग्रह, सामाजिक उपन्यास और हिन्दी में महाभारत लिखे। उन्होंने हिन्दी तथा संस्कृत के सम्पूर्ण साहित्य का गहन अध्ययन किया। त्रिपाठी जी पर तुलसीदास व उनकी अमर रचना रामचरित मानस का गहरा प्रभाव था, वह मानस को घर घर तक पहुँचाना चाहते थे। बेढब बनारसी ने उनके बारे में कहा था तुम तोप और मैं लाठी तुम रामचरित मानस निर्मल, मैं रामनरेश त्रिपाठी। वर्ष 1915 में पं॰ त्रिपाठी ज्ञान एवं अनुभव की संचित पूंजी लेकर पुण्यतीर्थ एवं ज्ञानतीर्थ प्रयाग गए और उसी क्षेत्र को उन्होंने अपनी कर्मस्थली बनाया। थोडी पूंजी से उन्होंने प्रकाशन का व्यवसाय भी आरम्भ किया। पंडित त्रिपाठी ने गद्य और पद्य का कोई कोना अछूता नहीं छोडा तथा मौलिकता के नियम को ध्यान में रखकर रचनाओं को अंजाम दिया। हिन्दी जगत में वह मार्गदर्शी साहित्यकार के रूप में अवरित हुए और सारे देश में लोकप्रिय हो गए।
उन्होंने वर्ष 1920 में 21 दिनों में हिन्दी के प्रथम एवं सर्वोत्कृष्ट राष्ट्रीय खण्डकाव्य “पथिक” की रचना की। इसके अतिरिक्त “मिलन” और “स्वप्न” भी उनके प्रसिद्ध मौलिक खण्डकाव्यों में शामिल हैं। स्वपनों के चित्र उनका पहला कहानी संग्रह है। कविता कौमुदी के सात विशाल एवं अनुपम संग्रह-ग्रंथों का भी उन्होंने बडे परिश्रम से सम्पादन एवं प्रकाशन किया। महात्मा गांधी के निर्देश पर वे हिन्दी साहित्य सम्मेलन के प्रचार मंत्री के रूप में हिन्दी जगत के दूत बनकर दक्षिण भारत गए थे। वह पक्के गांधीवादी देशभक्त और राष्ट्र सेवक थे। स्वाधीनता संग्राम और किसान आन्दोलनों में भाग लेकर वह जेल भी गए। इन्होंने दक्षिण भारत में हिन्दी भाषा के प्रचार और प्रसार का सराहनीय कार्य कर हिन्दी की अपूर्व सेवा की। ये हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन की इतिहास परिषद् के सभापति होने के साथ-साथ स्वतन्त्रतासेनानी एवं देश-सेवी भी थे। साहित्य की सेवा करते-करते सरस्वती का यह वरद पुत्र 16 जनवरी, सन् 1962 ई० में स्वर्गवासी हो गया। D