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रचनायें

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मैं पतझड़ की कोयल उदास,  बिखरे वैभव की रानी हूँ  मैं हरी-भरी हिम-शैल-तटी  की विस्मृत स्वप्न-कहानी हूँ।     अपनी माँ की मैं वाम भृकुटि,  गरिमा की हूँ धूमिल छाया,  मैं विकल सांध्य रागिनी करुण, 

संध्या की इस मलिन सेज पर  गंगे ! किस विषाद के संग,  सिसक-सिसक कर सुला रही तू  अपने मन की मृदुल उमंग?     उमड़ रही आकुल अन्तर में  कैसी यह वेदना अथाह ?  किस पीड़ा के गहन भार से  निश्चल-सा पड़ ग

घटा फाड़ कर जगमगाता हुआ  आ गया देख, ज्वाला का बान;  खड़ा हो, जवानी का झंडा उड़ा,  ओ मेरे देश के नौजवान!     (1)  सहम करके चुप हो गये थे समुंदर  अभी सुन के तेरी दहाड़,  जमीं हिल रही थी, जहाँ हि

ढीली करो धनुष की डोरी, तरकस का कस खोलो ,  किसने कहा, युद्ध की वेला चली गयी, शांति से बोलो?  किसने कहा, और मत वेधो ह्रदय वह्रि के शर से,  भरो भुवन का अंग कुंकुम से, कुसुम से, केसर से?     कुंकुम?

 टूट गये युग के दरवाजे?  बन्द हो गयी क्या भविष्य की राह?  तब भी आता हूँ मैं     बल रहते ऐसी निर्बलता,  स्वर रहते स्वरवालों के शब्दों का अर्थाभाव !  दोपहरी में ऐसा तिमिर नहीं देखा था।     खिसक

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