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पाटलिपुत्र की गंगा से

18 फरवरी 2022

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संध्या की इस मलिन सेज पर 

गंगे ! किस विषाद के संग, 

सिसक-सिसक कर सुला रही तू 

अपने मन की मृदुल उमंग? 

  

उमड़ रही आकुल अन्तर में 

कैसी यह वेदना अथाह ? 

किस पीड़ा के गहन भार से 

निश्चल-सा पड़ गया प्रवाह? 

  

मानस के इस मौन मुकुल में 

सजनि ! कौन-सी व्यथा अपार 

बनकर गन्ध अनिल में मिल 

जाने को खोज रही लघु द्वार? 

  

चल अतीत की रंगभूमि में 

स्मृति-पंखों पर चढ़ अनजान, 

विकल-चित सुनती तू अपने 

चन्द्रगुप्त का क्या जय-गान? 

  

घूम रहा पलकों के भीतर 

स्वप्नों-सा गत विभव विराट? 

आता है क्या याद मगध का 

सुरसरि! वह अशोक सम्राट? 

  

सन्यासिनी-समान विजन में 

कर-कर गत विभूति का ध्यान, 

व्यथित कंठ से गाती हो क्या 

गुप्त-वंश का गरिमा-गान? 

  

गूंज रहे तेरे इस तट पर 

गंगे ! गौतम के उपदेश, 

ध्वनित हो रहे इन लहरों में 

देवि ! अहिंसा के सन्देश। 

  

कुहुक-कुहुक मृदु गीत वही 

गाती कोयल डाली-डाली, 

वही स्वर्ण-संदेश नित्य 

बन आता ऊषा की लाली। 

  

तुझे याद है चढ़े पदों पर 

कितने जय-सुमनों के हार? 

कितनी बार समुद्रगुप्त ने 

धोई है तुझमें तलवार? 

  

तेरे तीरों पर दिग्विजयी 

नृप के कितने उड़े निशान? 

कितने चक्रवर्तियों ने हैं 

किये कूल पर अवभृत्थ-स्नान? 

  

विजयी चन्द्रगुप्त के पद पर 

सैल्यूकस की वह मनुहार, 

तुझे याद है देवि ! मगध का 

वह विराट उज्ज्वल शृंगार? 

  

जगती पर छाया करती थी 

कभी हमारी भुजा विशाल, 

बार-बार झुकते थे पद पर 

ग्रीक-यवन के उन्नत भाल। 

  

उस अतीत गौरव की गाथा 

छिपी इन्हीं उपकूलों में, 

कीर्ति-सुरभि वह गमक रही 

अब भी तेरे वन-फूलों में। 

  

नियति-नटी ने खेल-कूद में 

किया नष्ट सारा शृंगार, 

खँडहर की धूलों में सोया 

अपना स्वर्णोदय साकार। 

  

तू ने सुख-सुहाग देखा है, 

उदय और फिर अस्त, सखी! 

देख, आज निज युवराजों को 

भिक्षाटन में व्यस्त सखी! 

  

एक-एक कर गिरे मुकुट, 

विकसित वन भस्मीभूत हुआ, 

तेरे सम्मुख महासिन्धु 

सूखा, सैकत उद्भूत हुआ। 

  

धधक उठा तेरे मरघट में 

जिस दिन सोने का संसार, 

एक-एक कर लगा धहकने 

मगध-सुन्दरी का शृंगार, 

  

जिस दिन जली चिता गौरव की, 

जय-भेरी जब मूक हुई, 

जमकर पत्थर हुई न क्यों, 

यदि टूट नहीं दो-टूक हुई? 

  

छिपे-छिपे बज रही मंद्र ध्वनि 

मिट्टी में नक्कारों की, 

गूँज रही झन-झन धूलों में 

मौर्यों की तलवारों की। 

  

दायें पार्श्व पड़ा सोता 

मिट्टी में मगध शक्तिशाली, 

वीर लिच्छवी की विधवा 

बायें रोती है वैशाली। 

  

तू निज मानस-ग्रंथ खोल 

दोनों की गरिमा गाती है, 

वीचि-दृर्गों से हेर-हेर 

सिर धुन-धुन कर रह जाती है। 

  

देवी ! दुखद है वर्त्तमान की 

यह असीम पीड़ा सहना। 

नहीं सुखद संस्मृति में भी 

उज्ज्वल अतीत की रत रहना। 

  

अस्तु, आज गोधूलि-लग्न में 

गंगे ! मन्द-मन्द बहना; 

गाँवों, नगरों के समीप चल 

कलकल स्वर से यह कहना, 

  

"खँडहर में सोई लक्ष्मी का 

फिर कब रूप सजाओगे? 

भग्न देव-मन्दिर में कब 

पूजा का शंख बजाओगे?" 

(१९३१)  

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रचनाएँ
इतिहास के आँसू
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रामधारी सिंह 'दिनकर' ' (23 सितम्‍बर 1908- 24 अप्रैल 1974) हिन्दी के एक प्रमुख लेखक, कवि व निबन्धकार थे। वे आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस के कवि के रूप में स्थापित हैं। 'दिनकर' स्वतन्त्रता पूर्व एक विद्रोही कवि के रूप में स्थापित हुए और स्वतन्त्रता के बाद 'राष्ट्रकवि' के नाम से जाने गये।
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मंगल-आह्वान

18 फरवरी 2022
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भावों के आवेग प्रबल  मचा रहे उर में हलचल।     कहते, उर के बाँध तोड़  स्वर-स्त्रोत्तों में बह-बह अनजान,  तृण, तरु, लता, अनिल, जल-थल को  छा लेंगे हम बनकर गान।     पर, हूँ विवश, गान से कैसे  जग

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मगध-महिमा (पद्य-नाटिका)

18 फरवरी 2022
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 दृश्य १  (नालन्दा का खँडहर गैरिक वसन पहने हुए कल्पना खँडहर के  भग्न प्रचीरों की ओर जिज्ञासा से देखती हुई गा रही है।)     कल्पना का गीत     यह खँडहर किस स्वर्ण-अजिर का?  धूलों में सो रहा टूटकर

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इतिहास के गीत

18 फरवरी 2022
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 १  कल्पने! धीरे-धीरे गा!  यह टूटा प्रासाद सिद्धि का, महिमा का खँडहर है,  ज्ञानपीठ यह मानवता की तपोभूमि उर्वर है।  इस पावन गौरव-समाधि को सादर शीश झुका।  कल्पने! धीरे-धीरे गा!     २  मैं बूढ़ा

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दृश्य २

18 फरवरी 2022
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 (उरुवेला की भूमि बरगद के पेड़ के नीचे कृशकायगौतम विराजमान हैं,  सामने सोने की थाल में खीर परोसी हुई है आरतीजल रही है धूप का धुआँ  उठ रहा है सामने सुजाता प्रार्थना कर रही है।)    सुजाता का गीत   

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दृश्य ३

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 (प्रथम दृश्य की आवृत्ति कल्पना खड़ी सुन रहीहै इतिहास नेपथ्य के भीतर से गाता है।)     इतिहास के गीत  १  सुधा-सर का करते सन्धान।  उरुवेला में यहीं कहीं विचरे गौतम गुणवान!  बैठे तरुतल यहीं लगा मु

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दृश्य ४

18 फरवरी 2022
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 (प्रथम दृश्य की आवृत्ति कल्पना खड़ी सुन रही है इतिहास  नेपथ्य के भीतर से गाता है।)     इतिहास के गीत  १  सुधा-सर का करते सन्धान।  उरुवेला में यहीं कहीं विचरे गौतम गुणवान!  बैठे तरुतल यहीं लगा

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दृश्य ५

18 फरवरी 2022
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(चन्द्रगुप्त का राजदरबार सेल्यूकस, सेल्यूकस की युवती कन्या  और मेगस्थनीज एक ओर बैठे हैं चन्द्रगुप्त, चाणक्य और सभासद्  यथास्थान। चौथे दृश्य वाले नागरिक भी आते हैं।)     एक नागरिक (आपस में कानोंकान

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दृश्य ६

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(प्रथम दृश्य की आवृत्ति सामने कल्पना खड़ी सुन रही  है नेपथ्य के भीतर से इतिहास गाता है।)     इतिहास के गीत     १  कल्पने! तब आया वह काल।  उठा जगत में धर्म-तिलक-दीपित भारत का भाल  फिलस्तीन, ईरा

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दृश्य ७

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 (कलिंग की युद्धभूमि लाशों से पटी हुई धरती पर फीकी चाँदनीफैली हुई है घायल कराह रहे हैं, रह-रह कर पानी! पानी! की आवाजआती है। एक ओर जरा ऊॅंची जमीन पर मगध की राजपताका निष्कम्प  झुकी हुई है, मानों, वह शर

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दृश्य ८

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(प्रथम दृश्य की आवृत्ति कल्पना खड़ी सुन रही है  नेपथ्य के भीतर से इतिहास है गाता।)    इतिहास के गीत    १  कल्पने! जीवन के उस पार।  चमक उठा आँखों के आगे एक नया संसार।  प्राणों की जब सुनी प्राण

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पाटलिपुत्र की गंगा से

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संध्या की इस मलिन सेज पर  गंगे ! किस विषाद के संग,  सिसक-सिसक कर सुला रही तू  अपने मन की मृदुल उमंग?     उमड़ रही आकुल अन्तर में  कैसी यह वेदना अथाह ?  किस पीड़ा के गहन भार से  निश्चल-सा पड़ ग

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मिथिला

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मैं पतझड़ की कोयल उदास,  बिखरे वैभव की रानी हूँ  मैं हरी-भरी हिम-शैल-तटी  की विस्मृत स्वप्न-कहानी हूँ।     अपनी माँ की मैं वाम भृकुटि,  गरिमा की हूँ धूमिल छाया,  मैं विकल सांध्य रागिनी करुण, 

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वैशाली

18 फरवरी 2022
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ओ भारत की भूमि वन्दिनी! ओ जंजीरोंवाली!  तेरी ही क्या कुक्षि फाड़ कर जन्मी थी वैशाली?     वैशाली! इतिहास-पृष्ठ पर अंकन अंगारों का,  वैशाली! अतीत गह्वर में गुंजन तलवारों का।     वैशाली! जन का प्रत

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बोधिसत्त्व

18 फरवरी 2022
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 सिमट विश्व-वेदना निखिल बज उठी करुण अन्तर में,  देव ! हुंकरित हुआ कठिन युगधर्म तुम्हारे स्वर में ।  काँटों पर कलियों, गैरिक पर किया मुकुट का त्याग  किस सुलग्न में जगा प्रभो ! यौवन का तीव्र विराग ? 

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कलिंग-विजय

18 फरवरी 2022
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(1)  युद्ध की इति हो गई; रण-भू श्रमित, सुनसान;  गिरिशिखर पर थम गया है डूबता दिनमान--     देखते यम का भयावह कृत्य,  अन्ध मानव की नियति का नृत्य;     सोचते, इस बन्धु-वध का क्या हुआ परिणाम?  विश्

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वसन्त के नाम पर

18 फरवरी 2022
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 १.  प्रात जगाता शिशु-वसन्त को नव गुलाब दे-दे ताली।  तितली बनी देव की कविता वन-वन उड़ती मतवाली।     सुन्दरता को जगी देखकर,  जी करता मैं भी कुछ गाऊॅं;  मैं भी आज प्रकृति-पूजन में,  निज कविता के

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वैभव की समाधि पर

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हँस उठी कनक-प्रान्तर में  जिस दिन फूलों की रानी,  तृण पर मैं तुहिन-कणों की  पढ़ता था करुण कहानी।     थी बाट पूछती कोयल  ऋतुपति के कुसुम-नगर की,  कोई सुधि दिला रहा था  तब कलियों को पतझर की।   

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