shabd-logo

मिथिला

18 फरवरी 2022

19 बार देखा गया 19

मैं पतझड़ की कोयल उदास, 

बिखरे वैभव की रानी हूँ 

मैं हरी-भरी हिम-शैल-तटी 

की विस्मृत स्वप्न-कहानी हूँ। 

  

अपनी माँ की मैं वाम भृकुटि, 

गरिमा की हूँ धूमिल छाया, 

मैं विकल सांध्य रागिनी करुण, 

मैं मुरझी सुषमा की माया। 

  

मैं क्षीणप्रभा, मैं हत-आभा, 

सम्प्रति, भिखारिणी मतवाली, 

खँडहर में खोज रही अपने 

उजड़े सुहाग की हूँ लाली। 

  

मैं जनक कपिल की पुण्य-जननि, 

मेरे पुत्रों का महा ज्ञान । 

मेरी सीता ने दिया विश्व 

की रमणी को आदर्श-दान। 

  

मैं वैशाली के आसपास 

बैठी नित खँडहर में अजान, 

सुनती हूँ साश्रु नयन अपने 

लिच्छवि-वीरों के कीर्ति-गान। 

  

नीरव निशि में गंडकी विमल 

कर देती मेरे विकल प्राण, 

मैं खड़ी तीर पर सुनती हूँ 

विद्यापति-कवि के मधुर गान। 

  

नीलम-घन गरज-गरज बरसें 

रिमझिम-रिमझिम-रिमझिम अथोर, 

लहरें गाती हैं मधु-विहाग, 

‘हे, हे सखि ! हमर दुखक न ओर ।’ 

  

चांदनी-बीच धन-खेतों में 

हरियाली बन लहराती हूँ, 

आती कुछ सुधि, पगली दौड़ो 

मैं कपिलवस्तु को जाती हूँ। 

  

बिखरी लट, आँसू छलक रहे, 

मैं फिरती हूँ मारी-मारी । 

कण-कण में खोज रही अपनी 

खोई अनन्त निधियाँ सारी। 

  

मैं उजड़े उपवन की मालिन, 

उठती मेरे हिय विषम हूख, 

कोकिला नहीं, इस कुंज-बीच 

रह-रह अतीत-सुधि रही कूक। 

  

मैं पतझड़ की कोयल उदास, 

बिखरे वैभव की रानी हूँ, 

मैं हरी-भरी हिमशैल-तटी 

की विस्मृत स्वप्न-कहानी हूँ। 

(१९३४)  

17
रचनाएँ
इतिहास के आँसू
0.0
रामधारी सिंह 'दिनकर' ' (23 सितम्‍बर 1908- 24 अप्रैल 1974) हिन्दी के एक प्रमुख लेखक, कवि व निबन्धकार थे। वे आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस के कवि के रूप में स्थापित हैं। 'दिनकर' स्वतन्त्रता पूर्व एक विद्रोही कवि के रूप में स्थापित हुए और स्वतन्त्रता के बाद 'राष्ट्रकवि' के नाम से जाने गये।
1

मंगल-आह्वान

18 फरवरी 2022
1
0
0

भावों के आवेग प्रबल  मचा रहे उर में हलचल।     कहते, उर के बाँध तोड़  स्वर-स्त्रोत्तों में बह-बह अनजान,  तृण, तरु, लता, अनिल, जल-थल को  छा लेंगे हम बनकर गान।     पर, हूँ विवश, गान से कैसे  जग

2

मगध-महिमा (पद्य-नाटिका)

18 फरवरी 2022
0
0
0

 दृश्य १  (नालन्दा का खँडहर गैरिक वसन पहने हुए कल्पना खँडहर के  भग्न प्रचीरों की ओर जिज्ञासा से देखती हुई गा रही है।)     कल्पना का गीत     यह खँडहर किस स्वर्ण-अजिर का?  धूलों में सो रहा टूटकर

3

इतिहास के गीत

18 फरवरी 2022
0
0
0

 १  कल्पने! धीरे-धीरे गा!  यह टूटा प्रासाद सिद्धि का, महिमा का खँडहर है,  ज्ञानपीठ यह मानवता की तपोभूमि उर्वर है।  इस पावन गौरव-समाधि को सादर शीश झुका।  कल्पने! धीरे-धीरे गा!     २  मैं बूढ़ा

4

दृश्य २

18 फरवरी 2022
0
0
0

 (उरुवेला की भूमि बरगद के पेड़ के नीचे कृशकायगौतम विराजमान हैं,  सामने सोने की थाल में खीर परोसी हुई है आरतीजल रही है धूप का धुआँ  उठ रहा है सामने सुजाता प्रार्थना कर रही है।)    सुजाता का गीत   

5

दृश्य ३

18 फरवरी 2022
0
0
0

 (प्रथम दृश्य की आवृत्ति कल्पना खड़ी सुन रहीहै इतिहास नेपथ्य के भीतर से गाता है।)     इतिहास के गीत  १  सुधा-सर का करते सन्धान।  उरुवेला में यहीं कहीं विचरे गौतम गुणवान!  बैठे तरुतल यहीं लगा मु

6

दृश्य ४

18 फरवरी 2022
0
0
0

 (प्रथम दृश्य की आवृत्ति कल्पना खड़ी सुन रही है इतिहास  नेपथ्य के भीतर से गाता है।)     इतिहास के गीत  १  सुधा-सर का करते सन्धान।  उरुवेला में यहीं कहीं विचरे गौतम गुणवान!  बैठे तरुतल यहीं लगा

7

दृश्य ५

18 फरवरी 2022
0
0
0

(चन्द्रगुप्त का राजदरबार सेल्यूकस, सेल्यूकस की युवती कन्या  और मेगस्थनीज एक ओर बैठे हैं चन्द्रगुप्त, चाणक्य और सभासद्  यथास्थान। चौथे दृश्य वाले नागरिक भी आते हैं।)     एक नागरिक (आपस में कानोंकान

8

दृश्य ६

18 फरवरी 2022
0
0
0

(प्रथम दृश्य की आवृत्ति सामने कल्पना खड़ी सुन रही  है नेपथ्य के भीतर से इतिहास गाता है।)     इतिहास के गीत     १  कल्पने! तब आया वह काल।  उठा जगत में धर्म-तिलक-दीपित भारत का भाल  फिलस्तीन, ईरा

9

दृश्य ७

18 फरवरी 2022
0
0
0

 (कलिंग की युद्धभूमि लाशों से पटी हुई धरती पर फीकी चाँदनीफैली हुई है घायल कराह रहे हैं, रह-रह कर पानी! पानी! की आवाजआती है। एक ओर जरा ऊॅंची जमीन पर मगध की राजपताका निष्कम्प  झुकी हुई है, मानों, वह शर

10

दृश्य ८

18 फरवरी 2022
0
0
0

(प्रथम दृश्य की आवृत्ति कल्पना खड़ी सुन रही है  नेपथ्य के भीतर से इतिहास है गाता।)    इतिहास के गीत    १  कल्पने! जीवन के उस पार।  चमक उठा आँखों के आगे एक नया संसार।  प्राणों की जब सुनी प्राण

11

पाटलिपुत्र की गंगा से

18 फरवरी 2022
0
0
0

संध्या की इस मलिन सेज पर  गंगे ! किस विषाद के संग,  सिसक-सिसक कर सुला रही तू  अपने मन की मृदुल उमंग?     उमड़ रही आकुल अन्तर में  कैसी यह वेदना अथाह ?  किस पीड़ा के गहन भार से  निश्चल-सा पड़ ग

12

मिथिला

18 फरवरी 2022
0
0
0

मैं पतझड़ की कोयल उदास,  बिखरे वैभव की रानी हूँ  मैं हरी-भरी हिम-शैल-तटी  की विस्मृत स्वप्न-कहानी हूँ।     अपनी माँ की मैं वाम भृकुटि,  गरिमा की हूँ धूमिल छाया,  मैं विकल सांध्य रागिनी करुण, 

13

वैशाली

18 फरवरी 2022
0
0
0

ओ भारत की भूमि वन्दिनी! ओ जंजीरोंवाली!  तेरी ही क्या कुक्षि फाड़ कर जन्मी थी वैशाली?     वैशाली! इतिहास-पृष्ठ पर अंकन अंगारों का,  वैशाली! अतीत गह्वर में गुंजन तलवारों का।     वैशाली! जन का प्रत

14

बोधिसत्त्व

18 फरवरी 2022
0
0
0

 सिमट विश्व-वेदना निखिल बज उठी करुण अन्तर में,  देव ! हुंकरित हुआ कठिन युगधर्म तुम्हारे स्वर में ।  काँटों पर कलियों, गैरिक पर किया मुकुट का त्याग  किस सुलग्न में जगा प्रभो ! यौवन का तीव्र विराग ? 

15

कलिंग-विजय

18 फरवरी 2022
0
0
0

(1)  युद्ध की इति हो गई; रण-भू श्रमित, सुनसान;  गिरिशिखर पर थम गया है डूबता दिनमान--     देखते यम का भयावह कृत्य,  अन्ध मानव की नियति का नृत्य;     सोचते, इस बन्धु-वध का क्या हुआ परिणाम?  विश्

16

वसन्त के नाम पर

18 फरवरी 2022
0
0
0

 १.  प्रात जगाता शिशु-वसन्त को नव गुलाब दे-दे ताली।  तितली बनी देव की कविता वन-वन उड़ती मतवाली।     सुन्दरता को जगी देखकर,  जी करता मैं भी कुछ गाऊॅं;  मैं भी आज प्रकृति-पूजन में,  निज कविता के

17

वैभव की समाधि पर

18 फरवरी 2022
0
0
0

हँस उठी कनक-प्रान्तर में  जिस दिन फूलों की रानी,  तृण पर मैं तुहिन-कणों की  पढ़ता था करुण कहानी।     थी बाट पूछती कोयल  ऋतुपति के कुसुम-नगर की,  कोई सुधि दिला रहा था  तब कलियों को पतझर की।   

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए