टूट गये युग के दरवाजे?
बन्द हो गयी क्या भविष्य की राह?
तब भी आता हूँ मैं
बल रहते ऐसी निर्बलता,
स्वर रहते स्वरवालों के शब्दों का अर्थाभाव !
दोपहरी में ऐसा तिमिर नहीं देखा था।
खिसक गयी श्रृंखला सितारों की? प्रकाश के
पुत्र वहाँ अब नहीं, जहाँ पहले उगते थे?
मही छूट सहसा विशवम्भर के प्रबन्ध से,
सचमुच ही, पड़ गयी मनुष्यों के हाथों में?
धुआँ, धुआँ, सब ओर, चतुर्दिक घुटन भरी है;
आँख मूँदने पर भी तो अब दीप्ति न आती।
तिमिर-व्यूह है ध्यान, गीत का मन काला है,
धूम-ध्वान्त फूटता कला की रेखाओं से।
तो यह सब क्या, इसी भाँति, चलता जायेगा?
यह विषपूर्ण प्रवाह? कुटिल यह घुटन प्राण की?
और वायु क्या इसी भाँति भरती जायेगी
वणिक-तुला पर चढ़ी बुद्धि के फूत्कारों से?
ना, गाँधी सेठों का चौकीदार नहीं है,
न तो लौहमय छत्र जिसे तुम ओढ़ बचा लो
अपना संचित कोष मार्क्स की बौछारों से।
इस प्रकार मत पियो, आग से जल जाओगे ;
गाँधी शरबत नहीं, प्रखर पावक-प्रवाह था।
घोल दिया यदि इत्र कहीं अपनी शीशी का,
अनलोदक दूषित-अपेय यह हो जायेगा।
ओ विशाल तम-तोम, चतुर्दिक् घिरी घटाओ !
कब जनमेगी अशनि तुम्हारी व्याकुलता से?
धुओं और ऊमस में जो छटपटा रहा है,
वह प्रकाश कब तक खुलकर बाहर आयेगा?
दोपहरी का अन्धकार ! ओ सूर्य, तुम्हारा
करने को उद्धार व्योम पर आते हैं हम,
आविष्कृत कर क्या नया प्रेम, शब्दों के भीतर
मूर्च्छित अर्थों को फिर आज जिलाते हैं हम ।
पढ़ो सामने के अक्षर क्या कहते हैं ये?
विनय विफल हो जहाँ, वाण लेना पड़ता है।
स्वेच्छा से जो न्याय नहीं देता है, उसको
एक रोज आखिर सब कुछ देना पड़ता है।
टूट गये युग के दरवाजे?
बन्द हो गयी क्या भविष्य की राह?
तब भी आता हूँ मैं।
(१८-५-६० ई०)