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सो रहा है झोंप अँधियाला नदी की जाँघ पर : डाह से सिहरी हुई यह चाँदनी चोर पैरों से उझक कर झाँक जाती है। प्रस्फुटन के दो क्षणों का मोल शेफाली विजन की धूल पर चुपचाप अपने मुग्ध प्राणों से अजाने आँक

इतराया यह और ज्वार का क्वाँर की बयार चली, शशि गगन पार हँसे न हँसे शेफाली आँसू ढार चली ! नभ में रवहीन दीन बगुलों की डार चली; मन की सब अनकही रही पर मैं बात हार चली !

सिमट गयी फिर नदी, सिमटने में चमक आयी गगन के बदन में फिर नयी एक दमक आयी दीप कोजागरी बाले कि फिर आवें वियोगी सब ढोलकों से उछाह और उमंग की गमक आयी बादलों के चुम्बनों से खिल अयानी हरियाली शरद की धू

शान्त हो! काल को भी समय थोड़ा चाहिए। जो घड़े-कच्चे, अपात्र!-डुबा गये मँझधार तेरी सोहनी को चन्द्रभागा की उफनती छालियों में उन्हीं में से उसी का जल अनन्तर तू पी सकेगा औ' कहेगा, 'आह, कितनी तृप्ति!'

जब पपीहे ने पुकारा-- मुझे दीखा दो पँखुरियाँ झरीं गुलाब की, तकती पियासी पिया-से ऊपर झुके उस फ़ूल को ओठ ज्यों ओठों तले। मुकुर मे देखा गया हो दृश्य पानीदार आँखों के। हँस दिया मन दर्द से ’ओ मूढ! तून

'अकेली न जैयो राधे जमुना के तीर' 'उस पार चलो ना! कितना अच्छा है नरसल का झुरमुट!' अनमना भी सुन सका मैं गूँजते से तप्त अन्त:स्वर तुम्हारे तरल कूजन में। 'अरे, उस धूमिल विजन में?' स्वर मेरा था चिकन

 मुझे सब कुछ याद है मुझे सब कुछ याद है। मैं उन सबों को भी नहीं भूला। तुम्हारी देह पर जो खोलती हैं अनमनी मेरी उँगलियाँ-और जिन का खेलना सच है, मुझे जो भुला देता है सभी मेरी इन्द्रियों की चेतना उन

यह वसन्त की बदली पर क्या जाने कहीं बरस ही जाय? विरस ठूँठ में कहीं प्यार की कोंपल एक सरस ही जाय? दूर-दूर, भूली ऊषा की सोयी किरण एक अलसानी उस की चितवन की हलकी-सी सिहरन मुझे परस ही जाय?

छिटक रही है चांदनी, मदमाती, उन्मादिनी, कलगी-मौर सजाव ले कास हुए हैं बावले, पकी ज्वार से निकल शशों की जोड़ी गई फलांगती सन्नाटे में बाँक नदी की जगी चमक कर झाँकती ! कुहरा झीना और महीन, झर-झर पड़

 कितनी शान्ति! कितनी शान्ति! समाहित क्यों नहीं होती यहाँ भी मेरे हृदय की क्रान्ति? क्यों नहीं अन्तर-गुहा का अशृंखल दुर्बाध्य वासी, अथिर यायावर, अचिर में चिर-प्रवासी नहीं रुकता, चाह कर-स्वीकार कर

पार्श्व गिरि का नम्र, चीड़ों में डगर चढ़ती उमंगों-सी। बिछी पैरों में नदी ज्यों दर्द की रेखा। विहग-शिशु मौन नीड़ों में। मैं ने आँख भर देखा। दिया मन को दिलासा-पुन: आऊँगा। (भले ही बरस-दिन-अनगिन य

 सागर के किनारे तनिक ठहरूँ, चाँद उग आये, तभी जाऊँगा वहाँ नीचे कसमसाते रुद्ध सागर के किनारे। चाँद उग आये। न उस की बुझी फीकी चाँदनी में दिखें शायद वे दहकते लाल गुच्छ बुरूँस के जो तुम हो। न शायद च

भोर बेला। सिंची छत से ओस की तिप्-तिप्! पहाड़ी काक की विजन को पकड़ती-सी क्लान्त बेसुर डाक 'हाक्! हाक्! हाक्!' मत सँजो यह स्निग्ध सपनों का अलस सोना- रहेगी बस एक मुट्ठी खाक! 'थाक्! थाक्! थाक्!'

अरे ओ खुलती आँख के सपने! विहग-स्वर सुन जाग देखा, उषा का आलोक छाया, झिप गयी तब रूपकतरी वासना की मधुर माया; स्वप्न में छिन, सतत सुधि में, सुप्त-जागृत तुम्हें पाया चेतना अधजगी, पलकें लगीं तेरी याद

 दीप थे अगणित : मानता था मैं पूरित स्नेह है। क्योंकि अनगिन शिखाएँ थीं, धूम था नैवेद्य-द्रव्यों से सुवासित, और ध्वनि? कितनी न जाने घंटियाँ टुनटुनाती थीं, न जाने शंख कितने घोखते थे नाम  नाम वह, आ

भोर बेला--नदी तट की घंटियों का नाद। चोट खा कर जग उठा सोया हुआ अवसाद। नहीं, मुझ को नहीं अपने दर्द का अभिमान मानता हूँ मैं पराजय है तुम्हारी याद।

क्रान्ति है आवत्र्त, होगी भूल उस को मानना धारा : उपप्लव निज में नहीं उद्दिष्ट हो सकता हमारा। जो नहीं उपयोज्य, वह गति शक्ति का उत्पाद भर है  स्वर्ग की हो-माँगती भागीरथी भी है किनारा।

किरण मर जाएगी! लाल होके झलकेगा भोर का आलोक उर का रहस्य ओठ सकेंगे न रोक। प्यार की नीहार-बूँद मूक झर जाएगी! इसी बीच किरण मर जाएगी! ओप देगा व्योम श्लथ कुहासे का जाल कड़ी-कड़ी छिन्न होगी तारकों की

राह बदलती नहीं-प्यार ही सहसा मर जाता है, संगी बुरे नहीं तुम-यदि नि:संग हमारा नाता है स्वयंसिद्ध है बिछी हुई यह जीवन की हरियाली जब तक हम मत बुझें सोच कर-'वह पड़ाव आता है!'

शत्रु मेरी शान्ति के-ओ बन्धु इस अस्तित्व के उल्लास के; ऐन्द्रजालिक चेतना के-स्तम्भ डावाँडोल दुनिया में अडिग विश्वास के; लालसा की तप्त लालिम शिखे- स्थिर विस्तार संयम-धवल धृति के; द्वैत के ओ दाह

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