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समाज

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  नदी, हो सके तो     छुपा लो अपने आपको     ढूंढ रहे हैं रेत के जंगल तुम्हें।    लग गई है नजर    तुम्हारी खूबसूरती को     जाकर मां से नज़र का    टोटका करवा लो।       करके कब्जा तुम्हारे अर्धांग

  नील नभ पर हिम्मत रखकर    नव प्रभात रोशन करेंगे,     साथी आना हाथ बढ़ाना     मिलजुल कर हम संग चलेंगे।        देना एक दूजे का साथ    कट जाएगी काली रात,     नया सवेरा आने को है    तम व्योम छटने

 इन नन्हों का क्या कसूर    इन्हें भी स्कूल जाना जरूर।    समय आएगा फितरत बदलेगी    तुम भी होगे जग मशहूर।    बर्फ के कदमों के निशां सी     पिघलती है जिंदगी।     आज हारी तो    कल जीती है जिंदगी।  

 हम अपनी गोल रोटी    तन ढकने के वस्त्र     फूस के घर का छप्पर     पैरों के फटे जूते-चप्पल     इंद्रधनुषी सुनहरे सकृषक    सब मिट्टी से उगाते हैं।        पर कभी कभी मिट्टी भी     कठोर कर्कश हो ज

  वर्षा की पहली बूंदों पर    जीवन के बिखरे रंगों पर,     कुछ तुम लिखो,कुछ मैं लिखूँ     कुछ तुम देखो,कुछ मैं देखूँ।       स्वागत में धरती खड़ी हुई    चुनर भी हरी-भरी हुई।    भागम-भाग मची सब ओर 

  जवानी के जाते ही    रिश्ते सब छूमंतर हुए     पति-पत्नी,बेटा-बेटी     न जाने कहां लुप्त हुए।     औंधे मुंह पड़े हुए     बूढ़ी मां खकार रही।     जल की कुछ बूंदे पाने को    रह-रह कर करहा रही।  

 आओ अमृत महोत्सव मनाएं     हम सीखें दुनिया को सिखाएं।    बुनकर संस्कृति ताना-बाना    सुंदर भारत आदर्श दिखाएं।        निद्रा से जागे सर्वप्रथम     औरों को जागृत किया।     दूर भगाकर अंधियारे को  

  असम में रहकर भी     मैं डरती थी बोडोलैंड से     मीडिया ने कोकराझार का     एक अलग ही मानचित्र     मेरे मन मस्तिष्क में     उकेर दिया था।        जब साहित्यिक महोत्सव में     कविता पाठ करने का

 लगभग चार दशक पुराने     दस बाइ बारह के इस कमरे में    यादों का जमघट जमा है।        गाहे-बगाहे मस्तिष्क जब     खंगालता है इसके हर कोने को    तो कहीं दिखाई देती है    दबी हुई चींख...     तो कही

 काटे नहीं कटती ये रातें     ख्वाबों में तुम आ जाना    जीवन अकेला सूना बहुत है....     कुछ तो सुकूं दे जाना...।       अंतिम पहर में तुम आना    पहलू में आकर खो जाना।    जीवन के सूनेपन को...  

  एक मोहल्ले में था मेरा घर    जिसमें एक भी मकान नहीं था।     मोहल्ले के सभी घर सांस लेते थे    हर तरफ चैनों-ओ सुकून था।    रहती थी जिसमें दादी,नानी,    काकी,मामी,ताई,मौसी,     दादू और ताऊ की तो

  चतुर्थी के चांद को इतराते इठलाते    देखा     कभी बादलों में छिपते तो कभी झांकते देखा।    खड़ी थी लाखों सुहागने सजधज के दीदार के लिए    मदमस्त हो अपने रूप पर गर्वित होते देखा।       देख कर शीतल

  प्रतीक्षा में बैठी शबरी     कब आओगे राम।    मेरे इन बेरों को खाकर     कब दोगे विश्राम।    नेह उड़ेल दूंगी उन पर     अब ना जाने दूंगी।     भक्ति के आंचल में फिर     पूरा समेट लूंगी।        प

 पगडंडी के सहारे     रेत के कुछ कणों को,     हवा इतनी दूर ले गई कि रेत अपना वजूद खोकर     बिछ गई वतन की राह पर       कांटो को ढककर     पैरों को आराम दे दिया    सूरज की तपिश से     स्वयं जलकर 

 हे प्रभु ! मानव- मानव में     अंतर क्यों ?    एक सिंहासन पर बैठा     एक जमीन पर बैठा क्यों ?    कोई जूठन को मजबूर     कोई अन्न फेंक रहा है।        मोहताज पैसे दो पैसे को    हाथ फैलाये खड़ा द्

  शब्दों को चबाकर उगलते हैं जो    सही सांचे में ढल संवरते हैं वो।    कुछ करने का दम रखते हैं जो    हाथों की लकीरों को बनाते हैं वो।       तूफानी लहरों से नहीं डरते हैं जो    सदैव सफलता को थामते

 चौखट ने देखा भूत, वर्तमान    भविष्य के लिए खड़ी तैयार।    सुख-दुख देखा मिलकर साथ    रूप-रंग खुशी ये सारे त्योहार।        दीप ज्योति से दमकती पंक्ति    साथी सच्ची मेरे हर पल की।    होली के गुला

  बचपन में     घर के पिछवाड़े से     माँ से छुपकर     मित्रों संग     तोड़ी थी जंगल जलेबियाँ     जिसका मिठास युक्त     तिक्त स्वाद    आज भी जिह्वा पर     बिखरा पड़ा है।        कांटेदार झाड़ि

सावन में लिखी कविता अब पक चुकी है पोर- पोर खिलकर धरती पर उतर चुकी है। मंत्रमुग्ध सी खड़ी निहार रही वसुंधरा पीत सरसों में लिपटी सकुचाई सिमटी सी धरा। खेत खलिहान मिल रहे बांसुरी बज रही डाल-डाल

आजकल हर एक-दो दिन बाद किसी न किसी के शादी का न्यौता है। अब शादियों की बात निकली है तो बताती चलूँ कि अभी दो दिन पहले मेरी एक सहेली के बेटे की बारात में खूब मौज-मस्ती, नाच-गाना करके फिर अपनी दुनिया में

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