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नभ में सन्ध्या की अरुणाली, भू पर लहराती हरियाली, है अलस पवन से खेल रही भादों की मान भरी शाली  री, किस उछाह से झूम उठी तेरी लोलक-लट घुँघराली? झुक कर नरसल ने सरसी में अपनी लघु वंशी धो ली, झिल्ली क

पूर्णिमा की चाँदनी सोने नहीं देती। चेतना अन्तर्मुखी स्मृति-लीन होती है, देह भी पर सजग है-खोने नहीं देती। निशा के उर में बसे आलोक-सी है व्यथा व्यापी प्यार में अभिमान की पर कसक ही रोने नहीं देती।

अभी माघ भी चुका नहीं, पर मधु का गरवीला अगवैया कर उन्नत शिर, अँगड़ाई ले कर उठा जाग भर कर उर में ललकार-भाल पर धरे फाग की लाल आग। धूल बन गयी नदी कनक की-लोट-पोट न्हाती गौरैया। फूल-फूल कर साथ-साथ जुड

जब झपक जाती हैं थकी पलकें जम्हाई-सी स्फीत लम्बी रात में, सिमट कर भीतर कहीं पर संचयित कितने न जाने युग-क्षणों की राग की अनुभूतियों के सार को आकार दे कर, मुग्ध मेरी चेतना के द्वार से तब नि:सृत हो

(1) हवा हिमन्ती सन्नाती है चीड़ में, सहमे पंछी चिहुँक उठे हैं नीड़ में, दर्द गीत में रुँधा रहा-बह निकला गल कर मींड में- तुम हो मेरे अन्तर में पर मैं खोया हूँ भीड़ में! (2) सिहर-सिहर झरते पत्ते

माँगा नहीं, यदपि पहचाना, पाया कभी न, केवल जाना-परिचिति को अपनापा माना। दीवाना ही सही, कठिन है अपना तर्क तुम्हें समझाना इह मेरा है पूर्ण, तदुत्तर परलोकों का कौन ठिकाना!

नया ऊगा चाँद बारस का, लजीली चाँदनी लम्बी, थकी सँकरी सूखती दीर्घा  चाँदनी में धूल-धवला बिछी लम्बी राह। तीन लम्बे ताल, जिन के पार के लम्बे कुहासे को चीरती, ज्यों वेदना का तीर, लम्बी टटीरी की आह।

देख क्षितिज पर भरा चाँद, मन उमँगा, मैं ने भुजा बढ़ायी। हम दोनों के अन्तराल में कमी नहीं कुछ दी दिखलायी, किन्तु उधर, प्रतिकूल दिशा में, उसी भुजा की आलम्बित परछाईं अनायस बढ़, लील धरा को, क्षिति की सी

दृश्य लख कर प्राण बोले : 'गीत लिख दे प्रिया के हित!' समर्थन में पुलक बोली : 'प्रिया तो सम-भागिनी है साथ तेरे दुखित-नन्दित!' लगा गढऩे शब्द। सहसा वायु का झोंका तुनक कर बोला, 'प्रिया मुझ में नहीं ह

मिथ, कल मिथ्या  कल की निशि घनसार तमिस्रा और अकेली होगी- स्मृति की सूखी स्रजा रुआँसी एक सहेली होगी। चरम द्वन्द्व, आत्मा नि:सम्बल, अरि गोपित, मायावी प्यार? प्यार! अस्तित्व मात्र अनबूझ पहेली होगी!

एक दिन देवदारु-वन बीच छनी हुई किरणों के जाल में से साथ तेरे घूमा था। फेनिल प्रपात पर छाये इन्द्र-धनु की फुहार तले मोर-सा प्रमत्त-मन झूमा था बालुका में अँकी-सी रहस्यमयी वीर-बहू पूछती है रव-हीन मखम

(वसन्त के एक दिन) फूल कांचनार के, प्रतीक मेरे प्यार के! प्रार्थना-सी अर्धस्फुट काँपती रहे कली, पत्तियों का सम्पुट, निवेदित ज्यों अंजली। आये फिर दिन मनुहार के, दुलार के -फूल कांचनार के! सुमन-व

धुँधली है साँझ किन्तु अतिशय मोहमयी, बदली है छायी, कहीं तारा नहीं दीखता। खिन्न हूँ कि मेरी नैन-सरसी से झाँकता-सा प्रतिबिम्ब, प्रेयस! तुम्हारा नहीं दीखता। माँगने को भूल कर बोध ही में डूब जाना भिक

तीन दिन बदली के गये, आज सहसा खुल-सी गयी हैं दो पहाड़ों की श्रेणियाँ और बीच के अबाध अन्तराल में, शुभ्र, धौत मानो स्फुट अधरों के बीच से प्रकृति के बिखर गया हो कल-हास्य एक क्रीड़ा-लोल अमित लहर-सा-

आज मैं पहचानता हूँ राशियाँ, नक्षत्र, ग्रहों की गति, कुग्रहों के कुछ उपद्रव भी, मेखला आकाश की; जानता हूँ मापना दिन-मान; समझता हूँ अयन-विषुवत्ï, सूर्य के धब्बे, कलाएँ चन्द्रमा की गति अखिल इस सौर-

मेरी थकी हुई आँखों को किसी ओर तो ज्योति दिखा दो कुज्झटिका के किसी रन्ध्र से ही लघु रूप-किरण चमका दो। अनचीती ही रहे बाँसुरी, साँस फूँक दो चाहे उन्मन मेरे सूखे प्राण-दीप में एक बूँद तो रस बरसा दो!

किस ने देखा चाँद?-किस ने, जिसे न दीखा उस में क्रमश: विकसित एकमात्र वह स्मित-मुख जो है अलग-अलग प्रत्येक के लिए किन्तु अन्तत: है अभिन्न  है अभिन्न, निष्कम्प, अनिर्वच, अनभिवद्य, है युगातीत, एकाकी, एक

निमिष-भर को सो गया था प्यार का प्रहरी उस निमिष में कट गयी है कठिन तप की शिंजिनी दुहरी सत्य का वह सनसनाता तीर जा पहुँचा हृदय के पार खोल दो सब वंचना के दुर्ग के ये रुद्ध सिंहद्वार! एक अन्तिम निमिष

 चरण पर धर चरण चरण पर धर सिहरते-से चरण, आज भी मैं इस सुनहले मार्ग पर पकड़ लेने को पदों से मृदुल तेरे पद-युगल के अरुण-तल की छाप वह मृदुतर जिसे क्षण-भर पूर्व ही निज लोचनों की उछटती-सी बेकली से मै

रात के रहस्यमय, स्पन्दित तिमिर को भेदती कटार-सी, कौंध गयी बौखलाये मोर की पुकार वायु को कँपाती हुई, छोटे-छोटे बिन जमे ओस-बिन्दुओं को झकझोरती, दु:सह व्यथा-सी नभ पार! मेरे स्मृति-गगन में सहसा अन्ध

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