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तुम्हीं हो क्या बन्धु वह, जो हृदय में मेरे चिरन्तन जागता है? काँप क्यों सहसा गया मेरा सतत विद्रोह का स्वर स्तब्ध अन्त:करण में रुक गया व्याकुल शब्द-निर्झर? तुम्हीं हो क्या गान, जो अभिव्यंजना मुझ म

अल्ला रे अल्ला होता न मनुष्य मैं, होता करमकल्ला। रूखे कर्म-जीवन से उलझा न पल्ला। चाहता न नाम कुछ, माँगता न दाम कुछ, करता न काम कुछ, बैठता निठल्ला अल्ला रे अल्ला!

आह भूल मुझ से हुई-मेरा जागता है ज्ञान, किन्तु यह जो गाँठ है साझी हमारी, खोल सकता हूँ अकेला कौन से अभिमान के बल पर? हाँ, तुम्हारे चेतना-तल पर तैर आये अगर मेरा ध्यान, और हो अम्लान (चेतना के सलिल

हँस रही है वधू-जीवन तृप्तिमय है। प्रिय-वदन अनुरक्त-यह उस की विजय है। गेह है, गति, गीत है, लय है, प्रणय है  सभी कुछ है। देखती है दीठ लता टूटी, कुरमुराता मूल में है सूक्ष्म भय का कीट!

जीना है बन सीने का साँप हम ने भी सोचा था कि अच्छी ची ज है स्वराज हम ने भी सोचा था कि हमारा सिर ऊँचा होगा ऐक्य में। जानते हैं पर आज अपने ही बल के अपने ही छल के अपने ही कौशल के अपनी समस्त सभ्यत

कहती है पत्रिका चलेगा कैसे उन का देश? मेहतर तो सब रहे हमारे हुए हमारे फिर शरणागत- देखें अब कैसे उन का मैला ढुलता है! 'मेहतर तो सब रहे हमारे हुए हमारे फिर शरणगत।' अगर वहीं के वे हो जाते पंग

 (1) धरती थर्रायी, पूरब में सहसा उठा बवंडर महाकाल का थप्पड़-सा जा पड़ा चाँदपुर-नोआखाली-फेनी-चट्टग्राम-त्रिपुरा में स्तब्ध रह गया लोक सुना हिंसा का दैत्य, नशे में धुत्त, रौंद कर चला गया है जाति

यह इधर बहा मेरे भाई का रक्त वह उधर रहा उतना ही लाल तुम्हारी एक बहिन का रक्त! बह गया, मिलीं दोनों धारा जा कर मिट्टी में हुईं एक पर धरा न चेती मिट्टी जागी नहीं न अंकुर उस में फूटा। यह दूषित द

रात गाड़ी रुक गयी वीरान में। नींद से जागा चमक कर, सुना पिछले किसी डिब्बे में किसी ने मार कर छुरा किसी को दिया बाहर फेंक रुकी है गाड़ी-यहीं पड़ताल होगी। न जाने कौन था वह पर हृदय ने तभी साखी दी

 (1) हम एक लम्बा साँप हैं जो बढ़ रहा है ऐंठता-खुलता, सरकता, रेंगता। मैं-न सिर हूँ (आँख तो हूँ ही नहीं) दुम भी नहीं हूँ औ' न मैं हूँ दाँत जहरीले। मैं-कहीं उस साँप की गुंजलक में उलझा हुआ-सा एक

सोचने से बचते रहे थे, अब आयी अनुशोचना। रूढिय़ों से सरे नहीं (अटल रहे तभी तो होगी वह मरजाद!) अब अनुसरेंगे-नाक में नकेल डाल जो भी खींच ले चलेगा उसी को! चलो, चलो, चाहे कहीं चलो, बस बहने दो  व्यवस्थ

अच्छा भला एक जन राह चला जा रहा है। जैसे दूर के आवारे बादल की हलकी छाँह पकी बालियों का शालिखेत लील ले कारिख की रेख खींच या कि कोई काट डाले लिखतम सहसा यों मूर्छा उसे आती है। पुतली की जोत बुझ जाती

शहरों में कहर पड़ा है और ठाँव नहीं गाँव में अन्तर में ख़तरे के शंख बजे, दुराशा के पंख लगे पाँव में त्राहि! त्राहि! शरण-शरण! रुकते नहीं युगल चरण थमती नहीं भीतर कहीं गूंज  रही एकसुर रट    कैसे बच

कोटरों से गिलगिली घृणा यह झाँकती है। मान लेते यह किसी शीत रक्त, जड़-दृष्टि जल-तलवासी तेंदुए के विष नेत्र हैं और तमजात सब जन्तुओं से मानव का वैर है क्यों कि वह सुत है प्रकाश का-यदि इन में न होता

मैं समुद्र-तट पर उतराती एक सीपी हूँ, और तुम आकाश में मँडराते हुए तरल मेघ। तुम अपनी निरपेक्ष दानशीलता में सर्वत्र जो जल बरसा देते हो, उस की एक ही बूँद मैं पाती हूँ, किन्तु मेरे हृदय में स्थान पा कर वह

एक दिन और दिनों-सा      आयु का एक बरस ले चला गया।

मैं बहुत ऊपर उठा था, पर गिरा। नीचे अन्धकार है-बहुत गहरा पर बन्धु! बढ़ चुके तो बढ़ जाओ, रुको मत  मेरे पास-या लोक में ही-कोई अधिक नहीं ठहरा!

किस ने देखा चाँद?-जिस ने उसे न चीन्हा एक अकेली आँख, अकेला एक अनझरा आँसू जीवन के इकलौते अपने दुख का, बँधी चिरन्तन आयासों से, खुली अजाने, अनायास सीपी के भीतर का अनगढ़ मोती? सीपी-वासी जीव, न जाने ज

ओ पिया, पानी बरसा ! घास हरी हुलसानी मानिक के झूमर-सी झूमी मधुमालती झर पड़े जीते पीत अमलतास चातकी की वेदना बिरानी। बादलों का हाशिया है आस-पास बीच लिखी पाँत काली बिजली की कूँजों के डार-- कि असाढ़

घन अकास में दीखा। चार दिनों के बाद वह आएगी मुझ पर छा जाएगी, सूखी रेतीली धमनी में फिर रस-धारा लहराएगी वह आएगी-मैं सूखी फैलाव रेत (वह आएगी-) मेरी कन-कनी सिंच जाएगी (वह आएगी-) ठंड पड़ेगी जी को, आस

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